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कि अब श्वास बदला है। यह प्रात्मा थोड़े समय में ही इस देह रूप पिंजरे से स्वतन्त्र होने वाला है। श्रावकों में से नगरसेठ विमलभाई मयाभाई, साराभाई मयाभाई तथा उनकी मातु श्री मुक्ताबहिन भी बार बार खबर लेने के लिए आने लगे।
श्रावणवदी पंचमी की सन्ध्या को ठीक छ: बजकर पैतीस मिनिट पर गर्दन ऊँची कर सीधे ध्यानावस्था में बैठे और पौने सात बजे अन्तिम श्वास की दो हिचकी ली और तीसरी हिचकी के साथ उनकी अजर अमर आत्मा, हज़ारों लोगों को शोक ग्रस्त कर, यह देह पिंजर छोड़ गया। आखिर यह तेजस्वी तारा खिर गया। दुनिया में व्यक्ति की आवश्यकता उसके होते हुए शायद कम भी मालूम हो पर उसके अभाव में उसकी कीमत का पूरा अन्दाज़ा लगता है। उसकी कमी कभी पूरी नहीं होती। इस शासनस्तम्भ के चले जाने पर उसकी कमी को पूर्ण करना कठिन था। हजारों भव्यात्माओं को उपदेश देकर धर्म मार्ग में प्रेरित करने वाले ऐसे प्राचार्य श्री की यह मृत्यु जैन-समाज के लिये महा दुःखरूप थी।
(उपरोक्त लेख-बृहत् जीवन प्रभा तथा आत्मोन्नति वचनामृत नामक पुस्तक में से लिया गया है। पृष्ठ ३५२ । लेखक-देवविनोद आदि अनेक ग्रंथों के कर्ता (प्राचार्य देव श्री विजयशान्ति सूरीश्वरजी महाराज) पुस्तक का प्राप्ति स्थान-शा० सदुभाई तलकचन्द, रतनपोल में वाघणपोल, अहमदाबाद ।
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