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और वह इष्ट अनिष्ट योग उत्पन्न होने पर प्रसन्न नहीं होते और खेद नही पाते केवल एक ध्येय आत्म दर्शन का रहता है । आत्म दर्शन की इच्छा नहीं रखते । इच्छा योगियों को विष रूप होती है, इच्छा हो तो अनेच्छा अपने आप आ जाती है । यह दोनों परिवार वाली है, और योगी ऐसे परिवार से परे रहते हैं, तो ही आत्म दर्शन पाते हैं, इसी कारण योगी निस्पृहता को स्वीकारते हैं, योगियों को योग बल से सिद्धियां लब्धियां भी उत्पन्न होती हैं, परन्तु वे प्राप्त शक्तियों का अभिमान नहीं करते न प्राप्त शक्तियों के बल पर प्राकर्म बताते हैं, वे अल्प भाषी और विशेष ध्यानी होते हैं, रोग मुक्त होने की शक्ति प्राप्त होने पर भी वे शक्ति द्वारा रोग को नष्ट करने का प्रयत्न नहीं करते । इसी कारण केवली के सिद्धस्थान पर पहुंचने के प्रथम सोपान को स्वीकार कर संयोगी-अयोगी अवस्था तक पहुँच जाते हैं, योग सम्पन्न सारे ही सिद्धावस्था में पहुंच जाते हों ऐसा नियम नहीं है, दसवें, ग्यारहवें सोपान से गिरने के उदाहरण भी मिलते हैं, गिरता कौन है ? जिस पर मोह राजा का प्रभाव हो जाय और न कुछ वस्तु पर ही मेरापन आ जाय तो महान सत्ताधारी मोहराज तत्काल गिराकर प्रारम्भिक सोपान पर रख देते हैं, गिरते वो ही हैं कि, जो निस्पृहता का त्याग कर मोह-माया मेरापन अपनाते हैं । अतः योग पद पाकर सावधान न रहें तो आपत्ति होती है।
इन्द्रियों के तेइस विषय और दो सौ छप्पन विकार से परांगमुख रहकर जो योगी ध्यान समाधी में रत्त
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