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शुद्धता से क्रिया शुद्ध बनती है। शरीर में साडे तीन करोड़ रोमराय है, एक एक रोमराय द्वारा वायु का संचार होता है। यदि यह द्वार रूंध हो जाए तो वायु प्रमाण रूप में प्रवेश नहीं होने से रोग-व्याधी उत्पन्न होती है। अत: ध्यान देह द्वारा मन की चाबी से आत्मा की निश्रा पंच-योग की सान्निध्यता में होता है, इसलिये अंग अंतरंग नाडी आदि के व्हवहार क्रिया की शुद्धता आवश्यक मानी है। __मानवभव उत्तमोत्तम माना गया है, जैन सूत्रों में मानवभव से उत्तम भव कोई नहीं माना गया, देवभव बारह देव लोक के अतिरिक्त नौग्रेयक और अनुत्तरविमान-अनुतर विमान को लघु मोक्ष भी कह सकते हैं । परन्तु इन देव स्थानों से प्रात्मा सीधा मोक्ष में नहीं जा सकता। मुक्ति के लिये मानवभव की आवश्यकता है। देवभव में व्रत नियम ध्यान समाधी उदय में नहीं आते यह मान्यता कई सम्प्रदाय में मान्य है, और मनुष्यभव को देव से भी श्रेष्ठ ही नहीं श्रेष्ठतम माना है, देवतामों को यम नियम व्रत ज्ञान लाभ के हेतु मानव देह लेने की आवश्यकता होती है। और स्पष्ट कहें तो मनुष्य भव हो ज्ञान प्राप्त करने के योग्य है।
यहूदी और इसलाम धर्म में वर्णन है कि, ईश्वर ने देवता और अन्यान्य समूह सृष्टि के मनुष्य की सृष्टि करके देवताओं से कहा कि मनुष्य को प्रणाम करने जामो, सबने आज्ञा पालन की, केवल "इब्लिस" नहीं गया, तो इब्लिस को अभिशाप दिया जिससे वह शैतान बन गया यह उदाहरण पातांजल "राजयोग" अनुवाद स्वामी विवेकानंदजी कृत में है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com