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EEासाहेन, लावनगर. ફોન : ૦૨૭૮-૨૪૨૫૩૨૨
300४८४
છે જૈન ગ્રંથમાળા
सम्पादक पुष्पांक ६०
थाबूवाले पागाराण की जीवन सौरभ
द्रव्य सहायक श्री सागरमलजी समदडिया
( नागौर निवासी) नं ४ गांधी रोड़ पो० मयारम (तेन्जोर)
सम्पादक चंदनमल नागोरी छोटी सादड़ी | मेवाड़)
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सम्पादक पुष्पांक ६०
बाबूवाले योगीराज की जीवन सौरभ
जिसमें र श्री विजयशांतिसूरिश्वरजी महाराज का संक्षिप्त जीवन श्रद्धांजलियां, योग प्रभाव व विभूतियों का
अल्प वर्णन है
पाकिसय
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द्रव्य सहायक श्री सागरमलजी समदडिया
( नागौर निवासी) नं ४ गांधी रोड़ पो० मयारम (तेन्बोर)
सम्पादक चंदनमल नागोरी छोटी सादड़ी ( मेवाड़)
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प्रकाशक : चंदनमल नागोरी जैन पुस्तकालय छोटी सादड़ी (मेवाड़)
प्रथमावृत्ति १००० वैसाख संवत् २०२० अत्य--वांचन मन छ
मुद्रक :
प्रतापसिंह लूणिया जॉब प्रिटिंग प्रेस, ब्रह्मपुरी, अजमेर ४-६४
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: समर्पण पत्राः परम पूज्य योगीराज श्रीविजयशांतिसूरिजी महाराज के भक्तजन एवं हमारे गुरुभाई बहिन धर्मरागी स्वधर्मी बंधुओं की सेवा में सादर समर्पित ।
प्रकाशक, द्रव्यदाता
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॥ यतः ॥ बिना माता भ्राता प्रिय सहचरी सूनु निवहः, सुहृत् स्वामी माद्यात् करिभटरथाश्व परिकरनिमजन्तं जन्तु नरक कुहरे रक्षितुमलं गुरोधर्माधर्म प्रकटनपरात कोऽपि न पर :
. "योगदीपक" भावार्थ--संसार में पिता माता भाई प्रियांगना-सहचरी पुत्रगण, स्नेही मित्र ओर स्वामी, इसके अतिरिक्त मदोन्मत गजरथ अश्वसमूह हो तथापि नर्कके द्वार पर जाते समय केवल गुरु के सिवाय और कोई रक्षक नहीं होता है । इसलिए कहा है किगुरु कल्प वृक्षो गुरु कामधेनु,
गुरु काम कुंभोगुरु देव रत्नं । गुरुश्चित्रवन्ली, गुरु कल्पवल्ली, गुरु दक्षिणा वृत्तशंखपुनश्च ॥
"धर्मदासगणि"
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विज्ञप्ति
इस पुस्तक के प्रकाशन में "शांति सन्देश" नाम की पुस्तक श्रीमती मगनकुंवरीजी धर्मपत्नि श्रीलहरचन्दजी सेठिया बीकानेर निवासी की संकलिता में से श्रद्धांजलियां प्रकाशित की हैं, एतदर्थ उन्हें धन्यवाद है। ____ मैं बीकानेर संघ तपगच्छ उपाश्रय में श्रीसिद्धचक्र महापूजा का विधान कराने गया उस समय सेठ जिनदासजी साहब कोचर और इनकी धर्मपत्ति सूरजबाई ने योगीराज का जीवन वृत्तान्त प्रकाशित कराने का आग्रह किया कि : द्रव्य सहायक सद्गत सेठ सागरमलजी समदडिया के सुपुत्र नागौर निवासी (हाल मदरास ) निज पिता सदगत समडियाजी की पुण्य स्मृतिमें प्रकाशन कराना चाहते हैं-वैसे श्रीमान जिनदासजी साहब व इनकी धर्मपत्नि सूरजबाई को गुरुदेव के अनेक प्रसंग चमत्कार के स्मरण है, और बादरमलजी साहब सूरजबाई के पिता थे । दोनों के धर्म स्नेह अधिक होने से प्रकाशन कार्य कराने की स्वीकृति दी, यथा साध्य पूर्व प्रकाशनानुसार और योगीराज गुरुदेव के अनुभव में आये हुए प्रसंग का वर्णन व योग की विभूति आदि का लेख लिखने में गुरु सेवा का सौभाग्य प्राप्त हुआ। लेख लिखने में निर्जरा भी हुई । अतः श्री जिनदासजी साहब व सूरजबाई को धन्यवाद दिया जाता है साथ ही द्रव्यदाता को भी धन्यवाद है कि जिन्होंने गुरुभक्ति का परिचय दिया है। प्रस्तु
निवेदकचंदनमल नागोरी छोटी सादड़ी (मेवाड़)
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श्रीमान् बादरमलजी समदडिया नागौर निवासी का संक्षिप्त जीवन चरित्र
मरुधर में नागौर प्राचीन नगर है, इस नगर में महान् तेजस्वी जैनाचार्यों का पदार्पण कई बार हुवा है, इस नगर के नाम से नागोरी तपागच्छ शाखा भी प्रसिद्धि में आई थी। शास्त्रों के लिखने वाले यहाँ बहुतायत से थे और अल्प संख्या में इस समय भी हैं, नागौर संघ की ओर से चातुर्मास कराने के लिए विनंतियाँ लिखी जाती थी। वह विशेषण, अलंकार सहित दीर्घ लेख बद्ध होती थी, जिनका संग्रह इस समय भी बड़ौदा स्टेट के प्राच्य भवन पुरातत्त्व विभाग में सुरक्षित है। कई भाईयों ने यहाँ दीक्षा ग्रहण की और नगर व देश के नाम को दिपाया था, दीक्षार्थी तो पुण्य भूमि में ही होते हैं, दीक्षा का अपूर्व साधन पुन्यवान के उदय में आता है, नल राजा के भाई कूबर को मालूम हो गया था कि मेरा आयुष्य केवल पांच दिन का ही है, जानकर तत्काल दीक्षा ले ली और सिख पद पाया। इसी तरह हरिवाहन राजा को नौ दिन का आयुष्य विदित होते ही दीक्षा ली और सर्वार्थ सिद्धि विमान में उत्पन्न हुए।
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श्रीमान् सद्गत बादरमलजी समदड़िया
नागौर वाले
जन्म
१९३४ मंगसर सुदी ४
स्वर्गवास
१६६६ मंगसर सुदी ४
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इस पुन्य भूमि पर ही नागौर में श्री बादरमलजी समदडिया का जन्म संवत् १९३४ मृगशिर्ष कृष्णा अष्टमी को हुवा था, बाल-काल पूर्ण होने बाद आप गृहस्थ व्यवसाय की ग्रन्थी में आये, घर के संस्कार और जैन धर्म का पाराधन व्रत नियम का पालन यह मनुष्य को उच्च कक्षा पर ले जाता है। भावना बढने से आपने श्री परम पूज्य विजय लक्ष्मणसूरिजी महाराज की सान्निध्यता में उपधान तप किया था, और तब से हो आपकी भावना दीक्षा लेने को थी किन्तु उदय में नहीं आई, आप नित्य सामायिक से अध्यात्म पद आदि का अध्ययन-मनन पूर्वक करते थे। एकदा आप परिवार सहित अचलगढ़ यात्रार्थ गये वहां योगीराज के दर्शन से संतुष्ट हुए। भक्ति देख योग्य प्रात्मा समझ योगीराज ने कहा आनंद में हो, हर्षित हो कहा आनंद है, एक बात चाहता हूँ कि मेरे अंत समय में आप मुझे सहायता देवें, स्वीकृति पाते ही विशेष हर्ष में आ गए, वापसी पर अंत समय जान चुके थे, वहीं से श्री सिद्धिगिरिजी यात्रा का प्रयाण कुटुम्ब सहित किया और बारंबार कहते रहे यह मेरी अंतिम यात्रा है। विशेष भाव भक्ति से यात्रा की, और कहा कि अब घर चलो वहीं से हाथ जोड़ वन्दन किया करेंगे और कुछ दिनों में ही आपकी लघु पुत्री सूरज बाई धर्मपत्नि श्री जिनदासजी साहब कोचर को स्वप्न में श्री योगीराज ने दर्शन देकर कहा कि तेरे पिताजी का पेंसठवां वर्ष लगे बाद मंगसर सुदी चोथ को देहांत होगा। यह समाचार पत्र द्वारा नागौर पहुंचाए गए, परंतु थोड़े दिन बाद विस्मरण हो गये । संयोग से मंगसर विद बारस को आपको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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ज्वर आया और कुटुम्ब परिवार में खबर पहुंचने से सारे परिवार के भाई बहिन आ गए । आप धर्म ध्यान स्मरण में दत्तचित रहते थे। सुदी ३ की रात्रि को स्वप्न में योगीराज के दर्शन हुए आपने कहा मैं आ गया हूँ, तैयारी करना प्रातः ही सारी कथा सुनाई और मृगशिर्ष शुक्ला चतुर्थी को आपका देहान्त हो गया । अतः यह चमत्कार कम नहीं हुवा, बादरमलजी ने निजपुत्र सायरमलजी आदि को कहा योगीराज गुरु देव का उपकार मत भूलना, इसी आज्ञा के पालन में यह पुस्तक प्रकाशन कराई है। अस्तु
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परमोपकारी गुरुदेव भगवन्न विजयशांतिसूरीश्वरजी साहब
का हार बंध चित्र
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योगीराज विजयशांतिसूरिजी का .
समाधी स्थान-मांडोलो योगनिष्ट योगीराज का स्वर्गवास महासुदी पंचमी को हुआ था, इस दिन प्रतिवर्ष यात्री पाते हैं इस वर्ष भी कई गांवों से यात्रीगण आए नगरजन सहित स्वामी वात्सल्य इस वर्ष नीलगिरी वालों की ओर से हवा। यहां एक धर्मशाला सेठ शिखरचन्दजी रामपुरिया बीकानेर की ओर, से दूसरी शान्ता बहिन अहमदाबाद लालमीलवालों की ओर से बनी है, अस्पताल भी बनरहा है नर्स कम्पाउन्डर डाक्टर काम कर रहे हैं। सेठ किशनचन्दजी की प्रेरणा से उद्घाटन श्रीमान् सुखाडियाजी से कराया गया। गुरुमंदिर का निर्माण किशनचन्दजी व रुक्मणी बहिन की ओर से हुआ है, श्री किशनचन्दजी जैन गुरुभक्त हुए यह बात उनके धर्मगुरु को मालूम हुई और नाराज होकर गुरुदेव को पराजित करने आबू आये । मालूम होते योगीराज ने किशनचंदजी को कहाकि आगंतुक महोदय को गाजेबाजे से समारोह के साथ स्वागत कर लामो, वैसा ही किया। आपने उनको कुर्सी पर बैठाये और सब प्रासन लगा सामने बैठे । गुरुजी ने संस्कृत भाषा में निज मंतव्य जाहिर किया उसका उत्तर देते रहे । आश्चर्य पा गुरुजी ने सभासद को बाहर जाने को कहा और आप दोनों के बीच वार्ता शुरू हुई। चर्चा समाप्ति के बाद गुरुजी ने सेठ किशनचन्दजी को
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कहा कि, तेने गुरु किया वह तो बहुत उच्च आत्मा है। मैं ऐसा नहीं जानता था कि इन्होंने इतने उच्च दरजे का योग साधन किया है। मेरे देखने में ऐसे महात्मा प्रथमबार ही आये हैं।
एक समय आबू में किशनचन्दजी ए.जी.जी. साहब के पास गये बात करने के बाद ए. जी. जी. ने फरमाया गुरुदेव से मिलना है, सेठ ने आकर छ: बजे का समय निर्णत कर सूचना दे पाए। ए. जी. जी. साहब आये और नौ बजे तक बातें की। आप इतनी देर तक ज़मीन पर बैठे रहे कुर्सी का उपयोग नहीं किया। बाहर आ किशनचन्दजी को कहा मुझे साक्षात ईश्वर मिल गये, इस तरह के कई चमत्कार विदेश जाते जहाज में, बिमारी में और कठिनाइयों में गुरुदेव द्वारा होनेका वर्णन सेठ किशनचन्दजी साहब अब तक करते हैं।
चंदनमल नागोरी
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योगियों का योग मार्ग
योगियों को योग साध्य करने से पहले योगके पाठ नियम का अध्ययन आवश्यकिय होता है। यम, नियम,प्राणायाम परिहार, धारणा ध्यान ध्येय और समाधी यह योग के अंग हैं। बाद में पाठ दृष्टि योग की होती है । योगका मुख्य अंग ध्यान माना गया है, ध्यान करने वालोंको, आकर्षण, वशीकरण, स्तम्भन, मोहन, द्रुति, निविषीकरण, शांति विद्वेष, उच्चाटन निग्रह आदि के भेद जानना चाहिए। इन का मनन करने के बाद पूरक कुंभक रेचक दहन, प्लावन, सकलीकरण, मुद्रा, मंत्र मंडल धारणा ध्यान, ध्येय, समाधी यह सब उत्तरोतर वृद्धिपाते रहें, तब योग सिद्ध होता है। ध्यान करनेवाले को मुख्य दशस्थान मुख पर व मस्तिष्क पर अवलम्बित कर स्थिरता करना चाहिए। इन सबमें मन की चपलता को रोकने का प्रयत्न न किया हो तो सिद्धि नहीं होती । मन है क्या यह समझे बगैर इस पर अंकुश कैसे लगे। इन्द्रियों का शरीर का वर्णन विषय विकार प्रकार का वर्णन देह के साथ सम्बन्धित है, इनका रूप भी वणित है। मन का कोई रूप नहीं है, आत्मा का भी रूप नहीं है, फिर मन बलवान वेग गतिवाला कैसे बन जाता है ? जैसे जड़ वस्तु के मिश्रण से अमुक शक्ति का प्रादुर्भाव होता है, वह दृष्टि में नहीं आता, जल में शीतलता का गुण है, परन्तु अमुक प्रयोग मिश्रण से
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शक्ति का प्रादुर्भाव होता है, वह दृष्टि में नहीं पाता, जल में शीतलता का गुण है, परन्तु अमुक प्रयोग मिश्रण से विद्यत उत्पन्न होती है और वरालका बल अपरम्पार होता है, वस्तुएँ पृथक-पृथक हो तो शक्तियां गौण रहती है जो शक्ति बल मिश्रण से पैदा होती है वही वेगवान होती है, इस न्याय से देह इन्द्रियों के योग से मन होता है, और यह इतना वेगवान होता है कि पल विपल में विश्व के किसी विभाग पर पहुँच जाता है, मन पर मनोनिग्रह करने के लिये, अध्यात्म कल्पद्रुम में सहस्रावधानी श्री सुन्दरसूरिजी महाराज ने वर्णन किया है, और कल्याणमंदिर स्तोत्र के कर्ता ने भी कह दिया कि "मन एवं मनुष्याणं कारणं बंध मोक्षयो" मन बंध और मोक्षका कारण होता है। योग के चोरासी प्रासन बताये हैं, जिनमें से जैसा जिसको अनुकुल-सुविधा जनक मालूम हो उसके द्वारा सिद्धि प्राप्त करें, प्रासन सिद्ध का अर्थ यह है कि अमुक समय तक सुख पूर्वक ध्यानस्थ रह सके पतंजल राजयोग" में प्राणायाम का वर्णन करते कहा है कि प्राणायाम के द्वारा जिस मन का मैल धुल गया हो वही मन ब्रह्म में स्थिर होता है, प्राणायाम के अनेक भेद-भेदानुभेद हैं। प्राणायाम करने से पहले नाड़ी शुद्धि करनी चाहिए जिसके भी अनेक भेद योग "प्रयोग हैं, प्राणायाम से शक्ति पाती है, अंगुठे से दाहिना नसकोरा (नाकका) दबाकर बांयी ओर के नसकोरे से धीमे धीमे यथाशक्ति वायु सञ्चार करो, और बगैर विश्राम किये बांये नासिका दबाकर दाहिनी नासिका से वायु निकालो।
इस तरह से अभ्यास बढ़ाते रहो, इस तरह करते करते यदि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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शुद्धमान क्रिया करे तो अधिक से अधिक तीन महिने में नाडी शुद्धि होती है। वैसे वांचन या अनेक शास्त्र श्रवण तो वर्षों तक करते रहो क्रियान्वित न हो वहां तक लाभ नहीं होता। जहां तक स्वयम् अनुभव न हो वहां तक ध्यान की शुद्धि नहीं होती। ध्यान साधना में भी अनेक विघ्न आना संभव है अतः विघ्नजय किये बगैर आगे गति नहीं हो पाती। विघ्नों में सबसे बड़ा विघ्न है संदेह, जिसका संदेह विलय न हो वह आगे गति करने योग्य नहीं होता, ऐसे संदेह बहुत आगे बढ़े हुए को भी होना संभव है, वह निराकरण और अनुभव होने पर ही मिटता है, कथन श्रवण वांचन मनन से भी सन्देह का नष्ट होना कठिन है, किन्तु अनुभव से क्षणमात्र में संदेह विलय हो जाता है।
योग साधन से स्वरज्ञान-सूर्यस्वर, चन्द्रस्वर और सुष्मना का ज्ञान होता है अन्य योगकी क्रियाओं में इसका मिश्रण, तत्त्व, पहिचान, गति वायु के रंग और वायुवहन का प्रमाण जान लिया तो त्रिकाल ज्ञानी हो सकोगे। भूत भविष्य का वर्णन तो मामूली बात है, परन्तु मनोभाव भी जान सकोगे इतने दरजे पहुंचने पर विश्राम पाये तो स्मरण रखना वह विराम तुम्हें स्थान भ्रष्ट कर देगा, और आगे गति न कर सकोगे।
आप पूछेगे.ध्यान क्रिया में प्राणायाम का क्या सम्बन्ध है ? ध्यान मनोनिग्रह पर आधार रखता है। बात ठीक है, क्रिया प्रक्रिया जिन नाड़ी तंतुओं द्वारा होती है उनकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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शुद्धता से क्रिया शुद्ध बनती है। शरीर में साडे तीन करोड़ रोमराय है, एक एक रोमराय द्वारा वायु का संचार होता है। यदि यह द्वार रूंध हो जाए तो वायु प्रमाण रूप में प्रवेश नहीं होने से रोग-व्याधी उत्पन्न होती है। अत: ध्यान देह द्वारा मन की चाबी से आत्मा की निश्रा पंच-योग की सान्निध्यता में होता है, इसलिये अंग अंतरंग नाडी आदि के व्हवहार क्रिया की शुद्धता आवश्यक मानी है। __मानवभव उत्तमोत्तम माना गया है, जैन सूत्रों में मानवभव से उत्तम भव कोई नहीं माना गया, देवभव बारह देव लोक के अतिरिक्त नौग्रेयक और अनुत्तरविमान-अनुतर विमान को लघु मोक्ष भी कह सकते हैं । परन्तु इन देव स्थानों से प्रात्मा सीधा मोक्ष में नहीं जा सकता। मुक्ति के लिये मानवभव की आवश्यकता है। देवभव में व्रत नियम ध्यान समाधी उदय में नहीं आते यह मान्यता कई सम्प्रदाय में मान्य है, और मनुष्यभव को देव से भी श्रेष्ठ ही नहीं श्रेष्ठतम माना है, देवतामों को यम नियम व्रत ज्ञान लाभ के हेतु मानव देह लेने की आवश्यकता होती है। और स्पष्ट कहें तो मनुष्य भव हो ज्ञान प्राप्त करने के योग्य है।
यहूदी और इसलाम धर्म में वर्णन है कि, ईश्वर ने देवता और अन्यान्य समूह सृष्टि के मनुष्य की सृष्टि करके देवताओं से कहा कि मनुष्य को प्रणाम करने जामो, सबने आज्ञा पालन की, केवल "इब्लिस" नहीं गया, तो इब्लिस को अभिशाप दिया जिससे वह शैतान बन गया यह उदाहरण पातांजल "राजयोग" अनुवाद स्वामी विवेकानंदजी कृत में है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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मानव देह की विशेषता उत्तमता का उपरोक्त ज्वलंत उदाहरण है। मानवभव पाये आर्यक्षेत्र उत्तम सहयोग पाकर भी पशु जीवन व्यतीत होता हो तो समतुलना करने से पता लगेगा की उत्तमत्ता के लक्षण कितने हैं।
अजी सोने-सुवर्ण का नाम लेने से आभूषण पहिनने का . आनन्द नहीं पाता, मिष्ठान का नाम लेने से रस स्वाद नहीं प्राता, औषधियों के नाम लेने से रोग मुक्त नहीं होते, आग गाड़ी, वायुयान का नाम लेने से इच्छित स्थान पर नहीं पहुंचते । यह सब क्रियान्वित हो तो लाभ होता है। तदनुसार योगीराज की जयंति, गुणग्राम, स्तवन, कीर्तन मेला, यात्रा आदि से आत्मा को जब लाभ हो सकेगा कि योग मार्ग में प्रवेश करोगे, यदि सच्चे भक्त कहलाते हो तो इस तरफ ध्यान दो, योग विषय का प्रचार करो, ध्यान बढाने को क्रिया विधान का साहित्य प्रकाशित करामो और योग महिमा, योग साधन सामग्री स्थान के निर्माण में सहायक बनो तो आत्मोन्नति होगी।
गुरुदेव के तीन पीढी तक योगाभ्यास योगीराज के दादा गुरु से यह चला आता था, वह योगीराज के बाद नहीं रहा। इस समय पाटानुपाट उत्तरोत्तर विभुति नहीं रही इसका पूर्ण खेद है । अस्तु
संघ सेवकचंदनमल नगोरी छोटी सादड़ी (मवाड़)
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अनुक्रमणिका अंक
विषय १ प्राबूवाले योगीराज का महत्त्वपूर्ण प्रभाव २ श्री धर्मतीर्थ शांति गुरुभ्यो नमः ३ अहीर कुल का इतिहास ४ श्री विजय केसरसूरिजी द्वारा श्रद्धांजली ५ तपस्वी मुनि श्री मिश्रीलालजी ६ मिस माईकेल पीम ( न्यूयार्क ) ७ सर प्रभाशंकर पट्टणी के उद्गार ८ लाला लाजपतराय, लाहौर ६ महाराजा लीबडी सर दौलतसिंहजी १० ज्योर्ज ज्युटजेलर ( स्वीट्जरलैंड) ११. प्ररिव्राजकाचार्य साउथ केनेडा १२ सेठ मंगलदास, भात बाजार, बंबई १३ गुजराती पंच १४ स्टेट्समेन, कलकत्ता १५ लीडर, इलाहबाद १६ समाधि मरण की तैयारी १७ ज न बालाश्रम, उमेदपुर १८ हैदराबाद बुलेटीन १६ माइरोड टू इंडिया २० जैन ध्वज २१ जे० एम० राइवीरे २२ प्राचार्य देव की स्तुति
39 m dri Man
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सदगत् जगत मान्य जैनाचार्य श्री विजयशांतिसूरीश्वरजो साहब
SURANER
A
आबूवाले
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बाबूवाले योगिराज का महत्त्व पूर्ण प्रभाव
योग विभूति सम्पादन करना सहज बात नहीं है, जिन पुरुषों ने योग महिमा को समझा है, और योग व्याख्या श्रवण कर अनुभव प्राप्त किया हो वे ही पुरुष इस महत्त्व पूर्ण विषय को समझ सकते हैं, योगियों की क्रियाएं अद्भुत होती हैं, और वह निज का समय व्यर्थ नहीं खोते, उनके जीवन काल का कुछ समय तो बहुमूल्य होता है, और अक्सर गिरि कन्दरा वन पहाड़ पर्वतादि के सुरम्य सुहावने स्थानों पर गहरी झाड़ियों में जहाँ पक्षी का संचार-कलरव भी न हो, निर्जन स्थान हो मन्द मन्द वायु संचार होता हो, ऐसे स्थान ही योगियों को विशेष प्रिय होते हैं, क्योंकि ऐसे स्थानों में आत्म जागति ध्यान स्मरण आनन्द के साथ होते हैं, और धीरे धीरे वह निजका अभ्यास उच्च कक्षा तक पहुंचा सकते हैं, और इसीलिए योग विभूति का प्रभाव उनके मुख पर चमकता है और वह प्रभावशाली दिखते हैं, उनमें गुरुत्वाकर्षण आ जाने से प्रिय बन जाते हैं, और प्राप्त शक्तियां व विभूतियों की ओर तनिक भी आग्रह नहीं होता, आगे गति करते रहते हैं, जिन योगियों को प्राप्त शक्ति पर मोह होता है, और विभूति रक्षा के लिए प्रयत्न करते हैं, उनके पास विभूतियां नहीं ठहरती, और प्राप्त शक्तियांविभूतियां भी अपने आप विलय हो जाती है, अथवा प्राप्त
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शक्तियों को जो बहुमूल्य समझते हों, उनको वह विभूतियां निकृष्ट स्थान पर पहंचा देती हैं, योगी महात्मा निस्पोहे होते हैं, इसी कारण उनके वचन पर विश्वास होता है, योगियों में आठ प्रकार की सिद्धियां होती हैं, अणिमा, गरिमा आदि इनके अतिरिक्त वाक् सिद्धि भी होती हैं, जो अजपा जाप के अतिरिक्त गुंजारव जाप जो कण्ठ के भाग से भ्रमर गुंजार की तरह करते हैं उनको वाक् सिद्धि प्राप्त होती है, जिसके प्रभाव से जिसको जो बात कहते हैं वह प्रायः सिद्ध हो जाती है, और उनका वचन प्रियकारी होता है, जिस पर जन समुदाय को श्रद्धा जम जाती है, ऐसे योगियों का हृदय शुद्धमान और अन्तःकरण निर्मल होता है, उनके कथन में न तो वाक्य चातुर्यता होती है, और न अलंकारी भाषा चाहिए, केवल सादी भाषा थोडे वचन-भावार्थ अधिक हो
और व्यक्ति की समझ समयानुसार कथन हो तो वह सिद्ध होती हैं, जो कार्यक्रमसर शृखला बद्ध उपदेश से सिद्ध नहीं हुआ हो वह अल्प कथन सीधी सादी भाषा द्वारा हो जाता है, इसी को विभूति कहते हैं।
इन सिद्धियों के अतिरिक्त दृष्टि सिद्धि भी होती है, और दृष्टि सिद्धि प्राप्त हो जाने पर बराबर दृष्टि से वह मिलान कर नहीं देखते । नीची दृष्टि रख किसी समय अर्ध खुली दृष्टि से देखते हैं, और वैसी दृष्टि में अति आकर्षण होता है, जब ऐसी दृष्टि सिद्धि होती है तो, हिंसक थलचर आदि भी दृष्टि से दृष्टि मिलते ही स्तब्ध हो जाते हैं, हिंसा प्रवर्ती उन पर नहीं कर सकते और सेवक भाव से खड़े हो जाते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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हैं, ऐसे उदाहरण प्राचीन काल के शास्त्रों में प्रतिपादित हैं। ___ योगिराज महात्मा श्री शान्तिविजयजी साहब ध्यानी आत्मार्थी और शुद्ध जीवन व्यतीत करने वाले महायोगी थे, ध्यान और आत्म ज्ञान-पात्म दर्शन की ओर आप का पूर्ण लक्ष्य रहता था। आपका विशेष समय ध्यानस्थ अवस्था में ही जाता था । जंगल पहाड़ों में ही ध्यानस्थ रहते थे और आत्म हित प्रात्म उद्धार के लिए अति मात्रा में प्रयत्न करते थे, जब कभी आप सामान्य आत्मा को थोड़ा उपदेश देते तब उसका प्रभाव विशेष रूप से होता था।
जैन संस्कार के कारण अहिंसा व्रत जो महाव्रत में और अणुव्रत में प्रथम गिना है, उसकी सादी व्याख्या भी आप असर कारक करते थे, वैसे तो अहिंसा का मार्ग अत्युत्तम है, जिसके अनेक भेदों में दश भेद मुख्य बताये भगवन्त परमात्मा का कथन अहिंसा की व्याख्या विश्वव्यापी थी, और उसका प्रभाव बलवान था जिनके उपदेश से लगभग. अड़सठ राजा जैन धर्म पालते थे और निर्वाण समय में अठारा राजवी पावापुरी में उपस्थित थे जिनमें से लगभग नौ राजवी तो निर्वाणके समय पौषध व्रत लिए हुए थे और पीछे के काल में भी कई वर्षों तक जैन धर्म राजा प्रजा का रहा, अहिंसा के अनुयायी राजवी हों तो प्रजा भी उनका अनुकरण करती है। राजधर्म हो तो प्रत्येक प्रकार से उन्नति होती है, वणिक धर्म हो धन संग्रह की ओर लक्ष्य रहता है। महामना पूज्यवर योगीवर्य की सेवा में देश देश के राजवी
आते थे अमात्य-प्रधान का आगमन भी कम नहीं था। कई Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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राजवी विदेश में जाकर भी विकट समय में तार द्वारा आशीर्वाद मांगते थे । और विदेश से वापसी पर गुरूदेव की सेवा में आते थे । गुरू पूर्णिमा को लौकिक व्यवहार के नाते कई राजवियों की ओर से मुख्य सरदार चद्दर भेंट करने पाया करते थे, विदेश के कई विद्वानों ने आपकी भूरि भूरि प्रशंसा कई बार की और वर्तमान पत्र में लेख भी लिखे। श्रीमान् प्रोगल्वी साहब ए० जी० जी० आबू तो आपको गुरू मानते थे, राजकोट के पोलेटीकल एजेंट अजमेर कमिश्नर व इनकी धर्मपत्नि आदि आपके पास कई बार आते और पूज्य बुद्धि से देखते थे, महाराजा बीकानेर, लीमड़ी, मोरबी भावनगर, कई बार दर्शनार्थ आए और अमात्य व सेठ साहूकारों का आगमन भी कम नहीं था, कई संप्रदाय के धर्माचार्य व प्रसिद्ध मुनिवर्य भी अनेक बार आये और प्रशंसा पत्र भी लिखे, मतलब यह है कि प्रत्येक प्रकार से आपका मान पान होता था, ऐसी स्थिति में आपने अहिंसा व्रत को विशेष महत्व देने के हेतु विचार किया कि, अहिंसा का मार्ग बहुत बड़ा विशाल है, जिसका उपदेश कई तरह से मिलता है, ध्येय एक होते हुए वेश परिवर्तित देखे जाते हैं, परन्तु यह तो सिद्ध है कि धर्माचार्यों ने अहिंसा की ध्वजा खूब फहराई है।
श्री परमात्मा महावीर स्वामी की अहिंसा के शृगार में से एक वेष पशुरक्षा का भी अमूल्य समझ अपने आगंतुक महोदयों को उपदेश देना जारी किया, अतः श्रीमान् लीमड़ी दरबार सर दौलतसिंहजी साहब के अधिपत्य में साधारण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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सम्मेलन हुआ था जिसमें आपने निज की ओर से एक गऊशाला बनवाने का अभिवचन दिया था, इसी तरह जोधपुर के राय बहादुर चेतनसिंहजी साहब एम० ए० एल० एल० बी ने जो राजपूत हितकारिणी सभा व काशी विश्व विद्यालय के सदस्य थे, गुरूदेव के वचन पर एक गऊशाला निज की ओर से बनवाने को और आप द्वारा उपदेश से स्थापित होने वाली संस्था के सदस्य रहने का अभिवचन दिया था। गुरूदेव ने यह कहाकि पशुरक्षा अर्थात् गाय, भैंस, घोड़े, गधे, ऊँट, बकरी, गाडरे, आदि जो दवा के प्रभाव से मरते हैं उन के लिए चिकित्सा का प्रबंध विशेष रूप से होना चाहिए, अतः इसको कार्यरूप में प्रणित करने को प्रथम बैठक आबू में हुई, रोशन भवन के स्थान में कई राजवियों की उपस्थिति में हुई सर्व सम्मति से प्रस्ताव स्वीकृत हुआ जिसका वृतान्त टाइम्स ऑफ इण्डिया बम्बई के वर्तमान दैनिक पत्र में प्रकाशित हुआ था।
संस्था का अध्यक्ष पद श्रीमान् ए० जी० जी० साहब ने स्वीकार किया कमिश्नर, पोलिटीकल एजेन्ट, पुलिस कमिश्नर साहब आदि सदस्य नियत हुए, और आबू से सक्यूलर निकला कि बीमार जानवर को गोली से मारना व जहर की पिचकारी देने की सख्त मुमानियत है, बीमार जानवर को अस्पताल में लाया जाय उसका मुफ्त इलाज होगा। ___योगिराज के मन में पशु चिकित्सालय स्थापित कराने
की जो भावना थी वह निर्माण हुई, और संस्था के स्थापित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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होते ही नेक नामदार ए० जी० जी० साहब ने आज्ञा पत्र निकाला कि मूक प्राणी कोई गोली से या जहर की पिचकारी से नहीं मार सकेगा, विशेष में औषधालय बनवाने के लिए अच्छे स्थान पर जमीन भेंट स्वरूप प्रदान करदी, और जनता. के हितार्थ व मूक प्राणियों की दया कर आशीर्वाद लिया, और इस औषधालय को नगर सुधराई संस्था की ओर से तीन सौ रुपया वार्षिक देना स्वीकार किया, इस तरह, राज आज्ञा, जमीन और रुपया पैसा तो मिलना कठिन बात नहीं है, परन्तु नेक नामदार ए० जी० जी० साहब का प्रेसीडेन्ट होना, राजा महाराजा और उच्च अधिकारी वर्ग का सदस्यता में नाम होना यह तो अति नहीं अत्यन्त गौरव तुल्य माना जायगा । अहिंसा प्रचार की संस्था एक जैनाचार्य के उपदेश से स्थापित हो और प्रभावी पुरुषों द्वारा संचालन हो यह तो जैन समाज के लिए गौरव का विषय है । अत: माननीय परम पूज्य योगिराज को धन्यवाद और अधिकारी अध्यक्ष आदि का आभार माना गया, साथ ही कई महान पुरुषों की ओर से इस संस्था को चिरस्थाई रहने की मंगल कामना के सन्देश आये, ऐसे महान पुरुषों का योग जैन धर्मानुयायी की ओर से स्थापित संस्था को प्राप्त होने का यह पहिला ही समय था, ऐसे योग की सराहना कहां तक करें। हम तो इस विषय को योग साधन की विभूति मानते हैं ।
योगिराज के उपदेश से ग्राम्य जनता प्रभावित होती थी एकदा "मार कुण्डेश्वर" के मेले पर आपको ले गए वहां हरिजन मंडल व कई जातियों के जनगण एकत्र हुए, और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
1 नात हा
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आपको पाट पर बिराजने की विनंति की आपने उपदेश दिया शराब नहीं पीना, मांस नहीं खाना पानी छानना आदि बातें बताईं, जिसके फलस्वरूप वहां आये हुए, लुहार, गाछा, भांबी, मीने, यादव, महत्तर, बलाई आदि जाति वालों ने गुरूदेव के चरण में शीश नमाकर स्वीकार कर प्रस्ताव स्वीकृत किया कि, जो इससे विपरीत चलेगा उससे किसी जाति ने ग्यारह-किसीने पच्चीस रुपया लेने की घोषणा की। और अनुमान पचास माईल तक के गांवों में इस घोषणा के समाचार भेज दिये, इतना बड़ा काम एक दिन के उपदेश से हो इसीका नाम योग विभूति है।
मारकुण्डेश्वर के मेले पर पाडीव निवासी चुन्नीलालजी शंकरलालजी ब्राह्मण जो बम्बई कोट कस्टम हाऊस रोड पर रहते थे उस समय मारकुण्डेश्वर में पाठशाला बनवाने को तीन हजार रुपया देने का अभिवचन दिया था। यह वृतान्त संवत् १९६० के वर्ष का है ।
एक समय की बात है कि पालीताना में देश विरतीसमाज सम्मेलन में अध्यक्ष पद पर राजा विजयसिंहजी का आगमन हुआ था तब बाबू साहब नवकुमार सिंहजी, जयकुर सिंहजी साहब भी थे, आपके तार पालीताना व अहमदाबाद से मुझे बुलाने के आने से मैं आबू गया। बातचीत कर दूसरे दिन परम पूज्य गुरुदेवकी सेवा में गये तो मेरा नाम लेकर संबोधन किया, वैसे मैंने पहले कभी दर्शन नहीं किये थे परन्तु नाम लेने की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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बात को मैंने महत्व नहीं दिया था, जव बातें कर हम सब उठे तो गुरुदेव ने मुझे कहा कि--महानुभाव तुम भी जाते हो, मैं इस संकेत से पुनः बैठ गया और एक आदमी दरवाजे के पास बैठा था उसने किंवाड बंद कर दिये, आपने फरमाया महाराणा सहाब से मिल सकते हो, मैंने कहा अर्ज करा सकता हूं आप ने क्यों पूछा? आपने कहा इस समय धर्म का कार्य कराने का समय है, मैंने कहा धर्म के कार्य का समय तो जब चाहें कराने का होता है इस समय ही क्यों ? आपने फरमाया इतना नहीं पूछना चाहिए, मैंने कहा आपने फरमाया तो स्पष्टीकरण होना चाहिए, उत्तर दिया कि बात किसी को कहने की नहीं है, मैंने कहा हमारे यहां हाकिम साहब शुगनलालजी साहब मेहता हैं, उनके सिवाय किसी को नहीं कहूंगा तो फरमाया कि महाराणा साहब का आयुष्य नजीक आगया है । (उस समय महाराणाधिराज श्री फतहसिंहजी विद्यमान थे,) मैंने कहा नजीक की मयाद क्या आज और छ: महिना तो उत्तर दिया कि ज्यादा से ज्यादा आठ दिन, मैं स्तब्ध हो गया, फिर पूछा कि समाधी मरण होगा या पंडित मरण तो आप ने कहा कष्ट मय होगा, बहुत क्षोभ हुआ, उदासी आई, फिर ध्यान विषय की चर्चा कर मैं धर्मशाला में आगया, जब में आबूरोड़ स्टेशन पर पहुँचो तो मेवाड की और से यात्रा माहिती देने वाले कर्मचारी मिले उनको पूछने पर पता लगा कि श्रीमान् महाराणा साहब उदयपुर बिराजते हैं। जब मैं अजमेर पहुंचा तो लालाजी प्यारेलालजी साहब से पता लगा कि जयसमुद्र बिराजते हैं, चित्तौड़ पहुँच ने पर श्रीमान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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हाकीम साहब विश्वनाथजी स्टेशन पर थे जिन से पता लगा श्रीजी हजूर व्याधिग्रस्त होने में उदयपुर पधारे हैं, शाम को सादड़ी पहुंचा सारी घटना हाकिम सहाब को निवेदन की परन्तु उनको विश्वास नहीं हुमा । मैं दिन गिन रहा था कि शाम को हाकिम साहब और मैं होज़ में स्नान कर रहे थे इतने में नीमच से घुड़सवार तार लेकर आया, हाकिम साहब ने पढ़ा तो वही बात सिद्ध हुई मैंने कहा आज का छठा दिन है उठे और मातम मनाया गया। यह कथा आश्चर्य जैसी है, इसको मैं योग विभूति मानता हूँ।
एकदा श्रीमान् प्राचार्य महाराज हरिसागर सूरिजी शिष्यों सहित प्राबू पधारे और योगिराज से मिल निज उतारे पा शिष्यों को कहाकि कुछ ढोंग मालूम होता है, जब आप दूसरी बार गये तो जो बातें शिष्यों के साथ की थी सारी योगिराज ने कह सुनाई और कहाकि किस बात में ढोंग मालूम हुआ ? लज्जित हुए और क्षमा मांगी।
एक सुनार का लड़का घर से चला गया ढूंढ़ने पर न मिला तो वह गुरूदेव के चरणों में आकर कहने लगा कि मेरा लड़का बताओ अनशन कर बैठ गया, लोगों ने बहुत समझाया परन्तु वह हठवादी माना नहीं । तीसरे दिन सबेरे उसको कहाकि स्टेशन पर जाकर देखना । सुनार तत्काल रवाना हो स्टेशन पर पहुंचा और लड़का गाड़ी से उतरा। साथ ले गुरूदेव के चरणों में प्रा नमन कर घर चला गया ।
गुरूदेव पर कई लोगों को अपूर्व श्रद्धा थी और गुरू कृपा से चमत्कार भी मालूम होते थे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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आज के धर्म के कार्य राज सत्ता से सुधरते हैं, जैसे प्रयत्न व विनंती अरदास ने नहीं हो पाते, योगीराज के पास अनेक राजा महाराजा नवाब अमात्य-प्रधान, दीवान मुसाहब मुसद्दी का पदार्पण होता था। उस समय समाज का ध्यान इस तरफ आकर्षित नहीं हुआ, यदि समय को मान देकर प्रयत्न किया जाता तो उन्नति में सहायता मिलती, राजसत्ता तो अजब काम करती है, राजशासन शांति पूर्वक चलता हो राजा धर्म बुद्धि वाले, अमात्य धर्म भावना वाले और नगर लोक धर्म सेवा वाले हों-धर्माराधन करने में सावधान हों तो प्रत्येक कार्य की साधने में विलम्य नहीं होता, राजा महाराजाओं का
आव जाव देख एकदा श्री परम पूज्य आचार्य महाराज विजय वल्लभ सूरीश्वरजी साहब ने व्याख्यान में कहा था कि श्री हीरविजयसूरिजी महाराज के बाद जैन मुनियों के पास आना जाना हुप्रा हो तो एक योगिराज श्री शांतिविजयजी ही हैं। विशेष में हमारा मंतव्य है कि जिस समय जैन धर्म राजधर्म था तब उन्नति के शिखर पर पहुँच गया था, जब से वणिक धर्म हुमा द्रव्य सत्ता व्यवसायियों के हाथ में आई तब से धन एकत्र करने की भावना वृद्धि पाती रही। धर्म के नाम की पेढीयां कारखाने मकान आवास दुकान बंगला निर्माण हुए और किराये उत्पन्न करने को भाड़ेतियों के लिये सुविधा के लिए अर्थ के हेतु अनर्थकारी योजनाएं भी की गईं" यहाँ तक की मकानों में शौचालय आदि का निर्माण भी कराया, पूर्वकाल में अपार धर्म व्यय करने वालों ने भगवान के नाम पर पेढियाँ चलाई हो ऐसे उदाहरण मिलना कठिन बात है।
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भगवन्त परमात्मा चरम तीर्थाधिपति के समय में अनेक देशाधिपति राजा-महाराजा जैनधर्मी थे जैन धर्म पालते थे और शासन सेवा में कटिबद्ध रहते थे जिनका वर्णन जैनागमसूत्रों में प्रतिपादित है ।
(१) सम्राट् श्रेणिक - बिम्बसार यह नागवंशीय महाराजा प्रसन्नजीत के पुत्र थे, मगध देश की राजधानी राजग्रही नगरी इनकी राजधानी थी। आप बौद्ध धर्मोपासक थे, आपकी रानी चेलना जो महाराजा चेटक की पुत्री थी, यह दृढ़ जैन धर्मोपासिका थी, राजा बौद्ध रानी जैन होने से दम्पति के परस्पर विवाद होता था, संयोग से श्रेणिक को अनाथी मुनि जो राजपद छोड़ दोक्षा पाये आपसे भेंट हुई और वार्तालाप से प्रभावित हो आपने जैन धर्म स्वीकार किया, आप भगवन्त परमात्मा के पूर्ण भक्त थे आपके द्वारा जैनधर्म अधिक उन्नत हुआ जिसका वर्णन भगवती सूत्र व अन्योन्य कई ग्रन्थों में प्रतिपादित है ।
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(२) महाराजा कोणिक यह महाराजा श्रेणिक के उत्तराधिकारी थे, आपकी राजधानी चम्पानगरी थी, जिसका वर्णन बौद्ध व जैन ग्रन्थों में मिलता है ।
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( ३ ) महाराजा चेटक आपकी राजधानी विशाला नगरी थी, आप बहुत प्रभाविक बलधारी थे, आपकी शौर्यता के कारण काशी कौशल्य के अठारह राजवी आपकी आज्ञा मानते थे, आधीनता के नरेशों सहित चेटक महाराजा ने श्री महावीर भगवान के निर्वाण समय में पांवापुरी में पौषध व्रत ले रखा था जिसका वर्णन कल्पसूत्र में है ।
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(४) महाराजा उदयन आप सिन्धु सौवीर वीतभय पट्टन के राजवी थे, आप प्रभाविक बलवान नरेश थे जिससे आपकी प्राज्ञा दश राजवी मानते थे, दशपुर के इतिहास में आपका वर्णन है, और पर्युषण के अट्ठाई व्याख्यान में भी उल्लेख है,
आपकी पटरानी महाराजा चेटक की कुँवरी प्रभावती थी, जिनके आवास में भगवान महावीर की प्रतिमा स्थापित थी, आपने भगवान के पास दीक्षा ग्रहण को और निरतिचार चारित्र पालकर परमपद पाये जिसका वर्णन भगवती सूत्र शतक तेरह में है।
(५) महाराजा अलख आप वाराणसी नगरी के राजवी थे, पाप देशना श्रवण कर प्रभावित हो, भगवान के कर कमलों से दीक्षित हो निरतिचार चारित्र पालन कर मोक्ष पाये जिनका वर्णन अंतगड दशा सूत्र में प्रतिपादित है।
(६) महाराजा सम्प्रति आपकी राजधानी कपिलपुर थी, आप एक दिन मृगया को सिधाये, संयोग से वन में एक मुनि को ध्यानस्थ अवस्था में देखा, मुनिजी ने ध्यान पूराकर उपदेश दिया और आप जैन भक्त बन गये, और भगवन्त परमात्मा के कर कमलों से दीक्षित हो शुद्ध चारित्र पालकर मोक्ष पाये जिसका वर्णन उत्तराध्यन सूत्र के अट्ठारहवें उद्देश में है।
(७) महाराजा दशार्णभद्र आप दशपुर नगर के राजवी थे, दशपुर के उद्यान में भगवन्त परमात्मा महावीर का पदार्पण हुना तब आप भक्ति से विशेष समारोह से दर्शनार्थ पधारे । उस समय के अन्य नरेशों की अपेक्षा यह प्रथम समारोह था, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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समारोह के कारण राजा को अभिमान आया और अपने आपकी मन ही में प्रशंसा करने लगे, तब अवधिज्ञान द्वारा इन्द्र की जानकारी होने से हाथियों का ऐसा अनुपम दृश्य बताया कि देखते ही राजा का अभिमान विलय हो गया, और वैराग्य भावना वृद्धि पाने से तत्काल भगवन्त के पास दीक्षा ग्रहण की, दीक्षित होने के बाद इन्द्र महाराज ने वन्दन किया और शुद्ध चारित्र पाल मोक्ष पाये जिसका वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र के अट्ठारहवें उद्देश्य में है।
(८) महाराजा चंड प्रद्योत आप अयवन्ती (उज्जैन) नगरी के राजवी थे, आपकी पट्टरानी शिवादेवी जैन धर्मानुयायी थी जिसका जीवन चरित्र, सुवर्णगुलिका, संग्राम, दीक्षा, और सद्गति पाने का वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र के अठ्ठारहवें उद्देश्य में है।
(६) महाराजा दधिवाहन, आपकी राजधानी चम्पानगरी थी, आपकी पुत्री का नाम चन्दनबाला था जो भगवन्त महावीर के शासन में प्रथम साध्वी बनी जिसका विस्तरित वर्णन कल्प सूत्र में प्रतिपादित है।
(१०) महाराजा युगबाहु, आपकी राजधानी सुदर्शन नगरी थी, आपने व पट्टरानी और पुत्र ने दीक्षा ली जिसका वर्णन उत्तराध्ययन के दशवें उद्देश्य में प्रतिपादित है।
(११) महाराजा बलभद्र आप सुग्रीव नगर के राजा थे, आप जैनधर्मानुयायी थे, आपके एक पुत्र मृगांक कुमार ने दीक्षा अंगीकार को और सद्गति पाये जिसका वर्णन
उत्तराध्ययन सूत्र के तीसवें उद्देश्य में प्रतिपादित है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(१२) महाराजा विजयसेन अापको राजधानी पोलासपुर नगर थी। आपको पट्टरानी श्रीदेवी जिनधर्म की उपासिका थी, अापके पुत्र का नाम अइमत्ता कुमार था, कुमार ने बालवय में दीक्षा ग्रहण की थी, जिसका वर्णन अन्तगड दशा सूत्र में है।
(१३) महाराजा नन्दीवर्द्धन-पाप क्षत्रीयकुण्ड नगर के राजा भगवान महावीर के भ्राता थे, जब भगवान दीक्षा ले विहार करते हुए "मुण्ड स्थल" मुंथला पधारे तब दीक्षा समय से सात वर्ष पश्चात् आप भगवंत के दर्शनार्थ मुंथला पधारे और स्मरार्थ यहां एक जैन मंदिर बनवाया जिसकी प्रतिष्ठ केशी श्रमणाचार्य ने कराई जिसका शिलालेख भी है, और कल्पसूत्र में भी वर्णन पाया है।
(१४) महाराजा शतानिक-आप कौशाम्बिक नगर के राजा थे, आपकी महारानी का नाम मृगावती था, राजवी की बहिन का नाम जयन्ती था राजा के उत्तराधिकारी महाराजा उदायो थे, जो जिन भक्त थे जिसका वर्णन भगवती सूत्र शतक बारहवां प्रथम उद्देश्य में है।
(१५) महाराजा सेन-पाप अमरकंका नगर के राजा थे, आपके नगर में सूर्याभदेव भगवन्त को वन्दन करने आये थे, और भक्ति वश बत्तीस प्रकार के नाटक किये थे, जिसकी कथा रायपसेणी सूत्र में वर्णित है ।
(१६) महाराजा परदेशी-श्वेताम्बिका नगर के राजा थे, स्वयं नास्तिक-अधर्मी थे आपका प्रधान चित्रसार्थी जैन था जिसके प्रयत्न से श्रीकेशीगणधर, महाराज के उपदेश Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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से भगवान महावीर परमात्मा के भक्त बन गये, और राज आय में से चौथा भाग परोपकार में व्यय करने की प्रतिज्ञा ली, आप छ?-छ? की तपस्या करने लगे-तप के कारण आप देवगति में सूर्याभदेव पद पाये जिसकी कथा रायपसेणी सूत्र में है।
(१७) महाराजा शिव-आप हस्तिनापुर के नरेश थे, आपने तापस दीक्षा ली थी, तप की विशेषता से आपको विभंगज्ञान उत्पन्न हो गया था, जिसके आधार पर आपने उद्घोषणा की थी कि इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं, संयोग से श्री महावीर भगवन्त से भेंट हुई, तब शिवराजर्षि को भगवान ने समझाया तब निज मान्यता को त्याग कर भगवान् के भक्त बने और दीक्षा ग्रहण की जिसका वर्णन भगवती सूत्र में है।
(१८) महाराजा वीराग (१६) वीरजस जिनका वर्णन स्थानांग सूत्र में है, (२०) मथुरा नगर के नमिराज (२१) कलिंग देश के महाराजा करकुण्ड (२२) पाचाल देश के दुमाई नरेश (२३) गांधार देश के निग्घई नरेश यह चारों ही, प्रतिबुद्ध नाम से प्रसिद्धि पाये थे, जिनका विस्तिरित वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र के अट्ठारहवें अध्याय में है, (२४) नागहस्तीपुर के महाराजा अजीत शत्रु (२५) रिषभपुर के नरेश धनबाहू, (२६) वीरपुर नगर के महाराजा कृष्ण मित्र (२७) विजयपुर के महाराजा वासवदत्त (२८) सौगंधिक नगर के राजा अप्राहत, (२६) कनकपुर के राजा प्रियचन्द्र,
(३०) महापुर के नरेश राजबल, (३१) सुघोष नगर के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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राजा अर्जुन, (३२) चम्पानगर के राजा दत्त, (३३) साकेतपुर के महाराजा मित्रानन्दी, इन दस राजाओं की रानियां और स्वयं महाराजा जैन धर्मी थे और इन दस राजाओं के पुत्रों ने दीक्षा ले आत्म कल्याण किया जिनके नाम (१) सुबाहू (२) भद्रनन्दी (३) सुजात (४) सुलासव (५) महचन्द्र (६) वैश्रमण (७) महाबल (८) भद्रनन्दी (६) महीचन्द और (१०) वरदत्त, जिनका विस्तिरित वर्णन विपाक सूत्र श्रुत स्कंध दूसरा अध्याय एक से दस तक प्रतिपादित है ।
(३४) महाराजा हस्तीपाल पावापुरी के राजा थे, आपके आग्रह से भगवन्त परमात्मा ने अन्तिम चतुर्मास पावापुरी में किया था, भगवन्त का इसी नगरी में निर्वाण और गणधर गौतम स्वामी को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ था।
इन चौंतीस राजाओं में महाराजा चेटक जिनके सामंत अट्ठारह और उदायी नरेश के दस मिलाने से बासठ की संख्या होती है । इसके अतिरिक्त काशी का शंखराजा, कम्पीलपुर का जयकेतु भी जैन थे।
उपरोक्त टिप्पण के अतिरिक्त अनेक अमात्य प्रधान जैन होने के प्रमाण मिलते हैं।
जिस समाज में देशाधिपति धर्मानुयायी हों, उस धर्म की उन्नति में बाधा नहीं आती, वर्तमान में किसी दिन कोई नरेश व्याख्यान में आ जाय तो व्याख्याता प्रतिबोधक पद से विभूषित हो जाते हैं। मेवाडं देश के अनेक महाराणाओं ने जैन धर्मोन्नती में देवालय निर्माण में और व्यय हेतु जागीर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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देने में जो सहयोग दिया है वह भूला नहीं जाता समाज उक्त महाराणाओं की चिर ऋणी है ।
इतनो भूमिका बताकर हम यह कहना चाहते हैं, कि कई राजवियों के आगमन व भक्ति और गुरुपद की मान्यता की विभूति का लाभ समय सूचकता से जैन समाज नहीं ले सकी, और आपसी प्रेम नहीं बढ़ाया ।
एक बार अहमदाबाद के मान्यवर सज्जन पुरुषों ने मुझे बम्मनवाड़ योगिराज के पास भेजा था तब मैं एक महिने तक ठहरा था उस समय महाराजा बीकानेर का पदार्पण हुआ था, आज्ञा से मैंने आसन बिछाया, नरेश महोदय ने पांव से अलग फेंक आप नीचे बैठ गये यह दृश्य आंखों देखा है, जनता खबर पाते ही एकत्र हो गई थी, नरेश प्रज्ञा से नारियल की प्रभावना की गई फिर आप मन्दिर में दर्शनार्थ पधारे योग्य भेट रख बिदा हो गये ।
योग विभूति से अजब काम सिद्ध होते हैं, योग का साधारण अर्थ मिलान है, योग अंक गणित के परिणाम को कहते हैं, एक से दूसरा मिले वह भी योग कहा जाता है, इनके भेद में सुयोग कुयोग संयोग राजयोग आदि भी आते हैं। योग महात्म्य में परम ज्योतिर्मय परम श्रात्मा के सम्मिलित होने का भाव हो, प्रयत्न हो, प्रेरणा हो उसको भी योग कहते हैं । राज-अधिकार का नाम है, राज सम्पन्न सेना धन अमात्य प्रजाजन को स्व आज्ञा के आधीन रखते हैं, उसीका नाम राज कहा जाता है, योगी भी आत्मा की सेना आत्मा का अमात्य मन इन्द्रियां, विकार इच्छा पर अंकुश रखने वाले होते हैं,
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और वह इष्ट अनिष्ट योग उत्पन्न होने पर प्रसन्न नहीं होते और खेद नही पाते केवल एक ध्येय आत्म दर्शन का रहता है । आत्म दर्शन की इच्छा नहीं रखते । इच्छा योगियों को विष रूप होती है, इच्छा हो तो अनेच्छा अपने आप आ जाती है । यह दोनों परिवार वाली है, और योगी ऐसे परिवार से परे रहते हैं, तो ही आत्म दर्शन पाते हैं, इसी कारण योगी निस्पृहता को स्वीकारते हैं, योगियों को योग बल से सिद्धियां लब्धियां भी उत्पन्न होती हैं, परन्तु वे प्राप्त शक्तियों का अभिमान नहीं करते न प्राप्त शक्तियों के बल पर प्राकर्म बताते हैं, वे अल्प भाषी और विशेष ध्यानी होते हैं, रोग मुक्त होने की शक्ति प्राप्त होने पर भी वे शक्ति द्वारा रोग को नष्ट करने का प्रयत्न नहीं करते । इसी कारण केवली के सिद्धस्थान पर पहुंचने के प्रथम सोपान को स्वीकार कर संयोगी-अयोगी अवस्था तक पहुँच जाते हैं, योग सम्पन्न सारे ही सिद्धावस्था में पहुंच जाते हों ऐसा नियम नहीं है, दसवें, ग्यारहवें सोपान से गिरने के उदाहरण भी मिलते हैं, गिरता कौन है ? जिस पर मोह राजा का प्रभाव हो जाय और न कुछ वस्तु पर ही मेरापन आ जाय तो महान सत्ताधारी मोहराज तत्काल गिराकर प्रारम्भिक सोपान पर रख देते हैं, गिरते वो ही हैं कि, जो निस्पृहता का त्याग कर मोह-माया मेरापन अपनाते हैं । अतः योग पद पाकर सावधान न रहें तो आपत्ति होती है।
इन्द्रियों के तेइस विषय और दो सौ छप्पन विकार से परांगमुख रहकर जो योगी ध्यान समाधी में रत्त
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रहता है, निज देह पर ममत्व नहीं रखता वही योगी मन पर अंकुश रख सकता है।
श्रुत ज्ञान के पारंगत वर्तमान में दृष्टि गत नहीं होते तथापि अल्प श्रत ज्ञानी अथवा योग पथ के अभ्यासी अवलम्बी योगाभ्यास के अधिकारी अवश्य होते हैं, जैसे यथाख्यान चारित्र पालनेवाले वर्तमान में दृष्टिगत नहीं होते परन्तु चारित्र पालने वाले तो विद्यमान हैं, साधक का अभाव है, प्ररंच पथ प्रदर्शक विद्यमान है, इस न्याय से योग साधन सम्पन्न वाली आत्मा योगाभ्यास के योग्य होती है।
योग के आठ अंग, आठ दृष्टि, आठ सिद्धि जिनके भेद भेदान्तर जानने योग्य हैं, जो महामना योगीश्वर की सेवा कर प्राप्त करना चाहिए।
-निवेदक चंदनमल नागौरी छोटी सादड़ी (मेवाड़)
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॥ श्री धर्म तीर्थ शांति गुरुम्यो नमः ॥
अनन्य शरण को देने वाले, निरन्तर स्मरणीय स्वर्गीय श्री सद्गुरु भगवान् को सतत वन्दन ।
जब-जब दुनिया में धर्म का नाश होता है तब-तब महापुरुष सत्य, धर्म तथा शान्ति की स्थापना के लिये उपदेश करते हैं
इस मरुधर देश को धन्य है ।
इस हीर जाति को धन्य है । पुण्यवती माता वसुदेवी को धन्य है । पुण्यात्मा रायका श्री भीमतोला जी को धन्य है ।
समस्त संसार में जिनके विश्वप्रेम का सन्देश फैल रहा है, विश्व के चारों कोनों में जिनके नाम से कोई प्रजान नहीं है वे इस विश्व की महान् से महान् विभूति-रूप जगद्रूप श्राचार्यदेव श्रीविजयशान्ति सूरीश्वरजी भगवान् हैं ।
आप श्री के गुरु का नाम श्रीतीर्थविजयजी था और उनके भी गुरु का नाम महान् योगीन्द्र, त्रिकालदर्शी श्रीमद् धर्मविजयजी भगवान था। इन तीनों ही महापुरुषों ने अहीर जाति में जन्म धारण किया था ।
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श्रीमान् परम पूज्य योगीराज विजयशांति सूरीश्वरजी महाराज
प्रसिद्धि-पाबूवाले
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श्री धर्मविजयजी भगवान् का जीवनचरित्र अद्भुत है । उसका अति संक्षिप्त वर्णन यहाँ दिया जाता है-
जोधपुर के पास जसवन्तपुरा परगने में मांडोली नामक एक गाँव है । वहाँ एक रायकाजी दरजोजी करके रहते थे । दरजोजी के कोलोजी नामक एक इकलौता पुत्र था । कोलोजी का जन्म संवत् १८४८ की प्राषाढ़ सुदी १५ के शुभ दिन हुआ था । दरजोजी के देहावसान के पश्चात् कुटुम्ब - निर्वाह का भार कोलोजी के सिर आा पड़ा । बचपन से ही कोलोजी को ईश्वर एवं भगवद्भक्ति में अटल श्रद्धा थी । उनके जीवन - निर्वाह का साधन पशुओंों के पालन-पोषण पर निर्भर था । एक बार मारवाड़ में बड़ा भयंकर दुष्काल पड़ा । अन्नपानी और पशुओं के लिये घास मिलना दुष्कर हो गया । ऐसे कठिन समय में वे कुटुम्ब को साथ लेकर देशाटन के लिये निकल पड़े । मार्ग में बीमारी फैल जाने से कितने ही पशु मर गये । परिवार के लोगों में से भी केवल कोलोजी और वेलजी नामक उनका एक डेढ़ साल का बालक जीते रहे । घूमते फिरते वे पूना के समीप चोक नामक गाँव में आये । वहाँ मारवाड़ से आये हुए, थूल गाँव के निवासी जसाजी नामक एक जैन- गृहस्थ रहते थे । कोलोजी ने अपने पुत्र के साथ उनके यहाँ पशुओं की सार-संभाल के लिये नौकरी कर ली । कोलोजी की अपूर्व भक्ति-भावना देखकर सेठ ने उन्हें पंच परमेष्ठी मंत्र सिखाया । कोलोजी अधिक समय ध्यान में ही तल्लीन रहते थे ।
एक बार उनके पुत्र वेलजी को जंगल में सर्प ने डस
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लिया। उस समय कोलोजी ईश्वर के ध्यान में निमग्न थे । ध्यान से जब जागे तो उन्होंने सर्पदंशित अपने पुत्र को मृत्यु की शरण में देखा। पुत्र को अपनी गोद में लेकर उन्होंने यह दृढ़ प्रतिज्ञा की-यदि मेरा यह पुत्र बच जायगा तो मैं अन्न जल ग्रहण करूँगा; नहीं तो परमेष्ठी मंत्र का ध्यान करते करते यह शरीर छोड़ दूंगा सेठ तथा अन्य लोगों ने यह प्रतिज्ञा छोड़ देने के लिये उन्हें बहुत समझाया परन्तु ईश्वर में अडिग श्रद्धा रखते हुए वे अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहे । उपवास के तीसरे दिन श्रद्धा के प्रबल प्रताप से कोई सन्त महात्मा प्रा उपस्थित हुए और पुत्र को जीवित किया । तुरन्त ही कोलोजी ने अपने इस पुत्र को महात्माजी के चरणों में रख दिया और कहा
आपने इसको जीवनदान दिया इसके लिये मैं आपका अतिशय ऋणी हूँ। मुझे अब अपना शेष जीवन भगवद्भक्ति में बिताना है इसलिये कृपया आप यह बतलाइये कि मुझे इस पुत्र की क्या व्यवस्था करनी चाहिये। उत्तर में महात्माजी ने कहाइस पुत्र को तुम किसी साधु अथवा यति को बहरा देना और तुम भी जैन दीक्षा अंगीकार कर लेना। इससे आत्मज्ञान सम्पादन कर तुम एक महापुरुष के रूप में पूजे जानोगे, यह तुम्हें मेरा आशीर्वाद है।
तुरन्त ही महात्माजी अदृश्य हो गये। इसके बाद कोलोजी ने तीन उपवास का पारणा किया। कुछ मास बाद उन्होंने अपने पुत्र वेलजी को एक यति को बहरा दिया जो वेलजी यति के नाम से मंडार गाँव में प्रसिद्ध हुए। इसके बाद कोलोजी को मणिविजयी नामक एक जैन-साधु मिले। उनके
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पास उन्होंने संवत् १८७३ की माहासुदी ५ के दिन दीक्षा ग्रहण की। तभी से उनका नाम मुनि महाराज श्रीधर्मविजयजो रखा गया।
खंडाला के घाट में कुछ समय ध्यान में व्यतीत करने के बाद श्री धर्मविजयजी महाराज श्री को स्वभावतः सहज ही आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई। आप इतने बड़े शक्तिशाली समर्थ पुरुष थे कि एक स्थान पर विराजते हुए भी आप उसी समय दूर-दूर देशों में अनेक स्थानों पर अपने भक्तों को दर्शन देते थे एक समय आप रामसीण गाँव से विहार कर आगे पधार रहे थे। उस समय आपके साथ बहुत से लोग थे। जेठ का महीनाथा। गर्मी सख्त पड़ रही थी। साथ के लोगों को प्यास सताने लगी। आस-पास में पानी मिलने का कोई उपाय न था। इसलिये बहुत से लोग घबरा गये। अनन्त-दयाल श्रीगुरुदेव भगवान् के पास अपनी तर्पणी में थोड़ा सा जल था। आपने उसमें से थोड़ा सापानी पृथ्वी में एक गढ़ा करा कर डाला और उसके ऊपर एक कपड़ा ढंकवा दिया। तुरन्त ही लब्धि के प्रभाव से उस गढ़े में पानी उमड़ पाया। हर एक मनुष्य ने उसमें से अपनी प्यास बुझाई।
एक समय श्रीधर्मविजयजी भगवान् रामसीण में विराजते थे । चैत्र-सुदी पूर्णिमा का दिन था। उन्हीं दिनों रामसीण गाँव के कई एक श्रावक पालीताणा यात्रा के लिये गये हुए थे। वे पहाड़ के ऊपर आदेश्वर दादा के दर्शन कर बाहर निकले तो उन्होंने वृक्ष के नीचे गुरु श्री को देखा । वंदना के पश्चात् उन्होंने प्रश्न किया--भगवन् ! आप कब पधारे ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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प्रत्युतर में 'ओं शान्ति' शब्द सुनाई दिये। उसी दिन श्रावकों ने पालीताणा से रामसीण पत्र लिखा कि आज दिन यहाँ पहाड़ ऊपर श्रीधर्मविजयजी महाराज साहेब के दर्शन हुए हैं । क्या आप श्री अभी रामसीण में हैं अथवा विहार कर गये हैं। रामसीण से इस प्रकार उत्तर आया कि चैत्र-सुदी पूर्णिमा के दिन प्रातःकाल दस बजे गुरु श्री ध्यान करने के लिये जंगल में पधार गये थे। शाम को चार बजे के बाद आप वापिस लौट आये और अभी यहीं विराजते हैं। इस प्रकार आप श्री अपनी अनन्त आत्मशक्ति द्वारा एक ही समय दूर-दूर देशों में अनेक स्थानों पर अपने भक्तों को दर्शन देते थे। आप श्री के जीवन-चरित्र में इस प्रकार की अनेक अद्भत और अलौकिक बातें हैं जिन्हें लिखना संभव नहीं है।
मृत्यु का समय भी एक महीने पहिले ही आपने अपने भक्तों को बता दिया था और कहा था कि जिस स्थान पर मेरे मृत देह का दाह-संस्कार करो वहाँ पालखी के चारों तरफ नीम के चार सूखे खूटे लगा देना । अग्नि लगाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। नीम के जो चारों खूटे गाड़ोगे वे भविष्य में नीम के चार वृक्ष होंगे। मेरी मृत्यु के भविष्य में जब कोई महान् आदर्श व्यक्ति प्रकट होगा तब एक नीमका वृक्ष अदृश्य हो जायगा।
आपके कहे अनुसार ही संवत् १६४६ की आषाढ़ बदी ६ को प्रातःकाल प्रापश्री का देहावसान हुअा। हजारों लोग बिना किसी जाति-भेद-भाव के प्रापश्री की पालखी अग्निसंस्कार के लिये जंगल में ले गये। चार नीम के खूटे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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गाड़कर बीच में गुरु श्री की पालखी रखी गई। पालखी के आसपास चन्दन की लकड़ियाँ चुनी गईं । इन्द्र महाराज ने भी उस समय इतनी अधिक वर्षा की कि जल का कोई पार न रहा । आग स्वतः आपश्री के दाहिने पैर के अँगूठे में से प्रकट हुई। शरीर के ऊपर के उपकरण, ध्वजा और जमीन में गाड़े हुए चार नीम के खूटे वगैरह अखंड बने रहे, केवल शरीर ही जलकर भस्म हुआ। उपकरण तथा ध्वजा को लोग प्रसाद रूप से ले गये। नीम के चारों सूखे खूटे भविष्य में चार नीम के वृक्ष
ए। मांडोली में दाह-संस्कार वाली जगह पर गुरुश्री की देवली बन गई है। देवली में गुरुश्री की चरणपादुका पधराई गई है। जब गुरुदेव की तिथि आती है तब वहाँ प्रति वर्ष बड़ा मेला भरता है । हजारों दर्शनार्थी उलट पड़ते हैं। दर्शनार्थ आने वाले प्रत्येक मनुष्य को मांडोली में प्रति वर्ष जिमाया जाता है। उस दिन गुरु श्री के चरणों से प्रातःकाल खास समय पर दूध तथा गंगा जल बहता है। जगत्गुरु आचार्यदेव श्रीविजयशान्ति सूरीश्वरजी भगवान् उस दिन जहाँ कहीं भी होते हैं वहाँ से पधारकर दिन में किसी समय किसी एक को दर्शन देते हैं। __श्रीधर्मविजयजी भगवान् देवलोक पधारने के बाद भी कभी-कभी अपने परभक्तों को दर्शन देते हैं ।
उपरोक्त सारी वस्तुस्थिति अभी भी मांडोली में विद्यमान है। केवल नीम का एक वृक्ष अभी हाल में अदृश्य हो गया है और तीन वृक्ष मौजूद हैं।
श्रीधर्मविजयजी भगवान् के शिष्य महान् तपस्वी महात्मा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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श्रीतीर्थविजयजी भगवान् हुए। आपश्री भी जाति के अहीर थे। आपका जन्मस्थान मणादर गांव था। आपश्री ने सारा जीवन तपश्चर्या में पूरा किया। संवत् १९८४ की फागुन सुदी ८ के दिन मारवाड़ में मुडोत्रा गाँव में आपश्री का देवलोकवास हुआ।
जगतगुरु आचार्य सम्राट् श्रीविजयशान्तिसूरीश्वरजी भगवान् का जीवन-चरित्र अनुभव करने योग्य है। आपश्री का जीवन-चरित्र अत्यन्त अद्भुत अलौकिक एवं अगम्य है इसलिये वाणी द्वारा यथार्थ कह सकने में कोई समर्थ नहीं है तो फिर लेखनी द्वारा लिखकर उसका वर्णन कैसे किया जा सकता है।
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अहीर कुल का इतिहास
परम पूज्यपाद आचार्यदेव का जन्म अहीर (रबारी) जाति में हुआ। शिक्षा एवं संगठन के अभाव से यह जाति आजकल अवनतावस्था में है इस जाति की वर्तमान हीनअवस्था देखकर इसे सामान्य पशु चराने वाली जाति समझना इसके साथ अन्याय करना है। इस जाति का भूत-काल का इतिहास समज्ज्वल एवं स्फूर्तिप्रद है। भारत की सर्वस्व-रूपा गोजाति की रक्षक होने के नाते यह जाति भारत की रक्षा करने वाली कही जा सकती है। समय-समय पर प्राणों की बाजी लगाकर इस जाति ने जो जाति की रक्षा की है। भारतवासियों के लिए इस जाति ने जो महान त्याग एवं बलिदान किया है उसके लिए भारत का बच्चा-बच्चा इस जाति का कृतज्ञ रहा है और रहेगा। वास्तव में ये लोग क्षत्रिय हैं। प्राचीन समय में क्षत्रिय लोग गौ जाति की रक्षा करना अपना मुख्य कर्तव्य समझते थे। महर्षि वसिष्ठ ने गौ जाति की बड़ी सेवा की थी। यदुवंश में महाराज कृष्ण ने गौ जाति की इतनी सेवा को कि वे गोपाल के नाम से आज तक प्रसिद्ध हैं। आजकल राजाओं की “गौ ब्राह्मण-प्रतिपालक" आदि से महत्त्वना करते हैं और यह माननीक शब्द है । महाराज दिलीप गौ सेवा के खातिर कुछ समय के लिए राज्य छोड़कर जंगल में संन्यासी की तरह रहे एवं प्राणों की बाजी
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लगाकर गौरक्षा व्रत का पालन किया। यही कारण है कि आज भी क्षत्रिय लोग गौ ब्राह्मण-प्रतिपालक कहे जाते हैं । आज भी इस जाति में चावड़ा, परमार, भीम, सोलंकी, राठोड़, यादव, मकवाणा आदि क्षत्रियों की अनेक शाखाएँ विद्यमान हैं। रायका, रबारी, देसाई आदि नामों से यह जाति प्रसिद्ध है। ये नाम भी इस जाति का शासक क्षत्रिय जाति होना सिद्ध करते हैं। राय का अर्थ राज्य है। राज्य करने के कारण ये लोग रायका कहलाये। रबारी शब्द दरबारीका अपभ्रंश रूप है। दरबारी शब्द का 'द' उड़ गया और शेष रबारी रह गया। इसी तरह देश में सर्व प्रथम आने के कारण यह जाति देसाई नाम से मशहूर हुई। इस जाति के प्राचार-विचार एवं रीति-रिवाज भी क्षत्रियों से प्रायः मिलते-जुलते हैं। रोटी-व्यवहार तो आज भी उस जाति का क्षत्रियों के साथ है । भाट लोगों के पोथे जिनमें कि इस जाति का इतिहास मिलता है, देखने से मालूम होता है कि प्राचीन काल में क्षत्रियों के साथ इस जाति का बेटो-व्यवहार भी रहा है।
गीता में क्षत्रियों के स्वाभाविक गुण बतलाते हुए कहा है-.
शौर्य तेजो धृति दक्ष्यिं युद्धं चाप्यपलायनम् दानमीश्वर भावाश्च क्षात्र कर्म स्वभावजम् ।। भावार्थ-शूरता, तेज, धैर्य, दक्षता, युद्ध से न भागना
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और ऐश्वर्य-ये क्षत्रियों के स्वाभाविक गुण हैं ।
क्षत्रियों के ये स्वाभाविक गुण इस जाति के व्यक्ति-व्यक्ति में आज भी पाये जाते हैं । ब्रह्मचर्य पालना, लाल वस्त्र धारण करना, दंड रखना आदि क्षत्रियों के लिए मनु महाराज की कही गई बातें आज भी इस जाति के रहन-सहन और आचार-विचार में पाई जाती हैं।
इस जाति का इतिहास यह भी बतलाता है कि इन लोगों ने गुजरात और मारवाड़ में अनेक बस्तियां बसाईं। राष्ट्र और धर्म की रक्षा के लिए भी इन्होंने क्षत्रियों की ही तरह वीरता के साथ अपना खून बहाया है । गुजरात, सौराष्ट्र, मारवाड़ आदि के इतिहास में उनकी वीरता की असंख्य अमर आख्यायिकाएं मिलेंगी। जगदेव सोमोड़ और उनकी राया और हरी कन्याओं की धर्मपरायणता और वीरता की कहानी से मालूम होता है कि इस जाति में पद्मावती और प्रताप की तरह ही क्षत्रियों का खून बहता है ।
जगदेव सोमोड़ के राया और हरीना नाम की दो कन्याएँ थीं। उनके रूप और गुण की प्रशंसा सुन मुग़ल सम्राट ने उन्हें अपने अन्तःपुर में रखना चाहा। सम्राट् की बुरी नियत का पता लगने पर जगदेव ने अपनी कन्याओं को अन्यत्र भेज दिया। इस पर मुग़लों ने गो-बध प्रारम्भ कर दिया। जगदेव का खून खौल उठा। उसने विशाल--मुगल--सेना का वीरता के साथ सामना किया पर उसकी परिमित शक्ति
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अधिक समय तक मुगल सेना के आगे न टिक सकी। जगदेव के स्वर्गारोहण के बाद मुगलों ने दोनों कन्याओं का पता लगाया। उन्हें साम्राज्य का प्रलोभन दिया गया। धर्म के आगे तीन लोक की सम्पत्ति को ठुकराने वाली वीर बालाओं ने प्रलोभन का जवाब तलवार से दिया । अनेक मुगल--सैनिकों के खून से अपनी तलवार की प्यास बुझाकर उन्होंने भी अपने पिता का अनुसरण किया।
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योगनिष्ठ योगीश्वर श्रीविजयशांतिसूरीश्वरजी साहब
ग्राबूवाले
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श्री आचार्य देव के चरणों में समर्पित श्रद्धाजलियाँ
स्वर्गीय श्री जगद्गुरु आचार्यदेव महान् योगिराज श्री विजयशान्ति सूरीश्वरजी भगवान् के दिव्य जीवन-चरित्र की रूपरेखा को प्रकट करने वाली कुछ श्रद्धांजलियाँ-- __ मैंने अपने जीवनकाल में यदि कोई अद्भुत वस्तु देखी है तो ये योगनिष्ठ श्री शान्तिसूरीश्वरजी महाराज हैं। बाहर से ये केवल साधारण दिखते हैं, और जब ये वार्तालाप करते हैं तब भी ऐसा प्रतीत होता है कि कोई साधारण पुरुष ही बोल रहा है। आप श्री का प्रदर्शन भी स्वभावत: ऐसा है कि लोग सहज ही भूल कर बैठे तो कोई बड़ी बात नहीं। किन्तु मुझे तो ऐसा प्रतीत हुआ कि ये कोई उच्चकोटि के महान् आध्यात्मिक ज्ञान के भंडार हैं। इन महापुरुष को हमलोग सहज में समझ नहीं सकते , कारण की ये योग में और इसी तरह आध्यात्मिक-ज्ञान में इस कदर गहरे उतरे हैं कि अठारह मास तक उनके समीप रहकर भी एक विद्वान इन्हें पूरी तरह समझ नहीं सकता। वर्तमान काल के इतने साधुत्रों में केवल ये ही योग क्रिया और आध्यात्मिक-ज्ञान के विषय में अग्रणी हैं। ऐसे महान् योगीश्वर को समझने के लिए महान् शक्तिशाली प्रात्मा, बहुत लम्बा समय लेकर ही इन्हें शायद कुछ समझ सकता है।
योगशास्त्र आदि अनेक आध्यात्मिक परम कल्याणमंत्र ग्रन्थों के रचयिता, योगनिष्ठ पुस्तक में से
आचर्य भगवान् श्री विजयकेसर सूरीश्वरजी महाराज
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If ever in my life I have come across any wonder He is the Ascetic Shanti Surishwasji Maharaj. Outwardly He appears to be a man of ordinary calibre and even when He speaks it becomes evident that an ordinary man is speaking. His look is also so simple that people easily mistake about His greatness. But, I felt, He is a store-house of lofty spiritual ideas. We cannot easily understand this great personality as His. spiritual knowledge has reached such a depth in consequence of His Yogic practices that a certain learned scholar could not thoroughly realise His. greatness even after eighteen months' stay with Him. Of all the great saints of to-day He is assuredly the foremost ip respect of Yogic and spiritual matters. Should any powerful soul keep company with Him for a long time with a view to understanding this great King of Ascetics (Yogiraj) he might perhaps grasp a little of Him.
Quoted from Param Kalyan Mantra
(Sd). Acharya Bhagwan Shree Vijay Keshar Surishwarji Maharaj, Editor of Yoga-Shastra and other books or
Spiritualism.
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प्राचार्य देव पाबू में विराजते थे उस समय आपने बम्बई में दर्शन दिये
पिछले उपवास की रात को मुझे एक दिव्य प्रकाश दिखाई दिया। उसमें आबू में विराजते योगीराज जगतगुरु आचार्य भगवान् श्रीविजयशान्तिसूरीश्वरजी महाराज के दर्शन हुए। उन्होंने आदेश दिया कि अपना हठ त्याग कर पारणा कर लो। इससे मुझे पूर्ण श्रद्धा हुई कि प्राचार्य का जो आदेश है उसका प्रकृति के साथ सम्बन्ध है।
पहले जब आबू से तार द्वारा श्री कृपालु प्राचार्य देव ने पारणा करने की आज्ञा दी थी, उस समय मुझे उन पर विश्वप्रेमी महापुरुष के रूप में श्रद्धा न थी। जब मैं उनके पास रहा और उनके सम्पर्क में आया तब भी मुझे उन पर पूर्ण श्रद्धा न थी और मैं यह समझता था कि उनका और मेरा धर्म जुदा है। दूसरी अनेक शंकाओं के साथ कई लोग उनके विरुद्ध बोलते थे, इस कारण भी मुझे उन महापुरुष की यथार्थता पर पूरी पूरी श्रद्धा न थी।
लेकिन पिछले उपवास में मुझे उनका भास तथा प्रकाश मिला और इस कारण उनके प्रति विश्व के महात्मा पुरुष के रूप में मेरा विश्वास स्थापित हुआ । इसीलिये उनके आदेश को प्रकृति की प्रेरणा समझ कर मैंने पारणा कर लिया।
स्थानकवासी जैनपत्र ता० ११-१-१९३७
तपस्वी मुनि श्री मिश्रीलालजी के आन्तरिक उद्गार
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While residing at Abu Acharya-Deva made Himself manifest in Bombay.
"'In the night of my last fast I perceived a hallow of Light in the midst of which I found the presence of Yogiraj Jagat-Guru Acharya Bhagwan Shree Vijay Shanti Surishwar Maharaj, then staying at Abu. His Holiness ordered me to terminate the fast and not insist on same any more. I had full confidence in the fact that his order of the Acharya-Deva bore some relation with Nature.
"While at first this gracious Guru-Deva asked me by a telegraphic message to break the fast I had no faith in Him as a great personality of Universal Love and even when I came in contact with Him and kept His Holy Company I had no full confidence in Him and I thought that His religion was different from mine. Besides, the blasphemy of other people was added to my own misunderstanding of Him wherefore I had no full confidence in the reality of His greatness.
“But during the period of my last fast I caught a glimpse of His Holy Light which led to the foundation of my faith in him as a great personality of the world. This is why I regarded His order as an inspiration from Nature and broke my fast.” Date 11-1-1937
A sincere expression of Quoted from
Tapaswi Muniji Sthapakwasi Jain Patra
Misbrilalji Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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मैंने दुनिया के हर एक देश की यात्रा की है । मैं अनेक महापुरुषों से मिली हूं । अन्त में मैं गुरुदेव महाराज श्री शान्तिसूरीश्वरजी से भी मिली। हम पाश्चात्य लोगों में इतना तो ठीक है कि हम किसी बात को बराबर समझ कर ही, मानते हैं। हम अपने मन से पूछते हैं कि प्रत्येक वस्तु में क्या बात है ? मिस मेयो ने मदर इंडिया नामक जो पुस्तक लिखी है उसे लिखते हुए उसने बड़ी भूल को है। कारण यह है कि हिन्दुस्तान में अभी तक ऐसे देवरत्न विद्यमान हैं तो फिर उसने क्या समझकर पुस्तक लिखी होगी? अब तो मैं उसे बराबर जवाब दूंगी, जिससे कि उसकी भूल मालूम हो जायगी और दुनिया पूरी तरह सचाई को समझ सकेगी। गुरुजी परमेश्वर ही हैं इसमें कोई भी सन्देह नहीं है।
दी पावर प्रॉफ इंडिया आदि
पुस्तकों की रचयित्री परम कल्याणमंत्र महान विदुषी मिस माइकेल पोम, पुस्तक में से सम्पादिका, ट्रिब्यून हेरल्ड, न्यूयॉर्क
I had travelled in every country of the world and had come in touch with many great souls. At last I met Gurudev Shree Shanti Surishwarji. It is, of course, obvious for the Westerners that they accept a thing only upon rational understanding. We, Westerners must inquire into the reason of everything.
Miss Mayo, the Author of Mother India must have committed a great blunder in writing that book. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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The reason is that while such a precious gem of a God (Deva-Ratna ) is existing in India still now what might impel her then to write such a book as that. Now indeed, I must deal out to her proper replies that she might be brought to her senses and that the world might understand the Truth in a perfect manner.
Gurudev is indeed a re-incarnation of God and there cannot be any shadow of doubt about it............ ("Gurudev is a God no doubt").
MISS MICHAEL PIM
Editor, Tribune Herald, New Quoted from York, Author of “ The Param Kalyan Mantra Power of India”, etc. and
A Great Scholar. ये एक उच्च कोटि के महापुरुष हैं। फिर भी इनका हृदय बालक की तरह खरा और निर्दोष है। महात्मानों के लक्षण शास्त्र में कुछ भी लिखे हों पर ऐसी बुद्धि और हृदय का विचार, बल तथा सरल बालभाव और इनका ऐसा सुन्दर समन्वय भाग्य से ही कहीं देखने को मिलता है। इनके साथ मेरा जो परिचय हुआ इससे मुझे तो यही लगा कि यही तो महात्मापन का यथार्थ स्वरूप है । जब जब मैं इनके पास गया है तभी इनके सन्निध्य में मेरे हृदय एवम् मस्तिक के भावों में ऐसी एकता प्रतीत हुई है कि केवल इनकी और देखने और इनका उपदेश सुनने के सिवा और दूसरी कोई भी वृत्ति मन में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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उत्पन्न ही नहीं होती। प्रत्येक दर्शनार्थी को यही भास होता है, ऐसा मैंने देखा है। महात्मापन की व्याख्या करने वाली इससे अधिक और क्या वस्तु हो सकती है ? लोकैषणा की इच्छा से आप बहुत परे हैं । मुझे बहुत से महापुरुषों के परिचय में आने का अवसर मिला है परन्तु आप श्री का सान्निध्य मुझे अपूर्व प्रतीत हुआ है। कैसे और कितने अभ्यास का यह परिणाम होगा ? यदि यह समझ में आ जाय और तदनुसार करना शक्य है, ऐसी सुगमता मालूम हो तो सम्भव है वैसा करने का मन हो जाय । परम कल्याणमंत्र
सर प्रभाशंकर पट्टणी पुस्तक में से
भावनगर "This is a great man of a very high order and yet His heart is as pure and simple as that of a child. Whatever might the Shastras say about the signs of greatness it is through sheer good fortune that one can find such a beautiful combination of head and heart with childlike simplicity. From my own acquaintance with Him I could only make out that He was an incarnation of real greatness. Whenever I drew near Him I could realise such a peculiar unity between intellection and feelings that I had no other desire but to look at Him and listen to His instructions. Similar was also the desire in every other visitor too, as I observed. What else can there be that is so much expressive of greatness. He is quite averse to popular fame. I had Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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occasions to come in touch with many great men but I felt His company extremely wonderful. How and with what endeavour could this greatness be achieved. If this were comprehensible and if it were possible to act up to this method with ease probably our mind would run after it." Quoted from
Sir Prabha Shankar Pattani Param Kalyan
Bhavnagar Mantra
विश्व के आदर्श पुरुषों में श्रीशान्तिसूरीश्वरजी श्रेष्ठ हैं। गुरुदेव शान्तिसूरीश्वरजी को सभी कुदरती शक्तियाँ प्राप्त है। यदि कोई मनुष्य वास्तव में गुरुपद का दावा कर सकता है तो श्रीशान्तिसूरीश्वरजी ही हैं। 'उर्दू-वंदेमातरम्-पत्र'
पंजाब केसरी परम कल्याण मंत्र
स्व० लाला लाजपतराय पुस्तक में से
लाहौर “Shree Shanti Surishwarji is really the greatest of all persons of the world. Gurudeva Shanti Surishwarji is possessed of all the divine powers. If any human soul can deserve to claim the dignity and position of being called Guru-Deva. He is undoubtedly Shree Shanti Surishwarji”. Quoted from
Lala Lajpat Rai Param Kalyan Mantra
Lahore Urdu Bande Matram Patra Punjab-Keshari Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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योगनिष्ठ गुरुदेव भगवान् श्रीशान्तिसूरीश्वरजी के समागम में मैं पिछले छः सात साल से आया हूं। इससे मैं अन्दाजा लगा सका हूँ कि आप श्री एक उच्च कोटि के महापुरुष हैं। आप श्री ने योगाभ्यास से प्राप्त होने वाली विश्वदृष्टि को पाया है। आप श्री सरल प्रकृति के एक योगपरायण सन्त पुरुष हैं। मैं चाहता हूँ कि अधिकारी सज्जन आप श्री के पवित्र संसर्ग में आकर आप श्री की आध्यात्मिक उच्चता से लाभ उठायें। परम कल्याण मंत्र
___ सर दौलतसिंहजी महाराजा पुस्तक में से
लींबड़ी "I have been in touch with the ascetic Bhagwan Shree Shanti Surishwarji for the last six or seven years. So I can now ascertain that He is a great man of a very high order. He has acquired the gift of omniscience through Yogic practices. I would like every aspiring man to come in contact with His Holiness and be benefitted by His spiritual elevation Quoted from
Sir Daulat Singhji Param Kalyan Mantra
Maharajab
Limbri सबसे पहले मैं हिज होलीनेस जगतगुरु आचार्य सम्राट श्री विजयशान्ति सूरीश्वरजी भगवान् को, जो संसार में श्रेष्ठ योगीराज हैं, श्रद्धापूर्वक नमस्कार करता हूँ।
उनके पवित्र चरणों में मैं अपने आपको आत्मशुद्धि के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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लिये समर्पित करता हूँ। राजयोग अथवा प्राकृतिक योग सब योगों में श्रेष्ठ है।
सद्गुरु भगवान् पर अस्खलित श्रद्धा एवं भक्ति रखने से, हृदय में प्रेम रख कर उनकी आज्ञा सम्पूर्ण रूप से मानने से, धीरे धीरे सद्गुरु भगवान् की कृपा से मुझे मोक्ष-लाभ होगा।
हे प्रभो! आपको समझने के लिये लाखों जन्म की आवश्यकता है। यदि आपकी कृपा हो जाय तो सहज ही आपको समझा जा सकता है। आपके वचनों में सभी शास्त्रों का समावेश हो जाता है। आपका ध्येय विश्वप्रेम है । जाति धर्म और देश का भेदभाव न रखते हुए आप सभी को अपनाते हैं। __जो संसार में श्रेष्ठ योगिराज हैं ऐसे गुरुदेव भगवान् को, पाश्चात्य विद्वान् एवं तत्त्वज्ञानी आकर, सिर झुकाते हैं, यह मैंने स्वयं देखा है।
अतः मैं प्रेमपूर्वक प्रत्येक मित्र तथा यात्री का ध्यान आकृष्ट करता हूँ कि यदि श्री सद्गुरु भगवान् की भक्ति और उनकी दया प्राप्त हो जाय तो संसार की यात्रा का ध्येय पूर्ण हो जाता है।
ज्योर्ज ज्युटजेलर (स्वीट्जरलैंड)
First of all my humble homage and salutation to His Holiness Jagatguru Acharya Samrat Shri Vijay Shanti Surishwarji Bhagwan, the greatest Yogiraj in the world to whose holy feet I present my soul for Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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purification. Raj Yoga or natural Yoga is the highest Yoga of all the Yogas.
By constant devotion or Bhakti to Sadguru Bhagwan, by obeying His orders, implicitly by loving Him with all your heart, then little by little the grace of Sadguru Bhagwan will be felt on us and the salvation will be realized,
Oh ! Bhagwan, it takes millions of lives of a soul to know you. Through your kindness one can easily recognise you. Your words are the essence of all the Shastras. Universal love is your gospel. You welcome all irrespective of castes, creeds or nationality. I have personally seen the Philosophers and cultured men of the west coming to pay their respect at the holy feet of His Holiness the greatest Yogiraj in the world.
I therefore gladly draw the attention of all my dear friends, travellers and explorers that by seeing with devotion and attaining the benevolence of Sadguru Bhagwan, all their motto of travelling around the world will be served at this place only.
George Jutzelar
(Switzerland) परम पूज्य विश्ववन्दनीय आचार्य सम्राट् योगीन्द्र चूड़ामणि श्री श्री १००८ श्री श्री श्री विजयशान्तिसूरीश्वरजी भगवान् के प्रति पूर्व व पाश्चिमात्य देशों के प्रसिद्ध Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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प्रात्मारामजी महाराज परिव्राजकाचार्य, दर्शननिधि, एम० ए०, विद्यावारिधि, व्याख्यान वाचस्पति एवं प्रसिद्ध हिस्टोरियन (इतिहासज्ञ)साउथ केनेडा का लिखा हुआ एक आदर्श चित्र
हे सद्गुरु भगवान् ! आप पवित्र से भी पवित्र हो इसलिये हे भगवन् ! आपका मिलना जगत भर के सब पवित्र पदार्थों के मिलन से भी विशेष है। __ आप एक हो, आप अनन्त हो, प्रभो! आप शिव हो, आप शक्ति हो, आप कृष्ण हो, आप ईश्वर हो, आप निर्गुण हो और आप सगुण हो, और इन दोनों से परे हो--प्राप पवित्र और सत्य से भी आगे हो--आप बहुत ही बड़े हो, आप सर्वशक्तिमान् हो, आप सर्वस्व हो और सबसे भी परे हो।
आपको पुण्य और पाप भी स्पर्श नहीं कर सकते हैं क्योंकि आप इन दोनों से परे हो।।
आपको पहचानने के लिये प्रयास करें तो लाखों जन्म की आवश्यकता है। किन्तु आपकी कृपा हो जाय तो अल्प समय में आपको पहचाना जा सकता है।
आप जगत् के कल्याण के लिये अदृश्य रूप से विश्व के चारों ओर दिव्य सन्देश पहुँचा रहे हो। हे प्रभो ! हे भगवन् ! आप सर्वोपरि और देवाधिदेव हो।
(जैनध्वज अखबार, अजमेर, ता. १-२-१९३७)
A brief note of the illustrious writings from renouned Sanatan Dharmacharya (monk) Shri Atmaramji Maharaj Paribrajakacharya, M. A., Scholor of Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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ra
religious (Darshannidhi), Vidya-Varidhi and well known Historian etc. from South Canada towards Gurudev Vishva-Vandaniya Acharya Samrat YogiodraChudamani Shree 1008 Shanti Surishwarji Maharaj Sahib.
Jain Dhwaja, Ajmer Ist. January 1937
"O Lord, you are the purest and hence to see you is better than to meet all the pure things of the world combined. You are one and numerous as well. You are the Shiva and the Shakti. You are the Krishna, you are the truth and purest of the pures and beyond these also. You are higher than the highest. Almighty and All you are. Sins can never beseige you and virtues as well, as you are beyond. the limit of these. It takes millions of lives of a soul to know you if one, tries this, but through your kindness, one can easily recognise you. Your words. are the essence of all the Shashtras (scriptures).”
For the welfare of the all living beings you aresending your blessings through wireless around the world. O Lord, you are Highest of the Highers and God of the Gods.
श्री आचार्य भगवान् माउन्ट आबू में विराजते थे उसी समय आपने बम्बई में दर्शन दिये।
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बम्बई के सुप्रसिद्ध सेठ मंगलदास की धर्मपत्नी बहिन श्री सुन्दर बहिन (कच्छ-भुजपुर-निवासी-सेठ देवजी टोकरशी कम्पनी, भात बाजार, बम्बई नं० ३) तथा कच्छ दुर्गापुर निवासी, बम्बई के सुप्रसिद्ध सेठ हीरजी भाई घेला भाई की सुपुत्री को जगतगुरु प्राचार्य भगवान् श्री विजयशान्ति सूरीश्वरजी महाराज साहेब द्वारा दिये गये दर्शन
बहिन श्री सुन्दर बहिन ने अपने धर्मपति तथा कुटुम्ब से कहा कि श्री प्राचार्य भगवान् पाबूजी से मुझे दर्शन देकर कह गये हैं इसलिये मैं सभी को जतलाती हूं कि रविवार की रात को मैं गुरुदेव भगवान् के चरणों में जाऊंगी। उसी दिन रात को बहिन श्री ने प्रात्मजागृति पूर्वक ध्यानस्थ अवस्था में देह त्याग किया था। बड़े बड़े पण्डित और शास्त्रकार भी समाधी मरण नहीं पाते, वह मरण इस बहिन श्री ने प्राप्त किया था। यदि मृत्यु की अंतिम घड़ी में शान्ति और समाधि हो जाय तो अवश्य समाधि मरण होता है । 'समाहीमरणं च बोहीलाभो' ( आवश्यक सूत्र )--समाधि मरण हो और बोधि बीज की प्राप्ति हो। जिसके भव का अन्त पाने वाला होता है उसको ही समाधि मरण होता है पर वह समाधि मरण श्री सद्गुरु की कृपा बिना प्राप्त नहीं होता । जिसकी आत्मा शुद्ध और पवित्र होती है उसको यह प्राप्त होता है। 'भावना भवनाशनी' इसलिये मरते समय शुद्ध भाव आजाता है, उसके भव का अन्त हो जाता है। बहिन श्री का आत्मा शुद्ध और पवित्र था। 'सोहीउज्जुयभूयस्स, धम्मोसुद्धस्सचिट्ठई' ( उतराध्ययन-तीसरा अध्ययन ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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हे गौतम ! जिसका प्रात्मा शुद्ध और पवित्र होता है-- उसी में मेरा धर्म रहता है। गीताजी में भी कहा है-यदि मरण समय थोड़ी भी शान्ति प्राप्त हो जाय तो समाधि मरण - होता है। जैसे कोई दिन भर घर या दूकान का काम करता रहे पर रेलगाड़ी छूटने के ठीक समय पर हाजिर हो जाय तो वह गाड़ी में बैठ जाता है पर यदि कोई दिन भर स्टेशन पर हाजिर रहे पर गाड़ी छूटने के समय बाहर चला जाय तो वह गाड़ी चूक जाता है। इसी प्रकार यदि मृत्यु के अन्त समय शान्ति समाधि प्राप्त हो जाय तो अवश्य समाधिमरण होता है। कच्छ-भुजपुर
ली० सेठ मंगलदास c/o सेठ देवजी टोकरशी की कं०, भात बाजार, बम्बई नं. ३
संसार की महान् विभूति जगद्गुरु महान् योगीन्द्र विजयशान्ति सूरिश्वर महाराज अभी मारवाड़ में सरस्वती अरण्य में विराजते हैं। वहां एक दिन एक गृहस्थ ने एक हजार मनुष्यों को आमंत्रित किया था। किन्तु वहां पाँच हजार मनुष्यों के एकत्रित हो जाने से भोजन बनाने वाले चिन्तित होने लगे। योगिराज ने उन्हें विश्वास दिलाया कि तैयार किया हुआ भोजन, जितने पावेंगे उन सभी के लिये पर्याप्त होगा। इस प्रकार पाँच हजार मनुष्यों के भोजन कर लेने के बाद भी और पांच सौ आदमी धाप कर खायं इतना सामान बढ़ा ।
(सप्ताहिक, गुजराती पंच अहमदाबाद, ता० ६-१-१९२६) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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A MODERN MIRACLE-WORKER His Holiness Yogiraj Jagatguru Acharya Samrat Shree Shanti Vijaysurishwarji Maharaj is at present at Saraswati Aranya, in Marwar, once a lonely little village of the beaten track, but now almost a township, thronged with people of all creeds who have come to pay their humble respects to the Saint.
His Holiness is said to have performed many miracles. On one occasion, it is said, a rich merchant who came for Gurudeo's Darshan invited about 1000 people to a feast, but on that day unexpectedly, about 5000 pleople gathered to obtain the saint's blessings and the post was in a quantary as and how to provide them with food. But His Holiness bade him not to be purturbed and when the time came to distribute food, it was found that there was not only enough for all but also enough to feed 500 more was left over.
Statesman Calcutta
Tuesday, January 7. 1936 संवत् १९६१ को साल में वैशाख महीने सारणपुरा (मारवाड़) के समीप वीसलपुर गांव में प्रतिष्ठा महोत्सव था। आसपास के गांवों के मिलाकर चालीस हजार से ऊपर लोग इकट्ठे हुए थे। जगतगुरु आचार्य भगवान् उस समय वीसलपुर पधारे हुए थे। चालीस हजार से अधिक संख्या वाले इस जनसमूह के लिये आवश्यक जल का प्रबन्ध करने
का कोई साधन न था। मारवाड़ जैसे प्रदेश और गर्मी के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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दिनों में पानी का कैसे प्रबन्ध किया जाय ? इस सम्बन्ध में गांव के लोग बहुत चिन्तित थे। परन्तु जगद्गुरु आचार्य भगवान् की अद्भत आत्मशक्ति और लब्धि के प्रताप से पानी के प्राकृतिक झरने फूट पड़े और जल धारा बह निकली। ____ आठ दिन तक अनगीनते हज़ारों आदमी इकट्ठे हुए। परन्तु भोजन व पानी की किसी भी दिन कमी न पड़ी। जगद्गुरु आचार्य भगवान् की लब्धि के प्रताप से खूब आनन्द मंगल रहा। प्रतिष्ठा महोत्सव के शुभ दिवस एकत्रित हुए मारवाड़ के श्री संघ, कॉन्फरेन्स तथा देश-परदेश से आये हुए प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने मिलकर जगद्गुरु आचार्य भगवान् को 'युगप्रधान' पदवी से विभूषित किया। इनमें कलकत्ता के सुप्रसिद्ध जमोदार दानवीर, सेठ जगतसिंहजी, जिनके कुटुम्ब में वर्षों से जगत सेठ की पदवी चली आती है, अपने परिवार के साथ इस शुभ अवसर पर पधारे थे। इनके सिवा कितनेक राजकुमार तथा जोधपुर स्टेट के अग्रगण्य अफसरों के साथ असंख्य जन-समुदाय उलट पड़ा था। उस समय का दृश्य बड़ा आलौकिक था उसकी दिव्यता की कल्पना वही कर सकता है, जिसने उसे आंखों देखा है।
(इलाहाबाद लीडर पत्र, ता० १५-७-१९३५ का अंग्रेजी अनुवाद)
We have received the following for publication from a correspondent.
Mysterious supply of food and water. It was a remarkable event in the history of Jainism
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when several thousand Jains and non-Jains, including some recognised leaders of the Jain community attended religious ceremonies held at Bisbalpur, Marwar, Erinpura Road, B.B. & C.I. Rly., under the august guidance of His Holiness Vishwopkari the Blessed Yogiraj Acharya Samrat Jagatguru Yogindra Chudamani Shree Shanti Vijaysurishwarji Maharaj of Mount Abu fame. There is scarcity of water every year during the summer season in the small village of Bishalpur and on the eve of the ceremony the people of Bishalpur naturally felt anxious as they could not see any means by which the problem of supplying water to such a vast gathering could be solved and in their anxious moments they approached Shree Gurudeoji Bhagwan. His Holiness assured them that they should not worry about the matter. In fact, when His Holiness arrived at Bishalpur, the water trouble completely vanished and an inexhaustible supply of water suddenly appeared even in those places where there was no chance of getting water. Plentiful supply of water was available at Bishalpur till the ceremony lasted. Further, on several occasions the supply of cooked food, which was considered to be insufficient for the needs of a large number of visitors who arrived unexpectedly, was found to be more than sufficient, Everyone had to believe that the supply was increased by unseen hands. Before the Jagatguru left Bishalpur, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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the entire assembly, headed by the Jagat-Seth from Murshidabad, conferred on him the Highest religious honour of Jainism, the great title of "Yuga Pradhan."
___Allahabad Leader,
Monday July 15, 1935 श्री आचार्य भगवान् प्राबू में विराजते थे उस समय आपने अहमदाबाद में दर्शन दिये ।
समाधि मरण की तैयारी प्राचार्य श्री विजयकेशरसूरीश्वरजी महाराज को सावण सुदी १५ को दोपहर बाद बिस्तर (शय्या) में दस्त होने लगे
और तीन दिन बाद खून के दस्त शुरू हो गये। इससे सभी निराश हो गये। प्रात्मशान्ति के लिये प्रत्याख्यान व्रत लेकर उपवास जाप वगैरह करने लगे। आपकी यह प्रबल इच्छा थी कि किसी के साथ वैर-विरोध न रह जाय, अतः आप बार बार संघ को खमाने लगे। पंचमी के दिन दस्त बन्द हो गये। इसलिये सुबह के पहर आचार्य श्री ने बतलाया कि आज मेरे चारों आहार का प्रत्याख्यान है। पाबूजी से योगीराज श्री विजयशान्तिसूरीश्वरजी महाराज मुझे कह गये हैं ? महो० श्री देवविजयजी ने पूछा कि क्या आप बतायेंगे कि वे क्या कह गये हैं ? प्रत्युत्तर में आपने बतलाया कि जो कह गये हैं वह मैं जानता हूं।
मुझे योगीराज आबू से सूचना कर गये हैं इसलिये मैं माज तैयार होकर बैठा हूँ। अब मैं यहां थोडे घंटों का ही मेहमान हूं।
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इसलिये अब तुम तैयारी करो। समय पूरा होने माया है । ऐसे हृदय-विदारक शब्द सुनकर पंडित श्री लाभविजयजी ने फिर पूछा--स्वामिन् ! सभी तैयार ही है। प्राचार्य श्री ने पुनः बतलाया कि जब मैं मारवाड में था तब मैंने योगीराज श्री विजयशान्तिसूरीश्वरजी महाराज से कहा था कि अन्तिम समय में मेरी खबर लेना । उसी के अनुसार वे मुझे सावधान कर गये हैं । इस समय उनकी आँखें और चेहरा खूब लाल हो गये और तेज कम होता हुआ मालूम होने लगा। सीधे बैठकर बातें करते थे सो बन्द कर मस्तक झुकाकर बैठने लगे।
इस अन्त समय में प्राचार्य श्रीविजयने मिसूरीश्वरजी, आचार्य श्री विजयोदयसूरि तथा आचार्य श्री सागरानन्द सूरि वगैरह अन्तिम मिलाप के लिये आ पहुंचे।
इसके बाद आचार्य श्रीविजयसिद्धिसूरि तथा सेठ साराभाई डाह्याभाई और कस्तूरभाई लालभाई आये तब पुनः सहज ही मस्तक उठाकर सामने देखा और हाथ जोड़े। आजका दृश्य सभी को जुदा ही प्रतीत हुमा । इसलिए आचार्य श्री का सकल परिवार महो० श्री देवविजयजी, प्रखर पंडित श्री लाभविजयजी वगैरह पचास साधु साध्वी हाजिर थे और बार बार नमस्कार मंत्र का स्मरण कराते थे। इसी तरह दो दो घंटों के बीच बीच में अनशन कराया जाता था। अन्त समय की अपूर्व शान्ति थी। लगभग छः बजे अन्त समय का मृत्युकालीन श्वास शुरू हुआ। सभी को ऐसा प्रतीत हुमा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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कि अब श्वास बदला है। यह प्रात्मा थोड़े समय में ही इस देह रूप पिंजरे से स्वतन्त्र होने वाला है। श्रावकों में से नगरसेठ विमलभाई मयाभाई, साराभाई मयाभाई तथा उनकी मातु श्री मुक्ताबहिन भी बार बार खबर लेने के लिए आने लगे।
श्रावणवदी पंचमी की सन्ध्या को ठीक छ: बजकर पैतीस मिनिट पर गर्दन ऊँची कर सीधे ध्यानावस्था में बैठे और पौने सात बजे अन्तिम श्वास की दो हिचकी ली और तीसरी हिचकी के साथ उनकी अजर अमर आत्मा, हज़ारों लोगों को शोक ग्रस्त कर, यह देह पिंजर छोड़ गया। आखिर यह तेजस्वी तारा खिर गया। दुनिया में व्यक्ति की आवश्यकता उसके होते हुए शायद कम भी मालूम हो पर उसके अभाव में उसकी कीमत का पूरा अन्दाज़ा लगता है। उसकी कमी कभी पूरी नहीं होती। इस शासनस्तम्भ के चले जाने पर उसकी कमी को पूर्ण करना कठिन था। हजारों भव्यात्माओं को उपदेश देकर धर्म मार्ग में प्रेरित करने वाले ऐसे प्राचार्य श्री की यह मृत्यु जैन-समाज के लिये महा दुःखरूप थी।
(उपरोक्त लेख-बृहत् जीवन प्रभा तथा आत्मोन्नति वचनामृत नामक पुस्तक में से लिया गया है। पृष्ठ ३५२ । लेखक-देवविनोद आदि अनेक ग्रंथों के कर्ता (प्राचार्य देव श्री विजयशान्ति सूरीश्वरजी महाराज) पुस्तक का प्राप्ति स्थान-शा० सदुभाई तलकचन्द, रतनपोल में वाघणपोल, अहमदाबाद ।
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श्री उमेदपुर नगर में अंजनशलाका व प्रतिष्ठा महोत्सव निमित्त 'श्री संघ आमंत्रण पत्रिका में से लिये हुए उद्गार
वीर संवत् २४६४ विक्रम संवत् १९६५ मगसिर वदी ७ सोमवार ता० १४-११-१९३८
हमारे सद्भाग्य से तीन इंच ऊँची श्री अमीझरा उमेद पूरण पार्श्वनाथ भगवान् के सहस्रफणा और अति आकर्षक बिम्ब की अंजनशलाका विक्रम सं१९६१ की माघ सुदी पंचमी के दिन पूज्यपाद प्रातःस्मरणीय, जगतवन्दनीय, जगतगुरु, अनन्तजीव प्रतिपाल, राजराजेश्वर, योग लब्धिसम्पन्न, योगीन्द्र चूड़ामणि आचार्य भगवान् श्री श्री श्री १००८ श्री श्री विजयशान्तिसूरीश्वरजी महान् योगिराज के पवित्र कर कमलों से श्री बामणवाड़जी तीर्थ में हुई थी। उस समय आप श्री के आशीर्वाद के अनुसार श्याम प्रतिमाजी के स्थान-स्थान पर, अंजनशलाका के पूर्व जो छींटे थे, वे मिट गये
और नेत्रों से अमी झरती हुई देखने में आई है। ऐसे महाप्रतापी जिन बिम्ब को नूतन श्री जिन चैत्य में सिंहासन पर विराजमान करने की तथा नूतन श्री जिन बिम्बों के अंजनशलाका की महत्त्वशाली क्रियाएँ इन्हीं परमपूज्य महान् योगिराज के पवित्र कर कमलों से होगी।
लो० ४८ गामों के पंचों को सही, मु० श्री उमेदपुर
जैन बालाश्रम, उमेदपुर, वाया-एरनपुर आबू में विराजते हुए जगतगुरु आचार्य सम्राट श्री १००८, श्री विनयशान्तिसूरीश्वरजी महाराज ने हैदराबाद सिन्ध में अपने एक भक्त
को अग्निदाह से बचाया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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सं० १९६३ भाद्रपद कृष्ण ५ को स्वर्गीय योगनिष्ठ महात्मा आचार्य श्रीविजयकेसरसूरीश्वरजी महाराज की जयंति हैद्राबाद (सिंध) के प्रसिद्ध धनकुबेर सुविख्यात पहुमल ब्रदर्स नामी फर्म के मालिक सेठ किशनचन्दजी पहमल की अध्यक्षता में बड़े समारोह के साथ मनाई गई।
आपने अपने भाषण में अनुभव का एक उदाहरण दिया और कहा कि मैं अपने निवास स्थान पर आराम से सो रहा था। रात्रि को अचानक इलेक्ट्रिक वायरींग में आग लग गई। मैं गम्भीर निद्रा में मग्न था, मुझे आग लगने की बात कुछ भी मालूम नहीं पड़ी थी, एकाएक आचार्य भगवान् ने दर्शन देते हुए मुझको चिताया कि उठो तुम्हारे घर में आग लग गई है यह सन्देश सुना तो मैं घबरा कर उठा, आग लगती हुई देखी। गुरुदेव भगवान् की कृपा से मेरे तथा अन्य बहुत से नर नारियों और बच्चों के प्राण बच गये। मैंने श्री गुरुदेव भगवान् से कहा कि आपने जीवनदान दिया। श्री गुरुदेव बोले तुम अनन्य भक्त हो।
पश्चात् सेठ साहेब ने कहा कि जिसको समाधि मरण होता है वह अवश्यमेव उच्च गति को प्राप्त होता है। इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण हमने "श्री बृहत् जीवन प्रभा" के पृष्ट ३५२-३५३ में पाया है।
एक समय केसरविजयजी ने गुरुदेव भगवान् को फ़रमाया कि यह जीव तो अनादि काल से फिर रहा है। अगर समाधि
मरण हो जाय तो कल्याण हो जाय, इसलिये अन्तिम समय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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में आप हमारी खबर ज़रूर लीजियेगा क्योंकि जिसका अन्त सुधरा उसका भव का फेरा मिट जाता है।
आबू में विराजते हुए हमारे पूज्यवर श्री गुरुदेव भगवान् ने अहमदाबाद में विराजते हुए योगनिष्ठ महात्मा श्री विजयकेसरसूरिजी महाराज को उनके देहावसान की सूचना दी कि आपका अन्तिम समय आगया है, समाधि मंडित मरण करो प्राचार्य श्री ने इस सन्देश के प्राप्त होने के साथ अपने अन्तिम समय की तैयारी की और ध्यानस्थ अवस्था में देह त्याग किया।
(ऊपर का लेख श्री हैदराबाद बुलेटीन ता० १०-१०-१९३६ के अंग्रेजी अखबार में से लिया गया है। ठि० सिकन्दराबाद, दक्षिण)
How His Holiness Jagat Guru Acharya Samrat 1008, Shree Bijay Shanti Surishwarji Bhagwan while staying at Abu had saved one of His disciples from burning by fire at Hyderabad (Sindh).
"On the fifth day afet the Full Moon in the month of Bhadrapada in Sambat 1993 tbe anniver. sary Jubilee of the late Yogi Mahatma Acharya Shree Bijay-Keshar surishwarji Maharaj was celebrated with great pomp under the aegis of Seth Kishanchandji Pohumal, proprietor of the reputed well-established firm under the style of Messrs. Pohumal Bros. Citing an example of his own experience he said in course of his speech, "I was sleeping comfortably in my own Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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home. At nignt the electric wire suddenly caught fire while I was fast asleep fully unaware of the electric conflagration. All of a sudden Shree Acharya Bhagwan made His appearance before me and roused me up from my sleep saying, "Get up, your house is on fire.' At this I rose up in confusion and saw the fire. Through the grace of Guru-Deva Bhagwan the lives of myself and many other men, women and children were saved. I said to Bhagwan Gurudeva, •You have given me my iife,' at which He replied, You are my steadfast disciple'."
Later on Seth Sahib had said, “He who dies in a reverie must have attained spiritual greatness. I have had glowing examples of this in Shree Brihat Jiwan Prava at pages 352-353."
Once Keshar Bijayji had said to Gurudeva, "This created being is in existence since the beginning of creation. If death in a reverie is attained it would mean a great blessing. So at the time of my death do please inquire about me since it is a fact that whosoever is chastened at the end must escape from the cycles of birth and re-birth.”
"While staying at Abu our Pujya Shree Gurudeva Bhagwan had intimated to Yogi Mahatma Shree Bijay Keshar Suriji at Ahmedabad the previous indication of the latter's demise and informed him that his last day had drawn near and so asked him to prepare for
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death in a reverie. Immediately on receipt of this information Acharya Shreeji made a preparation for his last moment and breathed his last even while he was in a reverie."
गुरुदेव गुरु भगवान् हैं । आध्यात्मिक गुरु हैं । (नीला काम कूक, ली फ़रमेन, इन्क, न्यूयोर्क, द्वारा लिखित My Road to India नामक पुस्तक के १७० पृष्ठ पर)
My Road to India
By :
Nilla Cram Cook On Page 170
Lee Furman, Inc.
New York. “Gurudeo is Guru God. Divine Guru.”
Illustrated weekly आदि कई अंग्रेजी पत्रों में श्री गुरुदेव भगवान् महायोगिराज जगद्गुरु प्राचार्य सम्राट् महाराज साहेब के फोटो के साथ, पुर्तगाल निवासी दार्शनिक एवं अन्वेषक डा० जोस रोड्रिगेस द्वारा लिखित, यह लेख प्रकाशित हुआ । यही लेख दुबारा दैनिक नवयुग (हिन्दी), दिल्ली के ता० १२ जुलाई १९३५ के अंक में प्रकाशित हुआ-महान् योगिराज श्री आचार्य सम्राट जगद्गुरु श्री विजयशान्ति सूरीश्वरजी महाराज योग संस्कृति के तात्त्विक विद्वानों में से एक हैं । योग के अनुयायी प्राकृतिक नियमों द्वारा अद्भुत वस्तुएं उत्पन्न कर सकते हैं जिन्हें साधारण लोग जादू Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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समझते हैं। किन्तु वास्तव में वे जादू से उत्पन्न नहीं होतीं।
योग की शक्ति द्वारा असम्भव बातें सम्भव की जा सकती हैं । आगे चलकर पुर्तगाल निवासी महाशय लिखते हैं :___ अतएव में प्रसन्नता पूर्वक अपने सभी प्रिय यात्री मित्रों एवं अन्वेषकों का ध्यान इस ओर आकृष्ट करता हूँ कि श्री योगिराज के भक्तिपूर्वक दर्शन करने एवं उनका अनुग्रह प्राप्त करने से विश्व में सर्वत्र यात्रा करने के उनके सही उद्देश्य केवल इसी एक स्थान पर सिद्ध हो जायँगे।
'जनध्वजा', अजमेर १६-१२-३६
In certain English Newspapers such as the illustrated weekly with a photo of Shree Gurudeo Bhagwan Greatest Yogiraj Jagatguru Acharya Samrat Maharaj Sahib as written by Dr. Jose Rodrigues, the Portugese Philosopher and explorer. This was again Published in Daily Nava Yug (Hindi) of Delhi, dated 12th July, 1935.
“Greatest Yogiraj Shree Acharya Samrat Jagatguru Shree Vijay Shanti Surishwarji Maharaj is one of the true scholars of Yoga Culture. Followers of Yoga can produce, by natural laws, phenomena which the initiated people believe to be magic, but actually these are not by magic.
Impossible things can be made possible by the Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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powers of Yoga. Further the Portugese Gentleman says:
"I therefore gladly draw the attention of all my dear friend-travellers and explorers that by secing with devotion and attaining the benevolence of Shree Yogiraj, all their motto of travelling around the world will be served at this place only."
Jain Dhwaja, Ajmer
16-12-36
“Tantrik Yoga” (Hindu & Tibatan)
By J. Marques-Riviere, Member of the Asiatic Society
Publisher : Rider & Co. Paternoster House, Paternoster Row.
London, E. C. 4. To My Guru,
"I wish to dedicate this first volume of the "Asia" series to Guru Shree Vijay Shanti Surishwarji Maharaj whom I met in India and who gave me peace. Defination of self realization,
In most obedient respect, April, 1940
J. M. Riviere हिन्दू और तिब्बत यान्त्रिक योग, लेखक-जो मारक्वेस राइवीरे, सदस्य एशियाटिक सोसाइटी, प्रकाशक-राइडर एन्ड कम्पनी, पेटरनोस्टर हाउस, पेटर नोस्टर रो, लन्दन ई० सी० ४ का समर्पणपत्र । मेरे गुरु की सेवा में । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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"एशिया ग्रन्थमाला के इस प्रथम भाग को मैं गुरु श्री विजयशान्ति सूरीश्वरजी महाराज को समर्पित करना चाहता हूँ। भारत में मैंने आपके दर्शन किये और मुझे आपसे शान्ति प्राप्त हुई। आत्मज्ञान की व्याख्या।
अत्यधिक विनम्रभाव से सम्मान के साथ एप्रिल १९४०
जे० एम० राइवीरे
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आचार्य देव की स्तुति
(रचयित्री-परम विदुषी, प्रखर पंडिता श्री हीराकुंवर बहिन, न्यायतीर्थ, व्याकरणतीर्थ, वेदान्ततीर्थ, सांख्यतीर्थ, कलकत्ता)
त्रोटकवृत्तम् समतारस धाम ! गुरो ! समतां, विदधातु सदा मम चित्तकजे । तम संशय नाशनभानुसमः,गुरुशान्ति मुनीश! जयोऽस्तु सदा॥२॥
अर्थ समता रस के धाम हे गुरुदेव ! मेरे चित्त रूपी कमल में समता भाव उत्पन्न करिये। हे गुरुदेव ! शान्ति मुनीश्वर ! आप संशय रूप अन्धकार को हटाने में सूर्य सदृश हैं । हे भगवन् ! आपकी सदा जय हो। समशान्तसुधारस भावमयं, जगताप विनाशन मेघ समम् । जन दुःखहरं मधुरं सुखदं, जग पूजित देव! तवोऽस्ति वचः ।।२।।
अर्थ-विश्वपूज्य हे गुरुदेव ! समभाव एवं शान्तिप्रधान आपका वचन सुधारस रूप है एवं भावमय है। जगत के ताप को शान्त करने में वह मेघ के समान है। वह मनुष्यों के दुःख दूर करने वाला है, मधुर है और सुख का देने वाला है । भवरोगलयं शिवशान्तिकरं, भयशोकशमं यशहर्षप्रदम् । भुवनार्तिहरं जनकामभरं, जगपूज्य सदा तव भक्ति रसम् ॥३॥
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विश्व विख्यात सद्गत योगिश्वर श्रीविजयशांतिसूरीश्वरजी साहब
आबुवाले
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अर्थ-जगत् के पूज्य हे गुरु भगवन् ! आपका भक्तिरस संसार रूप रोग का नाश करने वाला और शान्ति एवं कल्याण का देने वाला है। इसके प्रभाव से भय और शोक का शमन हो जाता है एवं यश तथा हर्ष की प्राप्ति होती है। यह संसार के दुःख का हरण करने वाला है एवं भक्त की कामना को पूरी करता है। जगतारक ! तापितशान्तिकर ! शरणागतपालक ! शान्तिगुरो । कमलोपम कोमल पादयुगे सकलार्पितभक्तजनाः प्रमुदा ॥४॥
अर्थ--विश्वतारक, संतप्त प्राणियों को शान्ति देने वाला, शरणागत की रक्षा करने वाले, हे शान्ति गुरुदेव ! आपके कमल जैसे सुकोमल चरणों में भक्त लोग आनन्दपूर्वक अपना सर्वस्व अर्पण करते हैं।
वसंततिलकावृत्तम अज्ञानतामसमपाकरणे प्रदीप !
संसारपारकरणे मम पोततुल्यः । भक्तेप्सितप्रददने सुरवृक्ष ! नौमि
सूरीश ! शान्तिगुरुदेव, तवांघिन ॥५॥ अर्थ-अज्ञानान्धकार को दूर करने में दीपक स्वरूप हे गुरुदेव ! संसार से मुझे पार पहुंचाने के लिये आप जहाज़ समान हैं। भक्तों की मनोकामना पूर्ण करने में कल्प वृक्ष रूप
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हे सूरीश्वर ! हे शान्ति गुरुवर ! मैं आपके चरण कमलों में नमस्कार करती हूँ।
शिखरिणी वृत्तम् सदा विश्वप्रेमी वितरति मुदा प्रेमसुपयः । जनानां तप्तानां शमयति गुरुस्तापदहनम् ।। सुपुर्य्या मांडोल्यां चरणयुगले भक्तिसहितम् ।
प्रभोः सम्राट शान्तेर्भवतु शतशः हीरकनतिः ॥६॥ अर्थ--हे गुरुदेव ! आप विश्वप्रेमी हैं। सदा आनन्दपूर्वक प्रेमामृत का वितरण करते हैं। त्रिविध ताप से जलते हुए लोगों के तापरूप अग्नि को आप शान्त कर देते हैं । हे सूरि सम्राट् ! शान्ति गुरुदेव ! सुपुरी मांडोली के मध्य, आपके पावन चरण कमलों में हीरा बहिन भक्ति पूर्वक शतशः नमस्कार करती है।
गुरु स्तुतिः
गुरुवमा मुरुर्विष्णुः गुरुदेवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥१॥ अर्थ--गुरु ब्रह्मा हैं, गुरु विष्णु हैं और गुरु ही महादेव हैं । साक्षात् परब्रह्म भी गुरुदेव ही हैं। ऐसे श्री गुरुदेव को नमस्कार हो।
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अज्ञानतिमिरांधस्य ज्ञानांजनशलाकया ।
चक्षरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥२॥ अर्थ--ज्ञान रूपी अंजन की शलाका द्वारा जिसने अज्ञान तम से अन्धे बने हुए की आँख खोल दो ऐसे श्री सद्गुरु को नमस्कार हो।
स्थावरं जंगम व्याप्तं यत्किंचित् सचराचरम् । त्वं पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
अर्थ--स्थावर और जंगम जीवों से व्याप्त जो यह चराचर जगत् है उसको जिसने त्वं पद अर्थात् आत्मा रूप से दिखलाया ऐसे श्री गुरु भगवान् को नमस्कार हो ।
अखंडमंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरम ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥ अर्थ--जो ज्ञान रूप से प्रखण्ड मण्डलाकार चराचर जगत् में व्याप्त है उसके (परमेश्वर के) स्थान को अर्थात् मुक्ति पद को जिसने बतलाया ऐसे श्री गुरुदेव को नमस्कार हो।
चिन्मयं व्यापितं सर्वे त्रैलोक्यं सचराचरम ।
असि पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ।। अर्थ-सचराचर अखिल त्रिलोकी में जो ज्ञान रूप से व्याप्त हैं ऐसे 'असि पद' रूप परमात्मस्वरूप का जिसने दर्शन कराया ऐसे श्री सद्गुरु को नमस्कार हो। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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निर्गुणं निर्मलं शान्तं जङ्गमं स्थिरमेव च। व्याप्तं येन जगत्सर्व तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
अर्थ--निर्गुण, निर्मल, शान्ति स्वरूप परमात्म तत्व को, जिससे सारा स्थावर और जंगम जगत व्याप्त है, दिखलाने वाले श्री गुरुदेव को नमस्कार हो ।
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________________ થશો alcooble संपादक की 61 पुस्तकों में से उपलब पुस्तकों की सूची नाम श्री नवकार महामंत्र कल्प ऋषि मंडल स्तोत्र सार्थ कल्प यंत्र-मंत्र कल्प संग्रह * नमस्कार मंत्र महात्म्य 2 घंटाकर्ण कल्प यंत्रों सहित ऋषि मंडल पट आर्ट पेपर पर * ऋषि मंडल पट कपड़े पर नवपद पूजा सार्थ मानव धर्म विधान पुस्तकें भेजने का डाक व्यय अलग लगेगा। पता: चंदनमल नागोरी, जैन पुस्तकालय छोटी सादड़ी (मेवाड़) जॉब प्रिंटिंग प्रेस, ब्रह्मपूरी, अजमेर में छपी। मुद्रक-प्रतापसिंह लूणिया / Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com