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लिया। उस समय कोलोजी ईश्वर के ध्यान में निमग्न थे । ध्यान से जब जागे तो उन्होंने सर्पदंशित अपने पुत्र को मृत्यु की शरण में देखा। पुत्र को अपनी गोद में लेकर उन्होंने यह दृढ़ प्रतिज्ञा की-यदि मेरा यह पुत्र बच जायगा तो मैं अन्न जल ग्रहण करूँगा; नहीं तो परमेष्ठी मंत्र का ध्यान करते करते यह शरीर छोड़ दूंगा सेठ तथा अन्य लोगों ने यह प्रतिज्ञा छोड़ देने के लिये उन्हें बहुत समझाया परन्तु ईश्वर में अडिग श्रद्धा रखते हुए वे अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहे । उपवास के तीसरे दिन श्रद्धा के प्रबल प्रताप से कोई सन्त महात्मा प्रा उपस्थित हुए और पुत्र को जीवित किया । तुरन्त ही कोलोजी ने अपने इस पुत्र को महात्माजी के चरणों में रख दिया और कहा
आपने इसको जीवनदान दिया इसके लिये मैं आपका अतिशय ऋणी हूँ। मुझे अब अपना शेष जीवन भगवद्भक्ति में बिताना है इसलिये कृपया आप यह बतलाइये कि मुझे इस पुत्र की क्या व्यवस्था करनी चाहिये। उत्तर में महात्माजी ने कहाइस पुत्र को तुम किसी साधु अथवा यति को बहरा देना और तुम भी जैन दीक्षा अंगीकार कर लेना। इससे आत्मज्ञान सम्पादन कर तुम एक महापुरुष के रूप में पूजे जानोगे, यह तुम्हें मेरा आशीर्वाद है।
तुरन्त ही महात्माजी अदृश्य हो गये। इसके बाद कोलोजी ने तीन उपवास का पारणा किया। कुछ मास बाद उन्होंने अपने पुत्र वेलजी को एक यति को बहरा दिया जो वेलजी यति के नाम से मंडार गाँव में प्रसिद्ध हुए। इसके बाद कोलोजी को मणिविजयी नामक एक जैन-साधु मिले। उनके
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