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'कान्हड़दे प्रबन्ध' और उसका ऐतिहासिक महत्त्व
डॉ० सत्यप्रकाश
'कान्हड़दे प्रबन्ध कवि पद्मनाथ विरचित माना जाता है। इसका गुजराती विद्वान् और लेखक श्रीकान्तिलाल बलदेव रामव्यास ने किया था । हुआ था ।
यह ग्रन्थ अनेक दृष्टियों से असाधारण महत्त्व का है। जिस छन्द में उसकी रचना तिथि दी हुई है उसके जो दो परस्पर भिन्न पाठ हैं वे इस प्रकार हैं
सम्पादन कुछ समय पूर्व प्रसिद्ध इसका प्रकाशन १९५५ ई० में
१. पचतालीस ३ पूर्ण बरीस मास मागसिर पूनिम दीस । संवत् पंनर बारो तरउ, तिणिदिनि सोमवार विस्तरु ॥ २. संवत् पनर बारोतर सार, माह साम पुम्यम सोमवार । जाल्हुर गढ़ घण उलट धरी, गायु कान्ह विशेष करी ॥
इन दोनों में रचना संवत् १५१२ ही आता है । ग्रन्थकी एक अन्य प्रति सं० १५९८ वर्षे कात्ती वदी ९ गुरुवार की लिखी हुई है । कुछ भी हो यह अब सिद्ध-सा है कि यह ग्रन्थ सं० १५१२ में लिखा गया होगा । ऐतिहासिक दृष्टिसे इस ग्रन्थका बहुत महत्त्व है । ग्रन्थकार उसी राजवंशसे सम्बन्धित था जिसको ग्रन्थ के कथानकने पवित्र किया था। यह भी सम्भव हो सकता है कि उसको कथाकी समस्त सामग्री उस राजवंश के लिखित और अलिखित इतिहासोंसे प्राप्त हुई हो। उस युग के इतिहासको जानने के लिये यह एक अपूर्व ज्ञान भण्डार है ।
यही नहीं, कविता की दृष्टिसे एवं आदर्शों के लिये जीवनोत्सर्ग काव्य के रूपमें इसका स्थान साहित्य के इतिहास में सदा अमर रहेगा। आइये अब इसमें वर्णित कथापर दृष्टिपात करें और इसके आधार पर तत्कालीन मारवाड़ के इतिहासको जानें। विशेषकर जालौर के इतिहास को जानने का यह अनूठा स्त्रोत है । इसके आधार पर उस क्षेत्रका इतिहास पटना में इस प्रकार वर्णित है। मारवाड़ देश में १६ की शताब्दी में सोनगरा चौहान वंश का राज्य जालौर नगर पर था । कान्हड़दे उसका प्रतिभावान शासक उस समय था । वह इतिहास प्रसिद्ध मात्रदेवका भाई था । उसके पुत्रका नाम वीरमदे था । उस समय गुर्जर का राजा सारंदे था। उसने एक दिन माधव नामक ब्राह्मण को अपमानित कर दिया। इसी दुर्घटना के कारण ही विग्रहका प्रारम्भ हो गया ।
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अपमानको सहन न करके माधवने प्रतिज्ञा की कि वह भोजन तभी करेगा जब वह गुजरातपर तुर्कोंको ला उपस्थित करेगा ।
कुछ ही समय में वह दिल्ली चल दिया वहाँ पहुँचकर खिलजी सुलतान अलाउद्दीनसे मिला। अलाउद्दीनसे उसने सारी कथा बताई उसने इस बात के लिये भी उसे प्रेरित किया कि वह गुजरातपर आक्रमण कर दे। सुल्तानने उसपर विचार किया और उसने उसकी बात जंच गई। उसने उसकी बात मानकर गुजरात
भाषा और साहित्य : २०७
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