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भी पूर्णरूपेण भारतमें ही बनानेकी योजना विचाराधीन है। यह कार्य ब्रिटिश जहाज निर्माण करनेवाली कम्पनियों के साथ भारतीय 'मज़गाँव शिपयार्ड लिमिटेड' को सौंपा गया है। कलकत्ताकी 'गार्डन रीच वर्कशाप' ने भी नेवीके लिये कई 'आक्सीलरी क्राफ्ट' बनाये हैं। इस दिशामें सबसे सराहनीय कार्य किया है 'दि हिन्दुस्तान शिपयार्ड', विशाखापट्टम ने जिसने भारतीय नैवीका सर्वप्रथम 'हाइड्रोग्रेफिक' जहाज आई. एन० एस० दर्शकका निर्माण किया है। २१ फरवरी, १९६५ को इस जहाजका विधिवत् उद्घाटन तत्कालीन नौसेनाध्यक्ष पी० एस० सोमनने किया। भारतीय सागर एवं खाड़ियोंका सर्वेक्षण नौसेनाका उत्तरदायित्व है जिस कारण 'दर्शक' की प्राप्ति एक प्रसिद्ध उपलब्धि है क्योंकि इससे सर्वेक्षणके लिये आधुनिकतम उपकरणोंका उपयोग करने में नौसेनाको काफी सुविधा हो जायेगी। इसमें टोह लगानेके लिये एक हेलीकाप्टेरकी भी व्यवस्था है जिसके लिये जहाजमें विशेष उड़ान डेक एवं हैंगर बनाये गये हैं। २७,००० टनवाला यह जहाज भारतीय नौसेनाका प्रथम वातानुकूलित जहाज है। इसमें २२ अफसरों एवं २७० जवानोंके रहनेकी व्यवस्था है । प्रत्येक जवानका एक अलग बंक ( सामान रखने एवं सोनेका कक्ष ) है। इस जहाज के कर्मचारियोंका काम सागरी रास्तोंके नक्शे बनाना है ताकि नौसैनिक एवं व्यापारिक जहाज अपने-अपने मार्गों पर बिना किसी हिचकिचाहट एवं भयके आ जा सकें। लम्बा समुद्र तट होनेके कारण भारत जैसे देशके लिये निरन्तर चौकसीकी आवश्यकता है क्योंकि समुद्री तूफानों, बालूके टीलों, मँगेकी चट्टानों एवं ज्वालामुखी पहाड़ोंके निरन्तर परिवर्तनोंसे मार्ग अवरुद्ध होता रहता है। इस शाखाका प्रधान कार्यालय देहरादून में है पर ग्रीष्मकालमें नक्शे निर्माणका कार्य दक्षिण भारतकी नीलगिरि पहाड़ियोंमें स्थित 'कोनार' नामक प्रदेशका आफिस करता है । हाइड्रोग्रेफिक शाखाके तीन अन्य जहाज 'यमुना', 'सतलज' एवं 'इनवेस्टीगेटर' हैं जिन्हें विशेष तौरसे भारतीय तटों एवं इसके निकटवर्ती प्रदेशोंके निरीक्षणार्थ नियुक्त किया गया है एवं ये अपना कार्य बड़ी मुस्तैदीसे कर रहे हैं।
इस तरह भारतीय नौसेनाकी कहानी एक गौरवमयी गाथा है। ये प्रेरणाके वे पावन प्रसून है जिनके अन्तरालमें विश्व-शक्ति, व्यापारिक उत्थान, अन्तर्राष्ट्रीय सौहार्द्र एवं आर्थिक प्रगति सन्निहित है साथ ही है एक उद्घोष कि भारत अपनी आत्मरक्षामें पूर्ण सजग है और आक्रान्ताओंको अनन्त जलसमाधि दिलानेकी पूर्ण क्षमता रखता है।
इतिहास और पुरातत्त्व : ४३
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