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॥ यतः ॥ बिना माता भ्राता प्रिय सहचरी सूनु निवहः, सुहृत् स्वामी माद्यात् करिभटरथाश्व परिकरनिमजन्तं जन्तु नरक कुहरे रक्षितुमलं गुरोधर्माधर्म प्रकटनपरात कोऽपि न पर :
. "योगदीपक" भावार्थ--संसार में पिता माता भाई प्रियांगना-सहचरी पुत्रगण, स्नेही मित्र ओर स्वामी, इसके अतिरिक्त मदोन्मत गजरथ अश्वसमूह हो तथापि नर्कके द्वार पर जाते समय केवल गुरु के सिवाय और कोई रक्षक नहीं होता है । इसलिए कहा है किगुरु कल्प वृक्षो गुरु कामधेनु,
गुरु काम कुंभोगुरु देव रत्नं । गुरुश्चित्रवन्ली, गुरु कल्पवल्ली, गुरु दक्षिणा वृत्तशंखपुनश्च ॥
"धर्मदासगणि"
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