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पास उन्होंने संवत् १८७३ की माहासुदी ५ के दिन दीक्षा ग्रहण की। तभी से उनका नाम मुनि महाराज श्रीधर्मविजयजो रखा गया।
खंडाला के घाट में कुछ समय ध्यान में व्यतीत करने के बाद श्री धर्मविजयजी महाराज श्री को स्वभावतः सहज ही आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई। आप इतने बड़े शक्तिशाली समर्थ पुरुष थे कि एक स्थान पर विराजते हुए भी आप उसी समय दूर-दूर देशों में अनेक स्थानों पर अपने भक्तों को दर्शन देते थे एक समय आप रामसीण गाँव से विहार कर आगे पधार रहे थे। उस समय आपके साथ बहुत से लोग थे। जेठ का महीनाथा। गर्मी सख्त पड़ रही थी। साथ के लोगों को प्यास सताने लगी। आस-पास में पानी मिलने का कोई उपाय न था। इसलिये बहुत से लोग घबरा गये। अनन्त-दयाल श्रीगुरुदेव भगवान् के पास अपनी तर्पणी में थोड़ा सा जल था। आपने उसमें से थोड़ा सापानी पृथ्वी में एक गढ़ा करा कर डाला और उसके ऊपर एक कपड़ा ढंकवा दिया। तुरन्त ही लब्धि के प्रभाव से उस गढ़े में पानी उमड़ पाया। हर एक मनुष्य ने उसमें से अपनी प्यास बुझाई।
एक समय श्रीधर्मविजयजी भगवान् रामसीण में विराजते थे । चैत्र-सुदी पूर्णिमा का दिन था। उन्हीं दिनों रामसीण गाँव के कई एक श्रावक पालीताणा यात्रा के लिये गये हुए थे। वे पहाड़ के ऊपर आदेश्वर दादा के दर्शन कर बाहर निकले तो उन्होंने वृक्ष के नीचे गुरु श्री को देखा । वंदना के पश्चात् उन्होंने प्रश्न किया--भगवन् ! आप कब पधारे ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com