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राजवी विदेश में जाकर भी विकट समय में तार द्वारा आशीर्वाद मांगते थे । और विदेश से वापसी पर गुरूदेव की सेवा में आते थे । गुरू पूर्णिमा को लौकिक व्यवहार के नाते कई राजवियों की ओर से मुख्य सरदार चद्दर भेंट करने पाया करते थे, विदेश के कई विद्वानों ने आपकी भूरि भूरि प्रशंसा कई बार की और वर्तमान पत्र में लेख भी लिखे। श्रीमान् प्रोगल्वी साहब ए० जी० जी० आबू तो आपको गुरू मानते थे, राजकोट के पोलेटीकल एजेंट अजमेर कमिश्नर व इनकी धर्मपत्नि आदि आपके पास कई बार आते और पूज्य बुद्धि से देखते थे, महाराजा बीकानेर, लीमड़ी, मोरबी भावनगर, कई बार दर्शनार्थ आए और अमात्य व सेठ साहूकारों का आगमन भी कम नहीं था, कई संप्रदाय के धर्माचार्य व प्रसिद्ध मुनिवर्य भी अनेक बार आये और प्रशंसा पत्र भी लिखे, मतलब यह है कि प्रत्येक प्रकार से आपका मान पान होता था, ऐसी स्थिति में आपने अहिंसा व्रत को विशेष महत्व देने के हेतु विचार किया कि, अहिंसा का मार्ग बहुत बड़ा विशाल है, जिसका उपदेश कई तरह से मिलता है, ध्येय एक होते हुए वेश परिवर्तित देखे जाते हैं, परन्तु यह तो सिद्ध है कि धर्माचार्यों ने अहिंसा की ध्वजा खूब फहराई है।
श्री परमात्मा महावीर स्वामी की अहिंसा के शृगार में से एक वेष पशुरक्षा का भी अमूल्य समझ अपने आगंतुक महोदयों को उपदेश देना जारी किया, अतः श्रीमान् लीमड़ी दरबार सर दौलतसिंहजी साहब के अधिपत्य में साधारण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com