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प्रत्युतर में 'ओं शान्ति' शब्द सुनाई दिये। उसी दिन श्रावकों ने पालीताणा से रामसीण पत्र लिखा कि आज दिन यहाँ पहाड़ ऊपर श्रीधर्मविजयजी महाराज साहेब के दर्शन हुए हैं । क्या आप श्री अभी रामसीण में हैं अथवा विहार कर गये हैं। रामसीण से इस प्रकार उत्तर आया कि चैत्र-सुदी पूर्णिमा के दिन प्रातःकाल दस बजे गुरु श्री ध्यान करने के लिये जंगल में पधार गये थे। शाम को चार बजे के बाद आप वापिस लौट आये और अभी यहीं विराजते हैं। इस प्रकार आप श्री अपनी अनन्त आत्मशक्ति द्वारा एक ही समय दूर-दूर देशों में अनेक स्थानों पर अपने भक्तों को दर्शन देते थे। आप श्री के जीवन-चरित्र में इस प्रकार की अनेक अद्भत और अलौकिक बातें हैं जिन्हें लिखना संभव नहीं है।
मृत्यु का समय भी एक महीने पहिले ही आपने अपने भक्तों को बता दिया था और कहा था कि जिस स्थान पर मेरे मृत देह का दाह-संस्कार करो वहाँ पालखी के चारों तरफ नीम के चार सूखे खूटे लगा देना । अग्नि लगाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। नीम के जो चारों खूटे गाड़ोगे वे भविष्य में नीम के चार वृक्ष होंगे। मेरी मृत्यु के भविष्य में जब कोई महान् आदर्श व्यक्ति प्रकट होगा तब एक नीमका वृक्ष अदृश्य हो जायगा।
आपके कहे अनुसार ही संवत् १६४६ की आषाढ़ बदी ६ को प्रातःकाल प्रापश्री का देहावसान हुअा। हजारों लोग बिना किसी जाति-भेद-भाव के प्रापश्री की पालखी अग्निसंस्कार के लिये जंगल में ले गये। चार नीम के खूटे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com