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आज के धर्म के कार्य राज सत्ता से सुधरते हैं, जैसे प्रयत्न व विनंती अरदास ने नहीं हो पाते, योगीराज के पास अनेक राजा महाराजा नवाब अमात्य-प्रधान, दीवान मुसाहब मुसद्दी का पदार्पण होता था। उस समय समाज का ध्यान इस तरफ आकर्षित नहीं हुआ, यदि समय को मान देकर प्रयत्न किया जाता तो उन्नति में सहायता मिलती, राजसत्ता तो अजब काम करती है, राजशासन शांति पूर्वक चलता हो राजा धर्म बुद्धि वाले, अमात्य धर्म भावना वाले और नगर लोक धर्म सेवा वाले हों-धर्माराधन करने में सावधान हों तो प्रत्येक कार्य की साधने में विलम्य नहीं होता, राजा महाराजाओं का
आव जाव देख एकदा श्री परम पूज्य आचार्य महाराज विजय वल्लभ सूरीश्वरजी साहब ने व्याख्यान में कहा था कि श्री हीरविजयसूरिजी महाराज के बाद जैन मुनियों के पास आना जाना हुप्रा हो तो एक योगिराज श्री शांतिविजयजी ही हैं। विशेष में हमारा मंतव्य है कि जिस समय जैन धर्म राजधर्म था तब उन्नति के शिखर पर पहुँच गया था, जब से वणिक धर्म हुमा द्रव्य सत्ता व्यवसायियों के हाथ में आई तब से धन एकत्र करने की भावना वृद्धि पाती रही। धर्म के नाम की पेढीयां कारखाने मकान आवास दुकान बंगला निर्माण हुए और किराये उत्पन्न करने को भाड़ेतियों के लिये सुविधा के लिए अर्थ के हेतु अनर्थकारी योजनाएं भी की गईं" यहाँ तक की मकानों में शौचालय आदि का निर्माण भी कराया, पूर्वकाल में अपार धर्म व्यय करने वालों ने भगवान के नाम पर पेढियाँ चलाई हो ऐसे उदाहरण मिलना कठिन बात है।
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