Book Title: Shatrunjayatirthoddharprabandha
Author(s): Jinvijay
Publisher: Shrutgyan Prasarak Sabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शवजयतीर्थीद्वारप्रबंध ( द्धात और ऐतिहासिक सारभाग सहित ।) : संपादक : मुनि जिनविजय : प्रकाशक: श्री श्रुतज्ञान प्रसारक सभा अमदावाद 2010_02 www.jainelibrary ore Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 389 33338888 88888 प्रवर्तक कान्तिविजय जैन इतिहासमाला तृतीय पुष्प । ॥ अहम् ॥ RETIRHAREERE 3888 30022 । शत्रुजयतीर्थोद्धारप्रबंध । ग 2888888 (उपोद्धात और ऐतिहासिक सारभाग सहित ।) 2 ॐ ॐ28888888888 : संपादक : मुनि जिनविजय 38 . manogo 3888888 3888888888888 : प्रकाशक: श्री श्रुतज्ञान प्रसारक सभा वी.सं. २०६५ ई.स. : २००९ 20988593 8888888 ... mayaPROGRAM 48 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 580808688003 - - 388856039338633968-998338 098 शत्रुजयतीर्थोद्धारप्रबंध । प्रति : ३०० मूल्य : १०-०० पृष्ठ संख्या : २+ ११० = ११२ प्रथमावृत्ति : वीर संवत्-२४४३ विक्रमार्क-१९७३ । द्वितीयवृत्ति : विक्रमार्क-२०६५ 03808600480888 : प्राप्तिस्थान : जितेन्द्रभाई कायडीया C/o. अजंता प्रिन्टर्स १४-बी, सत्तर तालुका सोसायटी, पोष्ट : नवजीवन अमदावाद - १४. फोन : (ओ) २७५४५५५७ (रहे.) २६६०९२६ Scoodi शरदभाई शाह १०२, वी.टी. एपार्टमेन्ट, दादासाहेब पासे, काळानाळा, भावनगर, ३६४००१. फोन : २४२६७९७ S विजयभाई बी. दोशी (महुवावाळा) सी-६०२, दत्ताणीनगर, बिल्डींग नं-३, एस. वी. रोड, बोरीवल्ली (वेस्ट) मुंबई - ९२ मो. ९८२०४ ७८८०४ D) NAGeog मुद्रक : किरीट ग्राफिक्स २०९, आनंद शोपींग सेन्टर, रतनपोळ, अमदावाद - १, फोन ०७९-२५३५२६०२ STUFE Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घात शत्रुजय पर्वत का परिचय जगत के प्रायः सभी प्राचीन धर्मो में किसी न किसी स्थान विशेष को पूज्य, प्रतिष्ठित और पवित्र माने जाने के उदाहरण सब के दृष्टिगोचर हो रहे हैं। क्या मूर्तिपूजा मानने वाले और क्या उस का निषेध करने वाले; क्या ईश्वरवादी और क्या अनीश्वरवादी; सभी इस बात में एक से दिखाई देते हैं। हिन्दु हिमालयादि तीर्थों को, मुसलमान मक्का तथा मदीना को, क्रिश्चियन जेरुसलम को और बौद्ध गया और बोधिवृक्ष वगैरह स्थानों को हजारों वर्षों से पूजनीय और पवित्र मानते आ रहे हैं। इन धर्मों के सभी श्रद्धालु मनुष्य, जीन्दगी में एक बार अपने अपने इन पावन स्थानों में जाया जाय तो स्वजन्म को सफल हुआ मानने की मानता रखते हैं। जैनधर्म में भी ऐसे कितने ही स्थल पूजनीय और स्पर्शनीय माने गये हैं। शत्रुजय, गिरनार, आबू, तारंगगिरि और समेतशिखर आदि स्थानों की इन्हीं में गिनती है। इन में भी शत्रुजय नामक पर्वत सब से अधिक श्रेष्ठ, सब से अधिक पवित्र और सब से अधिक पूज्य गिना जाता है। यह पर्वत, बम्बई ईलाखे के काठियावाड प्रदेश के गोहेलवाड प्रांत में, पालीताणा नामक एक छोटीसी देशी रियासत की राजधानी के पास है। इस का स्थान, भूगोल में, २१ अंश, ३१ कला, १० विकला उत्तर अक्षांश और ७१ अंश, ५३ कला, २० विकला पूर्व देशान्तर, हैं। पालीताणा एक कस्बा है जिस में सन् १८९१ * की मनुष्य गणना के * सन् १९११ की मनुष्य-गणना के संख्याक न मिलने के कारण यहाँ पर १८९१ के सन के दिये हैं। 2010_02 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घात समय १०४४२ मनुष्य बसते थे; जिन में ६५८६ हिन्दू, १९५७ जैन १८७८ मुसलमान २० कृस्तान और १ पारसी था। कस्बे में राजकीय कुछ मकानों को छोड कर शेष सब जितने बड़े बड़े मकान हैं वे सब जैनसमाज के हैं। शहर में सब मिला कर कोई ४० के लगभग तो यात्रियों के ठहरने की धर्मशालायें हैं जिनमें लाखो यात्री आनंदपूर्वक ठहर सकते हैं। इन धर्मशालाओं में से कितनी ही तो लाखों रुपये की लागत की है और देखने में बडे बडे राजमहालयों सरीखी लगती हैं। विद्यालय, पुस्तकालय, औषधालय, आश्रम, उपाश्रय और मंदिर आदि और भी अनेक जैन संस्थायें शहर में बनी हुई है जिन के कारण यह छोटासा स्थान भी एक रमणीय शहर लगता है। यात्रियों के सतत आवागमन के कारण सदा ही एक मेला सा बना रहता है। जैनसमाज अपने धार्मिक कार्यों में कितना धन व्यय करती है यह जिसे जानना हो उसे एक सप्ताह इस शहर में बिताना चाहिए जिससे जैन लोकों की उदारता का ठीक ठीक ख्याल आ जायगा। यहाँ पर प्रतिवर्ष न जाने कितने ही लाख रुपये, धर्मनिमित्त खर्च होते होंगे। ___ पालीताणा शहर में मील डेढ मील के फासले पर, पश्चिम की तरफ सुप्रसिद्ध शत्रुजय नामक पर्वत है। शहर से पर्वत की उपत्यका तक पक्की सडक बनी हुई है और दोनों तरफ वृक्षों की पंक्तियें लगी हुई हैं। इस पर्वत के सिद्धाचल, विमलाचल और पुण्डरिकगिरि आदि और नाम भी जैनसमाज में प्रचलित है। जैनग्रंथों में इस के २१ या १०८ तक भी नाम लिखे हुए मिलते हैं ! समुद्र के जलसे यह १९८० फीट ऊँचा है। पहाड कोई बहुत बड़ा या विशेष रमणीय नहीं है। परंतु जैनग्रंथ, माहात्म्य में इसे संसार भर के स्थानों से अत्यधिक बताते हैं। यों तो सेंकडों ही ग्रंथों में इस पर्वत की पवित्रता और पूज्यता का उल्लेख मिलता है परंतु धनेश्वर नाम के एक आचार्य का बनाया हुआ शत्रुज्य-माहात्म्य नाम का एक खास बडा ग्रंथ ही संस्कृत में, 2010_02 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घात इस पर्वत की महिमाविषयक विद्यमान है। इस ग्रंथ में, इस पहाड का बहुत ही अलौकिक वर्णन किया गया है। हिन्दुधर्म में जिस तरह सत्ययुग, कलियुग आदि प्रवर्तमान काल के ४ विभाग माने हुए हैं वैसे जैनधर्म में भी सुषमारक, दुःषमारक आदि ६ विभाग माने गये हैं। इन आरकों के अनुसार भारतवर्ष की प्रत्येक वस्तुओं के स्वभाव और प्रमाण आदि में परिवर्तन हुआ करते हैं। इस निमायानु सार शत्रुजय पर्वत के विस्तृत्व और उच्चत्व में भी परावर्तन होता रहेता हैं। माहात्म्य में लिखा है कि शत्रुज्यगिरि का प्रमाण, प्रथमारक में ८० योजन, दूसरे में ७०, तीसरे में ६०, चौथे में ५०, पाँचवे में १२ और छठे में केवल ७ हाथ जितना होता है। अंग्रेजों के पवित्र स्थान अमोना की तरह प्रलय काल में इस पर्वत का भी सर्वथा नाश न होने का उल्लेख इस माहात्म्य में किया हुआ है। इस पर्वत का पौराणिक-पद्धति पर प्राचीन इतिहास भी, इस माहात्म्य में विस्तारपूर्वक लिखा है। इस काल के तृतीयारक के अंत में जैनधर्म के प्रथम-प्रवर्तक श्री ऋषभदेव भगवान् अवतीर्ण हुए। जैनधर्म में जो २४ तीर्थंकर माने जाते हैं उन में ये प्रथम तीर्थंकर थे। इस कारण इन्हें आदिनाथ भी कहते हैं। जैनमत से, प्रवर्तमान भारतीय मानव-संस्कृति के कर्ता ये ही आदिपुरुष हैं। इन्हों ने अपने जीवन के अंतिम काल में संसार का त्याग कर श्रमणपना अंगीकार किया और अनेक प्रकार की तपश्चर्यायें कर कैवल्य प्राप्त किया। अपनी कैवल्यावस्था में अनेकानेक बार ये शत्रुजय पर्वत पर पधारे और इन्द्रादिकों के आगे इस पर्वत की पूज्यता और पवित्रता का वर्णन किया। भगवान् आदिनाथ के पुत्र चक्रवर्ती भरतराज ने इस पर्वत पर एक बहुत विशाल और परम मनोहर सुवर्णमय मंदिर बनवाया और उस में रत्नमय भगवन्मूर्ति स्थापित की। तब ही से यह पर्वत जैनधर्म में परम-पावन स्थान गिना जाने लगा। भगवान् आदिनाथ के प्रथम 2010_02 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घात गणधर और भरतनृपति के प्रथम पुत्र पुण्डरीक नामक महर्षि पाँचकोटि मुनियों के साथ चैत्री पूर्णिमा के दिन यहाँ पर मुक्त हुओ। इसके स्मरणार्थ प्रतिवर्ष इस पूर्णिमा को आज भी हजारों जैन यात्रार्थ आते हैं। इनके सिवा नमि-विनमी नाम के विद्याधर दो करोड मुनियों के साथ, द्रविड और वारिखिल्य नाम के दो भाई दश करोड मुनियों के साथ, भरतराज और उनके उत्तराधिकारी असंख्य नृपति, रामभरतादि तीन करोड मुनि, श्रीकृष्ण के प्रद्युम्न और शाम्ब आदि साढे आठ करोड कुमार, वीस करोड मुनि सहित पांडव भ्राता और नारदादि ९१ लाख मुनि यहाँ पर मुक्ति को पहुंचे हैं। और भी हजारों ऋषि-मुनि इस पर्वत पर तपश्चर्या कर निर्वाण प्राप्त हुए हैं। अनादि काल से असंख्य तीर्थंकर और श्रमण यहाँ पर मोक्ष को गये हैं और जायेगें। एक नेमिनाथ तीर्थंकर को छोड़कर शेष सब २३ ही तीर्थंकर इस गिरि का स्पर्श कर गये हैं। इस कारण यह तीर्थं संसार में सब से अधिक पवित्र हैं। जो मनुष्य भावपूर्वक एक बार भी इस सिद्धिक्षेत्र का स्पर्श कर पाता है वह तीन जन्म के भीतर अवश्य ही मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इस तीर्थं में जो पशु और पक्षी रहते हैं वे भी जन्मान्तरों में मुक्त हो जायेंगे। यहाँ तक लिखा है कि मयूरसर्पसिंहाद्या हिंस्रा अप्यत्र पर्वते। सिद्धाः सिध्यन्ति सेत्स्यन्ति प्राणिनो जिनदर्शनात्॥ वाल्येपि यौवने वायें तिर्यक्जातौ च यत्कृतम्। तत्पापं विलयं याति सिद्धाद्रेः स्पर्शनादपि॥ अर्थात्-मयूर, सर्प और सिंह आदि जैसे क्रूर और हिंसक प्राणी भी, जो इस पर्वत पर रहते हैं, जिन-देव के दर्शन से सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं। तथा बाल, यौवन और वृद्धावस्था में या तिर्यंज्ञ जाति में जो पाप किया हों वह इस पर्वत के स्पर्श मात्र से ही नष्ट हो जाता है। 2010_02 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घात इस प्रकार बहुत कुछ इस गिरि का, इस ग्रंथ में माहात्म्य लिखा हुआ है। भरतराज ने इस गिरि पर जो कांचनमय मंदिर बनाया था उस का पुनरुद्धार पीछे से अनेक देव और नृपतियों ने किया। पुराण युग में किये गये ऐसे १२ उद्धारों का तथा कुछ ऐतिहासिक युग के भी उद्धारो का वर्णन इस माहात्म्य में लिखा हुआ है। भरतादिकों ने जो रत्नमय और पिछले उद्धारकों ने जो कांचनमय या रजतमय जिन प्रतिमायें प्रतिष्ठित की थीं उन्हें, अन्य उद्धारकोंने, भावी काल की नि:कृष्टता का ख्याल कर, पर्वत के किसी गुप्त गुहा-स्थान में स्थापित कर देने का जिक्र भी माहात्म्यकार ने स्पष्ट कर दिया है। और लिखा है कि वहाँ पर-उन गुप्त स्थानों में आज भी उन प्रतिमाओं की देवता निरंतर पूजा किया करते हैं ! पुराण-युग के १२ उद्धारों की नामावली इस प्रकार है १-आदिनाथ तीर्थंकर के समय में भरत राजा का उद्धार। २-भरतराज के आठवे वंशज दंडवीर्य राजा का उद्धार । ३-सीमन्धर तीर्थंकर के उपदेश से ईशानेन्द्र का उद्धार । ४-माहेन्द्र नामक देवेन्द्र का उद्धार। ५-पाँचवे इन्द्र का उद्धार। ६-चमरेन्द्र का उद्धार। ७-अजितनाथ तीर्थंकर के बारे में सगर चक्रवर्ती का उद्धार। ८-व्यन्तरेन्द्र का उद्धार। ९-चन्द्रप्रभु तीर्थंकर के समय में चन्द्रयशा नृप का उद्धार । १०-शान्तिनाथ तीर्थंकर के पुत्र चक्रायुद्ध का उद्धार। ११-मुनिसुव्रतस्वामी के शासन में रामचन्द्र का उद्धार। १२-नेमिनाथ तीर्थंकर की विद्यमानता में पाण्डवों का उद्धार। 2010_02 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घात ऐतिहासिक-युग के उद्धारों में जावड-शाह का उद्धार मुख्यतया इस माहात्म्य में वर्णित है। सर अलेक्झान्डर किन्लॉक फॉर्बस (Honble Alexander Kinloch Forbes) साहबने अपनी 'रासमाला' नामक गुजरात के इतिहास की सुप्रसिद्ध पुस्तक में भी इस उद्धार का वर्णन उध्दृत किया है जो यहाँ पर दिया जाता है। "जिस समय सुप्रसिद्ध नृपति विक्रमादित्य इस भारत-भूमि को ऋणमुक्त कर रहे थे उस समय भावड नामक एक दरिद्र-श्रावक भावल नामक अपनी भार्या सहित काम्पिल्यपुर नामक स्थान में रहता था। एक समय दो जैनमुनि उस के घर भिक्षार्थ आए। भावल ने उन्हें शुद्ध और निर्दोष आहार का भावपूर्वक दान दिया और बाद में अपनी दरिद्रावस्था के विषय में कुछ प्रश्न किया। मुनिने कहा:-एक उत्तम जाति की घोडी तुमारे घर पर बिकने आयगी उसे तुम ले लेना। उस घोडी के कारण तुमारी दरिद्रता नष्ट हो जायगी। यह कह कर मुनि अपने स्थान पर चले गये। भावल ने अपने पति भावड से मुनियों का कथन कह सुनाया। थोडे ही दिन में एक घोडी उस के घर पर आइ जिसे उसने खरीद लिया। उस की उसने अच्छी संभाल रखी। कुछ समय बाद उसने एक उत्तम लक्षण वाल घोडे को जन्म दिया। योग्य उम्र में आ जाने पर, एक राजा के पास उसे बेच दिया। राजाने उस के मूल्य में ३ लाख रुपये दिये। इन रुपयों द्वारा भावड ने बहुत से अच्छे अच्छे घोडे खरीद किये और उन्हें अच्छी तरह तैयार कर महाराज विक्रमादित्य के पास ले गया। राजा ने उन घोडों को लेकर उसके बदले में मधुवती (हाल में जिसे महुवा-बंदर कहते हैं और जो शजय से दक्षिण की ओर २०-२५ मील दूर पर है) गाँव भावड को इनाम में दिया। वहाँ पर भावड के एक पुत्र हुआ जिस का नाम जावड रक्खा गया। कुछ समय बाद भावड मर गया और जावड अपने पिता की संपत्ति का मालिक बना। एक समय, म्लेच्छ लोगों 2010_02 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घात का बड़ा भारी हमला समुद्र द्वारा आया और सौराष्ट्र, लाट कच्छ वगैरह देशों को खूब लूटा। इन देशों की बहुत सी संपत्ति के साथ कितने ही बाल-बच्चों तथा स्त्री-पुरुषों को भी पकड कर वे अपने देश में ले गये । दुर्भाग्यवश जावड भी उन्हीं में पकडा गया । जावड बडा बुद्धिशाली और चतुर व्यापारी था इस लिये वह अपने कौशल से उन म्लेच्छों को प्रसन्न कर वहीं स्वतंत्र रूप से रहने लगा और व्यापार चलाने लगा। व्यापार में उसे थोड़े ही समय में बहुत द्रव्य प्राप्त हो गया। वह उस म्लेच्छ - भूमि में भी अपने स्वदेश की ही समान जैनधर्म का पालन करने लगा। वहाँ पर एक सुंदर जैनमंदिर भी उसने बनाया । जो कोई अपने देश का मनुष्य वहां पर चला आता था उसे जावड सर्वप्रकार की सहायता देता था । इस से बहुत सा जैनसमुदाय वहाँ पर एकत्र हो गया था । इसी समय कोई जैन मुनि उस नगर में जा पहुँचे। जावड ने उन का बडे हर्षपूर्वक सत्कार किया। प्रसंगवश मुनिमहाराज ने शत्रुंजयतीर्थ का हाल सुनाया और म्लेच्छों ने उस को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है इस लिये पुनरुद्धार करने की आवश्यकता बताई । जावड ने अपने सिर इस कार्य को लिया । एक महिने की तपश्चर्या कर चक्रेश्वरी देवी का आराधन किया। देवी ने प्रसन्न हो कर कहा - 'तक्षशिला नगरी में, जगन्मल्ल नामक राजा के पास जाकर, वहाँ के धर्मचक्र के अग्रभाग में रहा हुआ जो अर्हदबिम्ब है, उसे ले जाकर शत्रुंजय पर स्थापन कर ।' देवी के कथनानुसार जावड तक्षशिला में गया और राजा की आज्ञा पा कर धर्मचक्र में रही हुई ऋषभदेव तीर्थंकर की प्रतिमा को तीन प्रदक्षिणा देकर उठाई। महोत्सव के साथ उस प्रतिमा को अपने जन्म-स्थान मधुमती में लाया । जावड ने बहुत वर्षों पहले, म्लेच्छ देश में से बहुत से जहाज, माल भरकर चीन वगैरह देशों को भेजे थे वे समुद्र में घूमते फिरते इसी समय मधुमती नगर के किनारे आ लगे। ये जहाज माल बेच कर उस के 2010_02 ७ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घात बदले में सुन्ना भरकर लाये थे। जावड को इनकी खबर सुनकर बहुत खुशी हुई। सब जहाज वहीं पर खाली कर लिये गये। जैनसंघ के आचार्य श्रीवज्रस्वामी भी इस समय मधुमती में पधारे। उनकी अध्यक्षता में जावड ने वहाँ से बडा भारी संघ निकाला और उस भगवत्प्रतिमा को लेकर शत्रुजय के पास पहुँचा। आचार्य श्रीवज्रस्वामी के साथ जावड सारे ही संघ समेत गिरिराज पर चढने लगा। असुरों ने रास्ते में कितने ही उपद्रव और विघ्न किये जिनका शान्तिकर्म द्वारा श्रीवज्रस्वामी ने निवारण किया। ऊपर जाकर देखा तो सर्वत्र हड्डी वगैरह अपवित्र पदार्थ पड़े हुए थे। मन्दिरों पर बेसुमार घास ऊगी हुई थी। शिखर आदि टूट फूट गये थे। तीर्थ की यह अधमावस्था देख कर संघपति और संघ बडा खिन्न हुआ। जावड ने पहले सब जगह साफ करवाई। शत्रुजयी नदी के जल से सर्वत्र प्रक्षालन करवाया। मन्दिरों का स्मारक काम बनवा कर तक्षशिला से लाई हुई प्रतिमा की स्थापना की। उस कार्य में असुरों ने बहुत कुछ विघ्न डाले परंतु श्रीवज्रस्वामी ने अपने दैवी सामर्थ्य से उन सब का निवारण किया। प्रतिष्ठादिक कार्यों में जावड़ ने अगणित धन खर्च किया। मन्दिर के शिखर पर ध्वजारोपण करने के लिये जावड स्वयं अपनी स्त्री सहित शिखर पर चढा। ध्वजारोपण किये बाद सर्व कार्यों की पूर्णाहूति हुई समझ कर और अपने हाथों से इस महान् तीर्थ का उद्धार हुआ देख कर दोनों (दम्पति) के हर्ष का पार नहीं रहा। वे आनन्दावेश में आकर वहीं पर नाचने लगे जिससे शिखर पर से नीचे गिर पडे। मर्मांतक आघात लगने के कारण, तत्काल शरीर त्याग कर उनका उन्नत आत्मा स्वर्ग की ओर प्रस्थित हो गया। जावड के पुत्र जाजनाग और संघ ने इस विपत्ति का बडा दु:ख मनाया। परन्तु आचार्य महाराज के उपदेश से सब शान्तचित्त हुए। जावड ने इस तीर्थ की रक्षा के लिये और भी अनेक प्रबन्ध करने चाहे थे परंतु भवितव्यता के आगे वे विफल गये। इस कारण आज भी जो कार्य 2010_02 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घात पूर्णता को नहीं पहुँचता उसके विषय में 'यह तो जावड भावड कार्य है !' ऐसी लोकोक्ती इस देश में (गुजरात और काठियावाड में) प्रचलित है । " जावड शाह के इस उद्धार की मीति विक्रम संवत १०८ दी गई है । इस उद्धार के बाद के एक और उद्धार का भी इस माहात्म्य में उल्लेख है। यह संवत ४७७ में हुआ था । इस का कर्ता वल्लभी का राजा शिलादित्य था । जावड शाह के उद्धार बाद सौराष्ट्र और लाट आदि देशो में बौद्धधर्म का विशेष जोर बढने लगा । परवादियों के लिये दुर्जय ऐसे बौद्धाचार्यो ने इन देशों के राजाओं को अपने मतानुयायी बनाये और उनके द्वारा जैनधर्म को देशनिकाल दिलवाया । जैनों के जितने तीर्थ थे उन पर बौद्धाचार्यों ने अपना दखल जमाया और उन में अर्हतों की मूर्तियों की जगह बुद्धमूर्तियें स्थापित की। शत्रुंजय तीर्थ पर भी उन्हों ने वैसा ही वर्ताव किया। कुछ समय बाद चंद्रगच्छ में धनेश्वरसूरि नाम के एक तेजस्वी जैनाचार्य हुए। उन्होंने वल्लभी के राजा शिलादित्य को प्रतिबोध किया और उसे जैन बनाया । राजा ने बौद्धों के अत्याचारों से रुष्ट हो कर उन्हें देशनिकाल किया धनेश्वरसूरि ने यह शत्रुंजय महात्मय बनाया * । इस का श्रवण कर शिलादित्य ने शत्रुंजय का पुनरुद्धार करवाया और ऋषभदेव भगवान की नई मूर्ति प्रतिष्ठित की। इस प्रकार ऐतिहासिक - युग के इन दो उद्धारों का वर्णन इस माहात्म्य में हैं । इस माहात्म्य के सिवा, इस तीर्थ के दो कल्प भी मिलते हैं जिनमें का एक प्राकृत में है और दूसरा संस्कृत में । प्राकृत-कल्प के कर्ता तपागच्छ के आचार्य धर्मघोषसूरि हैं और संस्कृत के कर्ता * ऐतिहासिक विद्वान इस के कर्तृत्व विषय में शंकाशील हैं। वे इसे आधुनिक ad हैं। 'बृहट्टिनिका' के लेखक का भी यही मत है। हमने केवल माहात्म्य की दृष्टि से इस का उल्लेख किया है, इतिहास की दृष्टि से नहीं । 2010_02 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घात खरतरगच्छ के जिनप्रभसूरि । शत्रुंजय - माहात्म्य में जिन बातों का विस्तृत वर्णन है, इन कल्पों में उन सब का संक्षिप्त सूचन मात्र है । इन कल्पों में यह भी लिखा है कि इस तीर्थ पर्वत पर अनेक प्रकार के रत्नों की खानें हैं, नाना तरह की चित्र विचित्र जडीबुट्टियें हैं, कई रसकुंपिकायें छीपी हुई है और गुप्त गुहाओं में, पूर्व काल के उद्धारकों की करवाई हुई रत्नमय तथा सुवर्णमय जिनप्रतिमायें, देवताओं द्वारा सदा पूजित रहती हैं । १० प्रभावक आचार्यो द्वारा शत्रुंजय का इस प्रकार, अलौकिक और आश्चर्यकारक माहात्म्य कहे जाने के कारण जैन प्रजा की इस तीर्थ पर सेंकडों वर्षों से अनुपम आस्था रही हुई है । यही कारण है कि, अन्यान्य सेंकडों बडे बडे तीर्थो का नाम जैनप्रजा जब सर्वथा भूल गई है तब, अनेकानेक विपत्तियों के उपस्थित होने पर भी आज तक इस तीर्थ का वैसा ही गौरव बना हुआ है। परमार्हत महाराज कुमारपाल के समय, कि जब जैनप्रजा भारतवर्ष के प्रजागण में सर्वोच्च स्थान पर विराजित थी तब, जैसा इस तीर्थ पर द्रव्यव्यय कर रही थी वैसा ही आज भी कर रही है। मतलब यह कि देश पर अनेक विप्लव, अनेक अत्याचार, अनेक कष्ट और आपदायें आ जाने पर भी, यह तीर्थ जो वैसा का वैसा ही तैयार होता रहा है इसका कारण केवल जैनप्रजा की हार्दिक भक्ति ही है। जैनों ने इस तीर्थ पर, जितना द्रव्य खर्च किया है उतना संसार के शायद ही किसी तीर्थ पर, किसी प्रजा ने किया होगा। अलेक्सान्डर फार्बस साहब ने, रासमाला में, यथार्थ ही लिखा है कि- "हिन्दुस्तान में, चारों तरफ से - सिंधु नदी से लेकर पवित्र गंगानदी तक और हिमालय के हिम-मुकुटधारी शिखरों से तो उसकी कन्याकुमारी, जो रुद्र के लिये अर्द्धांगना तया सर्जित हुई है, उसके भद्रासन पर्यंत के प्रदेश में एक भी नगर ऐसा न होगा जहाँ से एक या दूसरी बार, शत्रुंजय पर्वत के शंग को शोभित करनेवाले मंदिरों को द्रव्य की विपुल भेंटे न आई हों।" (RAS-MALA VOL, I.Page 6) 2010_02 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ उपोद्घात इस तीर्थ में पूज्यबुद्धि रखने वाले जैनसमाज में ऐसे विरल ही मनुष्य मिलेंगे जो जीवन में एक बार भी इस तीर्थ की यात्रा न कर गये हों या न करना चाहते हों। हजारों मनुष्य तो ऐसे हैं जो वर्षभर में कई दफे यहाँ हो जाते हैं। हिंदुस्तान में रेल्वे का प्रचार होने के पूर्व यात्रियों को दरदेश की मुसाफिरी करनी इतनी सहज न थी जितनी आज है। उस समय बडी बडी कठिनाइये रास्ते में भुगतनी पडती थी, कई दफे लुटेरों और डाकुओं द्वारा जान-माल तक भी लूटा जाता था, राजकीय विपत्तियों में बेतरह फंस जाना पडता था, तो भी प्रतिवर्ष लाखों लोग इस महातीर्थ की यात्रा करने के लिये अवश्य आया जाया करते थे। उस जमाने में, वर्तमान समय की तरह छूटे छूटे मनुष्यों का आना बडा ही कठिन और कष्टजन्य था इस लिये सेंकडों-हजारों मनुष्यों का समुदाय एकत्र हो कर और शक्य उतना सब प्रकार का बन्दोबस्त कर के आते जाते थे। इस प्रकार के यात्रियों के समुदाय का 'संघ' के नाम से व्यवहार होता था। उस पिछले जमाने में प्रायः जितने अच्छे धनिक और वैभवशाली श्रावक होते थे वे अपने जीवन में, संपत्ति अनुसार धन खर्च कर, अपनी और से ऐसे एक दो या उस से भी अधिक वार संघ निकालते थे और साधारण अवस्था वाले हजारों श्रावकों को अपने द्रव्य से इस गिरिराज की यात्रा कराते थे। गूर्जर महामात्य वस्तुपालतेजपाल जैसोंने लाखों-लाखों क्यों करोडों-रुपये खर्च कर कई बार संघ निकाले थे। उन पुराणे दानवीरों की बात जाने दीजिए। गत १९वीं शताब्दी के अंत में तथा इस २०वीं के प्रारंभ में भी ऐसे कितने ही भाग्यशालियों ने संघ निकाले थे जिन में लाखों रुपये व्यय किये गये थे। संवत् १८९५ में, जेसलमेर के * पटवों ने जो संघ निकाला था उस में कोई १३ लाख रुपये खर्च हुए थे। अहमदाबाद की हरकुंअर शेठाणी के संघ में भी कई लाख लगे थे। * इस संघ का संपूर्ण वृत्तान्त जानने के लिये देखो पढवों के संघ का इतिहास नामक मेरी पुस्तक। 2010_02 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घात शत्रुजय-माहात्म्य में संघ निकाल कर इस गिरीश्वर की यात्रा करनेकराने में बडा पुण्य उत्पन्न होना लिखा है और जो* संघपतिपद प्राप्त करता है उस का जन्म सफल होना माना गया है। संघपति पद की बहुत ही प्रशंसा की गई है। लिखा है कि ऐन्द्रं पदं चक्रिपदं श्लाघ्यं श्लाध्यतरं पुनः। संघाधिपपदं ताभ्यां न विना सुकृतार्जनात्॥ अर्थात्-इन्द्र और चक्रवर्ती के पद तो जगत् में श्रेष्ठ है ही परंतु 'संघपति' का पद इन दोनों से अधिक उच्च है जो बिना सुकृत के प्राप्त नहीं होता। इस श्रेष्ठता के कारण जिन के पास पूर्वपूण्य से यथेष्ट संपत्ति विद्यमान होती है वे इस पद को प्राप्त करने की अभिलाषा रखें यह स्वाभाविक ही है। सचमुच ही जो मनुष्य शास्त्रोक्त रीति से भावपूर्वक संघ निकालता है वह अवश्य ही महत्पूण्य उपार्जन करता है। सच्चा संघपति केवल उदारता ही के कारण नहीं बनता परंतु न्याय, नीति, दया और इन्द्रियदमन आदि और भी अनेकानेक उत्तम गुणों को धारण करने के कारण बनता है। पिछले जमानों में मंत्री बाहड, वस्तुपाल-तेजपाल, जगडू शाह, पेथड शाह, समरा शाह आदि असंख्य श्रावकों ने ऐसे संघ निकाल कर अगणित सुकृत उपार्जन किया है। * जो संघ निकालता है उसे चतुर्विध समुदाय की ओर से 'संघपति' का पद समर्पित किया जाता है जो उसके भावी वंशज भी उस पदका मान प्राप्त करते रहते हैं। जैनप्रजा में बहुत से कुटुम्बों की जो 'संघवी' अटक है वह इसी 'संघपति' शब्द का अपभ्रष्ट रूप है। किसी पूर्वज के संघ निकालने के कारण यह पद उस कुटुम्ब को प्राप्त हुआ होता है। 2010_02 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक वृत्तान्त शत्रुजय पर्वत का प्राचीन परिचय कराकर अब हम पाठकों को इस के ऊपर ले चलते हैं और वर्तमान समय में जो कुछ विद्यमान हैं उस का कुछ थोडा सा अभिज्ञान कराते हैं। ___ पालीताणा शहर में से जो सडक शत्रुजय की और जाती है वह पहाड के मूल तक पहुंचती है । इस स्थान को 'भाथा तलेटी' कहते हैं । यहां पर एक दो मकान बने हुए हैं, जिन में जो यात्री पर्वत की यात्रा कर वापस लौटता है, उसे विश्रान्ति लेने के लिये अच्छा आश्रय मिलता है । प्रत्येक यात्री को लगभग पावभर का एक मोतीचूर का लड्डु और थोडे से बेसन के सेव खाने के लिये दिये जाते हैं । इनको खा कर और ऊपर ठंडा जल पी कर थके हुए यात्री बहुत कुछ आश्वासन पाते हैं । इसको गुजराती बोली में 'भाथा' कहते हैं । इसी के नाम पर यह स्थान 'भाथा तलेटी' कहा जाता है । जो त्यागी ठंडा-(कच्चा) पानी नहीं पीते उनके लिये पानी गरम कर के ठारा हुआ भी तैयार रहता है । इक्के, गाडी, घोडे आदि वाहन यहीं तक चल सकते हैं । यहां से पहाड का चढाव शुरू होता है । चढते समय दाहनी तरफ बाबू का विशाल मंदिर मिलता है । यह मंदिर बंगाल के मुर्शिदाबादवाले सुप्रसिद्ध रायबहादुर बाबू धनपतसिंह और लक्ष्मीपतिसिंह ने अपनी माता महेताबकुंअर के स्मरणार्थ बनाया है । संवत् १९५० में, अपने बड़े रिसाले के साथ आकर बाबूजी ने बडी धामधूम से इसकी प्रतिष्ठा कराई है । इस मंदिर में बाबूजी ने बहुत धन खर्च किया है । मंदिर बडा सुशोभित और खूब सजा हुआ है । उक्त बाबूजी ने अनेक धर्मकृत्य किये हैं और उनमें लाखों रुपये बडी उदारता के साथ व्यय किये हैं । उन्होंने कोई दो-ढाई लाख रुपये खर्च कर जैन सूत्रों को भी छपवाया था । ये सूत्र सब स्थानों में, 2010_02 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ आधुनिक वृत्तान्त सन्दूकों में भर भर कर भेज दिये गये थे । जितने बचे हैं, वे इस मंदिर में- एक स्थान में, रक्खे हुए हैं । जिनको जरूरत होती है उन्हें, यदि योग्य समझा तो, मुफ्त दिये जाते हैं । __पर्वत के चढाव का वर्णन जैनहितैषी के सुयोग्य सम्पादक दिगम्बर विद्वान् श्रीयुत नाथूरामजी प्रेमी ने अपने एक लेख में, संक्षेप में परंतु बडी अच्छी रीति से, लिखा है जो यहां पर उद्धृत किया जाता है । ___ "इस टोंक को छोडकर कुछ ऊँचे चढने पर एक विश्रामस्थल मिलता है, जिसे 'धोली परब का विसामा' कहते हैं । यहां पानी की एक प्याऊ (प्रपा) लगी है । इस तरह के विश्रामस्थलों, प्रपाओं, कुंडों तथा जलाशयों का प्रबन्ध थोडी थोडी दूर पर सारे ही पर्वत पर हो रहा है । इन से यात्रियों को बहुत आराम मिलता है । धूप और शक्ति से अधिक परिश्रम से व्याकुल हुए स्त्री-पुरुष इस प्रपाओं के शीतल जल को पी कर मानो खोई हुई शक्ति को फिर से प्राप्त कर लेते हैं । इस प्याऊ के समीप ही एक छोटी सी देहरी है, जिसमें भरत चक्रवर्ती के चरण स्थापित हैं । इनकी स्थापना वि.सं. १६८५ में हुई है । इस तरह की हरियां जगह जगह बनी हुई हैं, जिनमें कहीं चरण ओर कहीं प्रतिमायें स्थापित हैं ।" __ "आगे एक जगह कुमारपाल-कुण्ड और कुमारपाल का विश्राम स्थल है । कहते हैं कि यह गुजरात के चालुक्य वंशीय राजा कुमारपाल का बनवाया हुआ है ।" । ___ "जब पर्वत की चढाई लगभग आधी रह जाती है, तब हिंगलाज देवी की देहरी मिलती है । यहां एक बूढा ब्राह्मण बैठा रहता है, जो बडे जोर से चिल्लाकर कहता है कि - "आदीश्वर भगवान के इतने करोड पुत्र सिद्धपद को प्राप्त हुए हैं," और देवी को कुछ चढाते जाने के लिये सब को सचेत करता रहता है । भोले लोग समझते ___ 2010_02 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक वृत्तान्त १५ कि हिंगलाज की पूजा करने से पर्वत के चढने में कष्ट नहीं होता है ! यहां से चढाई बिलकुल खडी और ठाँठी होने के कारण कुछ कठिन है ।" "आगे सबसे अन्तिम टेकरी पर हनुमान की देहरी मिलती है । इसमें सिन्दूरलिप्त वानराकार हनुमान की मूर्ति बिराजमान् है । इसी प्रकार की गणेश, भवानी आदि हिन्दु देव-देवियों की मूर्तियाँ और भी कई जगह स्थापित हैं । इन की स्थापना पर्वत के ब्राह्मण पुजारियों या सिपाहीयों ने की होगी ।" । "यहाँ से आगे दो रास्ते निकले हैं । (एक सीधा बडी टोंक को जाता है और दूसरा सब टोंको में होकर वहां जाता है ।) दाहनी ओर के रास्ते से पहले कोट के भीतर जाना होता है । यहाँ एक झाड के नीचे एक मुसलमान पीर की कब्र बनी हुई है । इसके विषय में एक दन्तकथा प्रचलित है कि- "अंगारशा नामका एक करामाती फकीर था । वह जब जीता था तब पाँच भूतों को अपने काबू में रख सकता था । उसने एक बार गर्वित होकर आदिनाथ भगवान की प्रतिमा पर कुछ उत्पात मचाया, इससे किसीने उसे मार डाला । मर कर वह पिशाच हुआ । और मंदिर के पूजारियों को तरह तरहकी तकलीफें देने लगा और आखिर इस शर्त पर शान्त हुआ कि इस स्थान पर मेरी हड्डियाँ गडाइ जायँ ।" लाचार होकर लोगों ने वहां उसकी कब्र बना दी । कर्नल टॉड साहब को इस प्रवाद पर विश्वास नहीं है । वे कहते हैं कि हिन्दु लोग इस प्रकार की दन्तकथायें गढ लेने में बड़े ही सिद्धहस्त हैं । यदि कभी किसी मौके पर उनके धर्म का अपमान हो और वे अपने प्रतिपक्षी से टक्कर न ले सकें तो वे उस अपमान को दूर करने के लिये इसी हिकमत को काम में लाया करते हैं। इस विषय में श्रावक लोगों में जो प्रवाद चला आ रहा है, वह 2010_02 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ आधुनिक वृत्तान्त अवश्य ही कुछ ठीक जान पडता है । प्रवाद यह है कि बादशाह अलाउद्दीन के समय में श्रावकों ने अपनी रक्षा के लिये यह कब्र बनवाई थी । एक मुसलमान फकीर की कब्र के कारण-जो की बहुत ही पूज्य समझा जाता था-बहुत संभव है कि मुसलमानों ने इस पवित्र तीर्थ पर उत्पात मचाना उचित न समझा हो । शुरू से यह स्थान श्रावकों के ही अधिकार में चला आता है ।" "पर्वत की चोटी के दो भाग हैं । ये दोनों ही लगभग तीन सौ अस्सी अस्सी गज लम्बे हैं और सर्वत्र ही मन्दिरमय हो रहे हैं । मन्दिरों के समूह को टोंक कहते हैं । टोंक में एक मुख्य मंदिर और दूसरे अनेक छोटे छोटे मंदिर होते हैं । यहां की प्रत्येक टोंक एक एक मजबूत कोट से घिरी हुई है । एक एक कोट में कई कई दरवाजे हैं । इनमें से कई कोट बहुत ही बडे बडे हैं । उनकी बनावट बिलकुल किलों के ढंग की है । टोंक विस्तार में छोटी बडी हैं । अन्त की दशवीं टोंक सबसे बडी है । उसने पर्वत की चोटी का दूसरा हिस्सा सब का सब रोक रक्खा है ।" __ "पर्वत की चोटी के किसी भी स्थान में खडे होकर आप देखिए, हजारों मंदिरों का बडा ही सुन्दर, दिव्य और आश्चर्यजनक दृश्य दिखलाई देता है । इस समय दुनिया में शायद ही कोई पर्वत ऐसा होगा, जिस पर इतने सघन, अगणित और बहुमूल्य मंदिर बनवाये गये हों । मंदिरों का इसे एक शहर ही समझना चाहिए । पर्वत के बहिः प्रदेशों का सुदूर-व्यापी दृश्य भी यहां से बडा ही रमणीय दिखलाई देता है ।" फार्बस साहब ‘रासमाला' में लिखते हैं कि - "शत्रुजय पर्वत के शिखर ऊपर से, पश्चिम दिशा की ओर देखते, जब आकाश निर्मल और दिन प्रकाशमान होता है तब, नेमिनाथ तीर्थंकर के कारण पवित्रता 2010_02 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक वृत्तान्त १७ को पाया हुआ रमणीय पर्वत गिरनार दिखाई देता है । उत्तर की तरफ शिहोर के आसपास के पहाड, नष्टावस्था को प्राप्त हुई वल्लभी के विचित्र दृश्यों का शायद ही रुन्धन करते है । आदिनाथं के पर्वत की तलेटी से सटे हुए पालिताणा शहर के मिनारे, जो घनघटा के आरपार, धूप में चलका करते हैं, दृष्टिगोचर होने पर दृश्य के अग्रगामी बनते हैं; और नजर जो है सो चाँदी के प्रवाह समान चमकती हुई शत्रुजयी नदी के बांके चूंके बहते पूर्वीय प्रवाह के साथ धीरे धीरे चलती हुई तलाजे के, सुंदर देवमंदिरों से शोभित पर्वत पर, थोडी सी देर तक जा ठहरती है और वहां से परलीपार जहां प्राचीन गोपनाथ और मधुमती को, ऊछलते समुद्र की लीला करती हुई लहरें आ आकर टकराती हैं, वहां तक पहुंच जाती है ।" __पर्वत पर की सभी टोंकों के इर्द गिर्द एक बडा मजबूत पत्थर का कोट बना हुआ है । कोट में गोली चलाने योग्य भवारियाँ भी बनी हुई हैं । इस कोट के कारण पर्वत एक किले ही का रूप धारण किये हुए है । टोंकों में प्रवेश करने के लिये आखे कोट में केवल दो ही बडे दरवाजे बने हुए हैं । "कोट के भीतर प्रवेश कीजिए कि एक चौक के बाद दूसरा चौक और दूसरे के बाद तीसरा; इसी तरह एक मंदिर के बाद दूसरा मंदिर और दूसरे के बाद तीसरा; चौक और मंदिर मिलते चले जायेंगे । मंदिरो की कारीगरी, उनकी बनावट, उनमें लगा हुआ पत्थर और उनके भीतर की सजावट का सैंकडों प्रकार का सामान आदि सब ही चीजें बहुमूल्य हैं । प्रतिमाओं की तो कुछ गिनती ही नहीं हैं । एक श्रद्धालु भक्त की जिधर को नजर जाती है, उधर ही उसे मुक्तात्माओं के प्रतिबिंब दिखलाइ देते हैं । कुछ समय के लिये तो मानो वह आपको मुक्तिनगरी का एक पथिक समझने लगता है ।" फार्बस साहब भी कहते हैं कि - "प्रत्येक मंदिर के गर्भागार में 2010_02 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ आधुनिक वृत्तान्त आदिनाथ अजितनाथ वगैरह तीर्थंकरों की एक या अधिक मूर्तियें विराजमान हैं । उदासीनवृत्ति को धारण की हुई इन संगमर्मर की मूर्तियों का सुंदर आकार, चाँदी की दीपिकाओं के मंद प्रकाश में अस्पष्ट,, परंतु भव्य दिखाई देता है । अगरबत्तियों की सघन सुगन्धि सारे पर्वत पर व्याप्त रहती है । संगमर्मर के चमकीले फरस पर भक्तिमान स्त्रियें, सुवर्ण के श्रृंगार और विविध रंग के वस्त्र पहन कर जगजगाहट मारती हुई और एकस्वर से, परंतु मधुर आवाज से स्तवना करती हुई, नंगे पैर से धीमे धीमे मंदिरों को प्रदक्षिणा दिया करती है । शत्रुजय पर्वत को सचमुच ही, पूर्वीय देशों की अद्भुत कथाओं के एक कल्पित पहाड की यथार्थ उपमा दी जा सकती है और उसके अधिवासी मानो एकाएक संगमरमर के पूतले बन गये हों, परन्तु अप्सरायें आ कर उन्हें अपने हाथों से स्वच्छ और चमकित रखती हों, सुगन्धित पदार्थों के धूप धरती हों तथा अपने सुस्वर द्वारा देवों के शृंगारिक गीत गा कर हवा को गान से भरती हों; ऐसा आभास होता है ।" __पर्वत पर नौ या दश टोंक हैं । प्रत्येक टोंक में छोटे बड़े सेंकडो मंदिर बने हुए हैं । यदि इन मंदिरों का पूरा पूरा हाल लिखा जाय तो एक बहुत ही बडी पुस्तक बन जाय । इतने मंदिरों का वृत्तान्त लिखना तो बड़ी बात है, गिनती भी करना कठिन है । हम यहाँ पर संक्षेप में केवल नौ टोंकों का उल्लेख कर देते हैं । १ चौमुखजी की टोंक । ___ यह टोंक दो विभागों में बंटी हुई है । बहार के विभाग को 'खरतर-वसही' और अंदर के विभाग को 'चौमुख-वसही' कहते हैं । यह टोंक पर्वत के सबसे ऊँचे भाग पर बनी हुई है । 'चौमुख-वसही' के मध्य में आदिनाथ भगवान का चतुर्मुख प्रासाद (मंदिर) है । यह प्रासाद क्या है मानो एक बडा भारी गढ है । इसकी लंबाई ६३ फूट 2010_02 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक वृत्तान्त और चौडाइ ५७ फूट है । इसका गुंबज ९६ फूट ऊँचा है । मंदिर के पूर्व मंडप है, जिसके पश्चिम ३१ फूट लंबा और इतना ही चौडा एक कमरा है । इस कमरे के दोनों बगलों में चबूतरे पर एक एक द्वार बना हुआ है । मध्य में १२ स्तंभ लगे हैं । इसकी छत गोलगुम्बजदार है । कमरे में होकर गर्भागार में, जो २३ फूट लंबा और उतना ही चौडा है, जाया जाता है । इसमें मूर्ति के सिंहासन के कोनों के पास ४ विचित्र खम्भे लगे हैं । फर्श से ५६ फूट ऊँचा मूर्ति के बैठने का स्थान है । चारों ओर ४ बडे बडे द्वार हैं । गर्भागार की दिवार जिस पर मूर्तियाँ बिराजमान है, बहुत ही मोटी है । उसमें अनेक छोटी छोटी कोठारियां बनी हुई हैं । फर्श में नील, श्वेत तथा भूरे रंग के सुन्दर संगमरमर के टुकडे जड़े हुए हैं । गर्भागार में २ फूट ऊंचा, १२ फूट लंबा और उतना ही चौडा श्वेत, संगमर्मर का सिंहासन बना हुआ है । सिंहासन पर श्वेत ही संगमरमर की बनी हुई १० फूट ऊँची आदिनाथ भगवान की ४ मनोहर मूर्तियें पद्मासनासीन हैं । गर्भागार में के चारों ओर के द्वारों में से प्रतिद्वार की ओर एक एक मूर्ति का मुख है, इसलिये यह मंदिर 'चौमुखवसही' के नाम से प्रसिद्ध है । यह मंदिर, एक तो पर्वत के ऊंचे भाग पर होने से और दूसरा स्वयं बहुत ऊँचा होने से, आकाश के स्वच्छ होने पर २५-३० कोस की दूरी पर से दर्शकों को दिखलाई देता है । इस टोंक को अहमदाबाद के सेठ सोमजी सवाईने संवत् १६७५ में बनाया है । 'मिराते अहमदी' में लिखा है कि, इस मंदिर के बनवाने में ५८ लाख रुपये लगे थे ! लोग कहते हैं कि केवल ८४००० रुपयों की तो रस्सियां ही इसमें काम में आई थीं !! २ छीपावसही की टोंक । यह टोंक छोटी ही है । इसमें ३ बडे बडे मंदिर और ४ छोटी छोटी देहरियां हैं । इसे छीपा (भावसार) लोगों ने बनाई है, इसलिये यह 2010_02 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक वृत्तान्त 'छीपावसही' कही जाती है । इसका निर्माण संवत् १७९१ में हुआ है ! इसके पास एक पांडवों का मंदिर है, जिसमें पांचों पांडवों की, द्रौपदी की और कुन्ती की मूर्तियां स्थापित हैं । जैन धर्म में पांडवों का जैन होना और उनका इस पर्वत पर मोक्ष जाना माना गया है । इसलिये जैन प्रजा उनकी मूर्तियों की भी अपने तीर्थंकरों के समान पूजा करती है । २० ३ साकरचंद प्रेमचंद की टोंक । इसको अहमदाबाद के सेठ साकरचंद प्रेमचंद ने संवत् १८९३ में बनाया है । इसका नाम सेठ के नामानुसार 'साकर - वसही' ऐसा रक्खा गया है । इसमें तीन बडे मंदिर और बाकी बहुत सी छोटी छोटी देहरियां हैं । ४ उजमबाई की टोंक । अहमदाबाद के प्रख्यात नगरसेठ प्रेमाभाई की फूफी उजमबाई ने इस टोंक की रचना की है । इस कारण इसका नाम 'उजमवसही' है । इसमें नंदीश्वरद्वीप की अद्भुत रचना की गई है । भूतल पर छोटे छोटे ५७ पर्वत - शिखर संगमरमर के बनाये गये हैं और उन प्रत्येक पर चौमुख प्रतिमायें स्थापित की हैं । इन शिखरों की चोतरफ सुंदर कारीगरी वाली जाली लगाई गई है । इस मंदिर के सिवा और भी अनेक मंदिर इसमें बने हुए हैं । ५ हेमाभाई सेठ की टोंक । इसको अहमदाबाद के नगरसेठ हेमाभाई ने संवत् १८८२ में बनाया है और ८६ में प्रतिष्ठिति किया है । इसमें ४ बड़े मंदिर और ४३ देहरियां है । 2010_02 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक वृत्तान्त २१ ६ प्रेमचंद मोदी की टोंक । अहमदाबाद के धनिक मोदी प्रेमचंद सेठ ने शत्रुजय तीर्थ की यात्रा करने के लिये एक बड़ा भारी संघ निकाला था । तीर्थ की यात्रा किये बाद उनका दिल भी यहां पर मंदिर बनाने का हो गया । लाखों रुपये खर्च कर यह टोंक बनाई और इसकी प्रतिष्ठा करवाई । इसमें छ बड़े मंदिर और ५१ देहरियां बनी हुई हैं । इस सेठने अपनी अगणित दौलत धर्मकार्य में खर्च की थी । कर्नल टॉड साहब ने अपने पश्चिम भारत के प्रवास वर्णन में लिखा है कि, "मोदी प्रेमचन्द की दौलत का कुछ ठिकाना नहीं था । उसकी कीर्ति ने सम्प्रति जैसे प्रतापी और उदार राजा की कीर्ति को भी ढांक दी है ।" ७ बालाभाई की टोंक । घोघा-बंदर के रहनेवाले सेठ दीपचंद कल्याणजी, जिनका बचपन का नाम बालाभाई था, उन्होंने लाखों रुपये व्यय कर संवत् १८९३ में इस टोंक को बनाया है । इसमें छोटे-बडे अनेक मंदिर अपने उन्नत शिखरों से आकाश के साथ बात कर रहे हैं । इस टोंक के ऊपर के सिरे पर एक मंदिर है, जो "अद्भुत" मंदिर कहा जाता है । इसमें, आदिनाथ भगवान की, पांच सौ धनुष जितने विशाल शरीरमान का अनुकरण करनेवाली मूर्ति है । यह पर्वत ही में से उकीरी गई है । यह प्रतिमा १८ फूट ऊँची है । एक घूटने से दूसरे घूटने तक १४॥ फूट चौडी है । संवत् १६८६ में धरमदास सेठने इसकी अंजनशलाका करवाई है । इसकी वर्ष भर में एक ही बार, बैशाख सुदि ६ के दिन, पूजा की जाती है, जो शत्रुजय के अंतिम उद्धार का (जिसका ही मुख्य वर्णन इस पुस्तक में किया गया है) वार्षिक दिन गिना जाता है । बहुत से अज्ञान लोग इसे भीम की मूर्ति समझकर पूजा करते हैं । यहां पर खडे रहकर पर्वत के शिखर 2010_02 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक वृत्तान्त पर नजर डालने से, सब ही मंदिर मानो पवन से फरकते हुए अपने ध्वजरूप हाथों द्वारा आकाश में संचरण करनेवाले अदृश्य देवों को तथा ज्योतिषों को, अपने गर्भ में बिराजमान अर्हद् बिम्बों को पूजने के लिये आह्वान कर रहे हैं, ऐसा आभास होता है । ८ मोतीशाह सेठ की टोंक । ७५ वर्ष पहले मुंबई में मोतीशाह नाम के सेठ बडे भारी व्यापारी और धनवान् श्रावक हो गये हैं । इन्होंने चीन, जापान आदि दूर दूर के देशों के साथ व्यापार चलाकर अखूट धन प्राप्त किया था । ये एक दफे शत्रुजय की यात्रा करने के लिये संघ निकाल कर आये । उस समय अहमदाबाद के प्रख्यात सेठ हठीभाई भी वहां पर आये हुए थे । शत्रुजय के दोनों शिखरों के मध्य में एक बड़ी भारी और गहरी खाई थी । इसे 'कुन्तासर की खाड' कहा करते थे । मोतीशाह सेठने अपने मित्र सेठ हठीभाई से कहा कि, 'गिरिराज के दोनों शिखर तो मंदिरों से भूषित हो रहे हैं, परंतु यह मध्य की खाई, दर्शकों की दृष्टि में अपनी भयंकरता के कारण, आंख में कंकर की तरह खटकती है । मेरा विचार है कि इसे पूर कर, ऊपर एक टोंक बनवा दूं ।' यह सुनकर हठीभाई सेठने कहा, "पूर्वकाल में जो बड़े बड़े राजा और महामात्य हो गये हैं, वे भी इसकी पूर्ति न कर सके तो फिर तुम इस पर टोंक कसे बना सकते हों ?" मोतीशाह सेठने हँसकर जवाब दिया कि, “धर्म प्रभाव से मेरा इतना सामर्थ्य है कि पथ्थर से तो क्या, लेकिन सीसे की पाटों से और सक्कर के थेलों से इस खाई को मैं पूरा सकता हूं !" बस यह कहकर सेठने उसी दिन, वहां पर टोंक बांधने के लिये संघ से इजाजत ले ली और खड्डा को पूर्ण करने का प्रारंभ कर दिया । थोडे ही दिनों में उस भीषण गर्त को पूर्ण कर ऊपर सुंदर टोंक बनाना आरंभ किया । लाखों रुपयों की लागत 2010_02 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक वृत्तान्त २३ का बहुत ही भव्य और साक्षात् देवविमान के जैसा मंदिर तैयार करवाया । इस मंदिर की चारों ओर सेठ हठीभाई, दिवान अमरचन्द दमणी, मामा प्रतापमल्ल आदि प्रसिद्ध धनिकों ने अपने अपने मंदिर बनवाये । सब मंदिरों के इर्द गीर्द पत्थर का मजबूत किला करवाया । मंदिरों का कार्य पूरा होने आया था कि, इतने में सेठजी का देहान्त हो गया । इससे उनके सुपुत्र सेठ खीमचन्द ने, बडा भारी संघ निकाल कर, शत्रुजय की यात्रा के साथ इस रमणीय टोंक की संवत् १८९३ में प्रतिष्ठा करवाई । यह संघ बहुत ही बडा था । इसमें ५२ गांवों के ओर संघ आकर मिले थे और उन सबका संघपतित्व खीमचंद सेठ को प्राप्त हुआ था ! कहा जाता है कि इस टोंक के बनाने में एक करोड से भी अधिक खर्च हुआ था ! इसमें कोई १६ तो बडे बडे मंदिर हैं और सवा सौ के करीब देहरियां हैं । जहां ७०-८० वर्ष पहले भयंकर गर्त अपनी भीषणता के कारण यात्रियों के दिल में भय पैदा करता था, वहां पर आज देवविमान जैसे सुंदर मंदिरों को देखकर दर्शकों के हर्ष का पार भी नहीं रहता । सचमुच ही संसार में समर्थ मनुष्य क्या नहीं कर दिखाता ? ९ आदिश्वर भगवान की टोंक । शत्रुजयगिरि के दूसरे शिखर पर आदीश्वर भगवान की टोंक बनी हुई है । यह टोंक सबसे बडी है । इस अकेली ने ही पर्वत का सारा दूसरा शिखर रोक रखा है । इस तीर्थ की जो इतनी महिमा है, वह इसी कारण है । तीर्थपति आदिनाथ भगवान का ऐतिहासिक और दर्शनीय मंदिर इसीके बीच में है । बडे कोट के दरवाजे में प्रवेश करते ही एक सीधा राजमार्ग जैसा फर्शबन्ध रास्ता दृष्टिगोचर होता है, जिसकी दोनों ओर पंक्तिबद्ध सेंकडो मंदिर अपनी विशालता, भव्यता और उच्चता के कारण दर्शकों के दिल एकदम अपनी ओर आकृष्ट 2010_02 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ आधुनिक वृत्तान्त करते हैं, जिससे देखनेवाला क्षणभर मुग्ध होकर मंदिरों में विराजित मूर्तियों की तरह स्थिर-स्तंभित सा हो जाता है । जिस मंदिर पर दृष्टि डालो वही अनुपम मालूम होता है । किसीकी कारीगरी, किसीकी रचना, किसीकी विशालता और किसीकी उच्चता को देखकर यात्रियों के मुंह से ओ हो ! ओ हो ! की ध्वनियाँ निकला करती है । महाराज सम्प्रति, महाराज कुमारपाल, महामात्य वस्तुपाल-तेजपाल, पेथडशाह, समरासाह आदि प्रसिद्ध पुरुषों के बनाये हुए महान मंदिर इन्ही श्रेणियों में सुशोभित हैं । __ सर्व साधारण इन मंदिरों को देखकर जिस तरह आनंदित होता है, वैसे प्राचीन सत्यों को ढूंढ निकालने में अति आतुर ऐसी पुरातत्त्ववेत्ता की आंतरदृष्टि में आनंद का आवेश नहीं आकर नैराश्य की निश्चलता दिखाई देती है, यह जानकर अवश्य ही खेद होता है । यद्यपि ये मंदिर अपनी सुंदरता के कारण सर्वश्रेष्ठ हैं तो भी इनमें की प्राचीन भारत की आदर्शभूत शिल्पकला का बहुत कुछ विकृत रूप में परिणत हो जाने के कारण भारतभक्त के दिल में आनंद के साथ उद्वेग आ खडा होता है । कारण यह है कि यहां पर जितने पुराने मंदिर हैं, उन सबका अनेक बार पुनरुद्धार-संस्कार हो गया है । उद्धारकर्ताओं ने उद्धार करते समय, प्राचीन कारीगरी, बनावट और शिलालेखों आदि की रक्षा तरफ बिलकुल ही ध्यान न रखा । इस कारण, पुरातत्त्वज्ञ की दृष्टि में, इनमें कौन-सा भाग नया है और कौन-सा पुराना है, यह नहीं ज्ञात होता । संसार के शिक्षितों का यह अब निश्चय हो गया है कि, भारत की भूतकालीन विभूता का विशेष परिचय, केवल उसके प्राचीन धुस्स और पत्थर के टुकडे ही करा सकते हैं । ऐसी दशा में, उनकी अवज्ञा देखकर किस वैज्ञानिक को दुःख नहीं होता । * कर्नल टॉड यहां की प्राचीनता के विलोप में एक और भी कारण बडे दुःख के साथ लिखते हैं । वे कहते हैं - "(इस पर्वत की) प्राचीनता और पवित्रता के विषय 2010_02 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ आधुनिक वृत्तान्त ___ मंदिरों की श्रेणियों के मध्य में चलते चलते यात्रियों को 'हाथीपोल' नामका बडा दरवाजा मिलता है । जिसमें सदैव सशस्त्र पहेरेदार खडे रहते हैं । इस दरवाजे से सामने नजर करते ही वह पूज्य, पवित्र और दर्शनीय मंदिर दृष्टिगोचर होता है, जिसका चित्र इस पुस्तक के प्रारंभ में ही पाठकों ने देखा है । यही महान मंदिर इस तीर्थ का मुकुटमणि है । इसीमें तीर्थपति आदिनाथ भगवान् की भव्य मूर्ति बिराजमान है । इसी मंदिर के दर्शन, वंदन और पूजन करने के लिये, में जो कुछ ख्याति है, वह सब इसी (बडी) टोंक की है । परंतु पारस्परिक द्वेष के कारण, आप आप को स्थापक प्रसिद्ध करने की तीव्र लालसा के कारण और एक प्रकार की धर्मान्धता के कारण लोगों ने यहां की प्राचीनता को बिलकुल नष्ट भ्रष्ट कर डाला है । मैंने यहां के विद्वान जैन साधुओं के मुंह से सुना है कि, श्वेतांबर-सम्प्रदाय के खरतरगच्छ और तपागच्छ नामक मुख्य दो पक्षों ने यहां के पुराने चिह्नों को नष्ट करने में वह कार्य किया है, जो मुसलमानों से भी नहीं हुआ है ! जिस समय तपागच्छवालों का जोर हुआ, उस समय उन्होंने खरतरगच्छ के शिलालेखों को नष्ट कर दिया और उनके स्थान में अपने नवीन शिलालेख जड दिये, इसी तरह ...... जब खरतरगच्छ का जोर हुआ, तब उन्होंने उनके लेखों को भी नष्ट भ्रष्ट कर डाला । फल इसका यह हुआ कि इस पर्वत पर एक भी सम्पूर्ण मंदिर ऐसा नहीं है, जो अपनी प्राचीनता का दावा कर सके । सब ही मंदिर ऐसे हैं जो या तो नये सिरे से बनवाये गये हैं या मरम्मत किये हए हैं, या उनमें फेरफार किया गया है ।" (जैन हितैषी, भाग-८ संख्या-१०) ___भारत हितैषी इस सज्जन पुरुष के कथन में बहुत कुछ सत्यता है, ऐसा मैं अपने अन्यान्य अनुभवों से कह सकता हूं । पाटन वगैरह स्थलों के पुस्तक भाण्डागारों के अवलोकन करते समय ऐसी अनेक पुस्तकें मेरे दृष्टिगोचर हुई, जिनके अन्त की लेखकप्रशस्तियों में, एक दूसरे गच्छवालोंने, हरताल लगा लगाकर रद्दोबदल कर दिया है या उनका सर्वथा नाश ही कर डाला है । ऐसा ही निन्द्य कृत्य, संकुचित विचारवाले, क्षुद्र मनुष्यों द्वारा, टॉड साहब के कथनानुसार, शिलालेखों के विषय में भी किया गया हो तो उसमें आश्चर्य नहीं । चाहे कुछ भी हो, परन्तु इतना तो सत्य है कि, शत्रुजय के मंदिरों की ओर देखते, उनकी प्राचीनता सिद्ध करनेवाले प्रामाणिक साधन हमारे लिये बहुत कम मिलते हैं और यह ऐतिहासिक साधनाभाव थोडा खेदकारक नहीं है । 2010_02 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ आधुनिक वृत्तान्त भारत के प्रत्येक कौने में से श्रद्धालु जैन उस प्राचीनकाल से चले आ रहे हैं, जिसका हमें ठीक ठीक ज्ञान भी नहीं है । मुख्य मंदिर का इतिहास इस तीर्थ पर, जैसा कि शत्रुजय माहात्म्यानुसार उपर लिखा गया है, सबसे पहले भरत चक्रवर्तीने अपने पिता श्री आदिनाथ तीर्थंकर का मंदिर बनवाया था । पीछे से उसीका उद्धार अनेक देव-मनुष्योंने किया । ऐसे १२ उद्धारों का, जो चौथे आरे में किये गये हैं, ऊपर उल्लेख हो चूका है । शत्रुजयमाहात्म्यकारने, भगवान महावीर के निर्वाण बाद के भी दो उद्धारों का उल्लेख किया है, जो ऊपर उल्लिखित हो चूका है । धर्मघोषसूरिने अपने प्राकृत 'कल्प' में, सम्प्रति, विक्रम और शातवाहन राजा को भी इस गिरिवर का उध्धारक बताया है, 'लेकिन इनकी सत्यता के लिये अभी तक और कोई विश्वसनीय प्रमाण नहीं मिले । बाहड मंत्री का उद्धार । वर्तमान में जो मुख्य मंदिर है और जिसका चित्र इस पुस्तक के प्रारंभ में लगा हुआ है वह, विश्वस्त प्रमाणों से जाना जाता है कि, गुर्जर महामात्य बाहड (संस्कृत में वाग्भट) मंत्री के द्वारा उद्धृत है । विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के प्रारंभ में, जब चौलुक्य चक्रवर्ती महाराज कुमारपाल राज्य कर रहे थे, तब उनके उक्त प्रधानने, अपने पिता उदयन मंत्री की इच्छानुसार, इस मंदिर को बनवाया है । प्रबंध चिंतामणि' * संपइ-विक्कम-बाहड-हाल-पालित्त-दत्तरायाइ । जं उद्धरिहंति तयं सिरि सत्तुंजय महातित्थं ॥ १. यह ग्रंथ विक्रम संवत् १३६१ के फाल्गुन सुदि १५, रविवार के दिन समाप्त हुआ है । गुजरात के इतिहास में इससे बडी पूर्ति हुई है । इसका अंग्रेजी अनुवाद, बंगाल की रॉयल एशियाटिक सोसायटीने प्रकाशित किया है । 2010_02 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक वृत्तान्त २७ नामक ऐतिहासिक ग्रंथ के कर्ता मेरुतुंगसूरिने इस उद्धार के प्रबंध में लिखा है कि - सौराष्ट्र (काठियावाड) के किसी सुंवर नामक माण्डलिक शत्रु को जीतने के लिये महाराज कुमारपाल ने अपने अमात्य उदयनमंत्री को बहुत सी सेना देकर भेजा । वढवान शहर के पास जब मंत्री पहुंचा, तब शत्रुजयगिरि को नजदीक रहा हुआ समझकर, सैन्य को तो आगे काठियावाड में रवाना किया और आप गिरिराज की यात्रा के लिये शत्रुजय की ओर रवाना हुए । शीघ्रता के साथ शत्रुजय पहुंचा और वहां पर भगवत्प्रतिमा का दर्शन, वंदन और पूजन किया । उस समय वह मंदिर पत्थर का नहीं बना हुआ था, परंतु लकडी का बना था ।* मंदिर की अवस्था बहुत जीर्ण थी । उसमें अनेक जगह फाट-फूट हो गई थी । मंत्री पूजन करके प्रभु-प्रार्थना करने के लिये रंगमंडप में बैठा और एकाग्रता के साथ स्तवना करने लगा । इतने में मंदिर की किसी एक फाट में से एक चूहा निकला और वह दीपक की बत्ती को मुंह में पकडकर पीछे कहीं चला गया । मंत्री ने यह देखकर सोचा कि, मंदिर काष्ठमय होकर बहुत जीर्ण है, इसलिये यदि दीपक की बत्ती से कभी अग्नि लग जाय तो तीर्थ की बडी भारी आशातना के हो जाने का भय है । मेरी इतनी सम्पत्ति और प्रभुता किस काम की है । यह सोचकर वही मंत्रीने प्रतिज्ञा कर ली की, इस युद्ध से वापस लौटकर मैं इस मंदिर का जीर्णोद्धार करूंगा और लकडी के स्थान में पत्थर का मजबूत मंदिर बनाऊंगा । मंत्री वहां से चला और थोडे ही दिनों में अपने सैन्य से जा मिला । शत्रु ___ * गुजरात में पूर्वकाल में बहुत करके लकडी ही के मकान बनाये जाते थे । इसका निर्णय इस वृत्तान्त से स्पष्ट हो जाता है । गुजरात की प्राचीन राजधानी वल्लभी नगरी के ध्वंसावशेषों में पत्थर का काम कुछ भी उपलब्ध नहीं होता, इसलिये पुरातत्त्वज्ञों का अनुमान है कि, इस देश में पहले लकडी और ईंट ही के मकान बनाये जाते थे । 2010_02 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ आधुनिक वृत्तान्त के साथ खूब लडाई हुई । उसमें मंत्री ने बडी वीरता दिखलाई और शत्रु का पूर्ण संहार किया । परंतु, मंत्री को कई सख्त प्रहार लगे, जिससे वह वहीं पर स्वधाम को पहुंच गया । मंत्री ने अंत समय में, अपने सेनानियों को कहा कि, 'मैं अपने स्वामी का कर्तव्य बजाकर जाता हूं, इससे मुझे बडा हर्ष है, परंतु शत्रुजय के उद्धार की जो मैंने प्रतिज्ञा की है, वह पूरी नहीं कर सका, इस कारण मुझे बडा दुःख होता है । खैर, भवितव्यता के कारण मैं अपने हाथ से यह सुकृत्य नहीं कर सका, किन्तु मुझे विश्वास है कि मेरे पितावत्सल प्रिय पुत्र अवश्य ही मेरी इच्छा को पूर्ण करने में तत्पर होंगे, इसलिये मेरा यह अंतिम संदेश उनसे तुम कह देना ।' मंत्री के वचन को सेनानियों ने मस्तक पर चढाया । मंत्री का अग्निसंस्कार कर उसका विजयी सैन्य, विजय मिलने के कारण हर्षित होता हुआ, परंतु अपने प्रिय दंडनायक की दुःखद मृत्यु के कारण दुःखी होकर वापस राजधानी पट्टन को पहुंचा । सेनानियों ने, मंत्री के बाहड और अम्बड नामक पुत्रों को, पिता का अंतिम संदेश कहा । दोनों भ्राताओं ने पिता के इस पवित्र संदेश को बडे आदर के साथ शिरोधार्य किया और उसी समय शत्रुजय के उद्धार की तैयारी करने लगे । दो वर्ष में मंदिर तैयार हो गया । उसकी शुभ खबर आकर नौकर ने दी और बधाई मांगी । मंत्री बाहड ने उसे इच्छित दान दिया । फिर मंत्री प्रतिष्ठा की सामग्री तैयार करने लगा । कुछ ही दिन बाद एक आदमी ने आकर यह सुनाया कि पवन के सख्त झपाटों के कारण मंदिर मध्यमें से फट गया है । यह सुनकर मंत्री बडा खिन्न हुआ और महाराज कुमारपाल की आज्ञा पाकर चार हजार घोडेसवारों के साथ में ले स्वयं शत्रुजय को पहुंचा । वहां जाकर कारीगरों से फट जाने का कारण पूछा तो, उन्होंने कहा कि 'मंदिर के अंदर जो प्रदक्षिणा देने के लिये 'भ्रमणमार्ग' बनाया गया है, उसमें जोरदार हवा का प्रवेश 2010_02 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक वृत्तान्त हो जाने से, मध्यभाग फट गया है और यदि यह 'भ्रमणमार्ग' न बनाया जाय तो शिल्पशास्त्र में निर्माता को सन्तति का अभाव होना लिखा है ।' मंत्री ने कहा 'चाहे भले ही मुझे सन्तति न हो, लेकिन मंदिर वैसा बनाओ, जिसे कभी तूटने-फटने का भय ही न रहे ।' शिल्पियों ने अपनी बुद्धिमत्ता से मंदिर के 'भ्रमणमार्ग' पर शिलायें लगाकर ऐसा बना दिया, जिससे न वह किसी तूफान ही का भोग हो सकता है और न सन्तत्यभाव ही का कारण । (कहते हैं कि ये शिलायें अद्यावधि वैसी ही लगी हुई हैं ।) इस प्रकार तीन वर्ष में मंदिर तैयार हो गया । बाद में मंत्रीने पट्टन से बडा भारी संघ निकाला और बहुत धन व्यय कर, सुप्रसिद्ध आचार्य श्रीहेमचंद्रसूरि से संवत् १२११* में अनुपम प्रतिष्ठा करवाई। मेरुतुंगाचार्य लिखते हैं कि, इस मंदिर के बनवाने में बाहड मंत्रीने एक करोड और ६० लाख रुपये खर्च किये हैं । षष्टिलक्षयुता कोटी व्ययिता यत्र मंदिरे । स श्री वाग्भटदेवोऽत्र वर्ण्यते विबुधैः कथम् ॥ मंदिर की व्यवस्था और निभाव के लिये मंत्रीने कितनी ही जमीन और ग्राम भी देव-दान में दिये कि जिनकी ऊपज से तीर्थ का सदैव का कार्य नियम पुरःसर चलता रहे । समरासाह का उद्धार । बाहड मंत्री के थोडे ही वर्षों बाद शाहबुद्दीन घोरीने उद्वेगजनक हमले शुरू किये । दिलीश्वर पृथ्वीराज चाहमान का पराजय कर उसने भारत के भाग्याकाश में विपत्ति के.बादलों की भयानक घटा के आने * प्रभावक चरित्र में संवत् १२१३ लिखा है । शिखीन्दु रविवर्षे (१२१३) च ध्वजारिपि व्यधापयत् । प्रतिमा सप्रतिष्ठां स श्रीहेमचन्द्रसूरिभिः ॥ 2010_02 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक वृत्तान्त का दुर्भेद्य द्वार खोल दिया । बस, फिर क्या होना था ?-सावन और भादों के मेघों की तरह एक से एक त्रासजनक और विप्लवकारी म्लेच्छों के आक्रमण होने लगे, जिससे भारतीय स्वतंत्रता और सभ्यता का सर्वनाश होने लगा । १४वीं शताब्दी के मध्यमें अत्याचारी अलाउद्दीन का आसुरी अवतार हुआ । उसने आर्यावर्त के आदर्श और अनुपम ऐसे असंख्य देवमंदिरों का, जिनके कारण स्वर्ग के देव भी इस पुण्यभूमि में जन्म लेने की वांछा किये करते थे, नाश करना प्रारंभ किया । जिनकी रमणीयता की बराबरी स्वर्ग के विमान भी नहीं कर सकते, वैसे हजारों मंदिरो को धूल में मिला दिये गये । जिन भव्य और शांत स्वरूप प्रतिमाओं को एक ही बार प्रशांत मन से देख लेने पर पापीष्ठ आत्मा भी पवित्र हो जाती थी, वैसी असंख्य देवमूर्तियों को, उनके पूजकों के हृदयों के साथ, विदीर्ण कर दिया । हाय ! इस आपत्काल के पहले भारत भूमि जिन भव्य भवनों से सुशोभित थी, उनकी विभूता की हमें आज कल्पना भी होनी कठिन है ! उस असुर के अधम अनुजीवियों ने शत्रुजय तीर्थ को भी अस्पृष्ट और अखण्डित नहीं रहने दिया । तीर्थपति आदिनाथ भगवान की पूज्य प्रतिमा का कण्ठच्छेद कर दिया और महाभाग मंत्री बाहड के उद्धृत मंदिर के कितने ही भागों को खंडित कर डाला । जिनप्रभसूरिने, जो उस समय विद्यमान थे, अपने विविध तीर्थकल्प में, इस दुर्घटना की भीति संवत् १३६९ लिखी है * । * ही ग्रहर्तुक्रियास्थान (१३६९) सङ्ख्ये विक्रमवत्सरे । जावडिस्थापितं बिम्बं म्लेच्छैर्भग्रं कलेर्वशात् ॥ इसके उत्तरार्द्ध में यह लिखा है कि मुसलमानों ने जिस बिम्ब को भग्न किया, वह जावडशाह वाला था । तो, इससे यह बात जानी जाती है कि बाहड मंत्री ने केवल मंदिर ही नया बनाया था-मूर्ति नहीं । मूर्ति तो वहीं स्थापन की थी, जो जावडसाह ने प्रतिष्ठित की थी। 2010_02 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ आधुनिक वृत्तान्त इस समय अणहिल्लपुर (पट्टन) में, ओसवाल जाति के देशलहरा वंश में समरासाह नामक बडा समर्थ श्रावक विद्यमान था । उसका परिचय सीधा दिल्ली के बादशाह से था । जब उसे यह मालूम हुआ कि, मुसलमानों ने शत्रुजय पर भी उत्पात मचाना शुरू किया है तब वह अलाउद्दीन के पास गया और उसे समझा-बुझा कर शत्रंजय को विशेष हानि से बचा लिया । बादशाह की रजा लेकर, उस साह ने गिरिराज पर, जितना नुकसान मुसलमानों ने किया था, उसे फिर तैयार कर देने का काम शुरू किया । बादशाह के आधीन में मम्माण* की संगमरमर की खानें थी, जिनमें बहुत ऊँची जाति का पत्थर निकलता था । समरासाह ने वहां से पत्थर लेने की इजाजत मांगी । बादशाह ने खुशी पूर्वक लेने दिया । कोई दो वर्ष में मूर्ति बनकर तैयार हुई । मंदिर की भी सब मरम्मत करवाई । संवत् १३७१ में, समरासाह ने पट्टन से संघ निकाला और गिरिवर पर जाकर भगवन्मूर्ति की फिर से मंदिर में नई प्रतिष्ठा की। प्रतिष्ठा में तपागच्छ की बृहत्पोशालिक शाखा के आचार्य श्रीरत्नाकरसूरि आदि कई प्रभावक आचार्य विद्यमान थे । इस प्रतिष्ठा के समय के कुछ लेख शत्रुजय पर अब भी विद्यमान हैं । स्वयं समरासाह और उसकी स्त्री समरश्री का मूर्तियुग्म भी मौजूद है। ___* यह 'मम्माण' कहां पर है, इसका कुछ पता नहीं लगा । पिछले जमाने में जितनी अच्छी जिनमूर्तियें बनाई जाती थी, वे प्रायः मम्माण के मारबल की होती थी । जैन ग्रन्थों में, आरास (आबू के पास) और मम्माण की खानों में के संगमरमर का बहुत उल्लेख मिलता है । १. महामात्य वस्तुपाल-तेजपाल ने भी, तत्कालीन बादशाह मोजुद्दीन की रजा लेकर मम्माण से पत्थर मंगवाया था और उसकी मूर्तियाँ बनवाकर इस पर्वत पर तथा अन्यान्य स्थलों पर स्थापित की थी । २. वैक्रमे वत्सरे चन्द्रहयानीन्दुमिते सति ॥ श्रीमूलनायकोद्धारं साधुः श्रीसमरो व्यघात् ॥ - विविधतीर्थकल्प ३. देखो, मेरा प्राचीन जैनलेखसंग्रह । ___ 2010_02 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ आधुनिक वृत्तान्त कर्मासाह का उद्धार । समरासाह की स्थापित की हुई मूर्ति का मुसलमानों ने पीछे से फिर सिर तोड दिया । तदनन्तर बहुत दिनों तक वह मूर्ति वैसे ही - खंडित रूप में ही - पूजित रही । कारण यह कि मुसलमानों ने नई मूर्ति स्थापन न करने दी । महमूद बेगडे के बाद गुजरात और काठियावाड में मुसलमानों ने प्रजा को बडा कष्ट पहुंचाया था । मंदिर बनवाने और मूर्ति स्थापित करने की बात तो दूर रही, तीर्थस्थलों पर यात्रियों को दर्शन करने के लिये भी जाने नहीं दिया जाता था । यदि कोई बहुत आजीजी करता था तो उसके पास से जी भर कर रुपये लेकर, यात्रा करने की रजा दी जाती थी । किसीके पास से ५ रुपये, किसीके पास से १० रुपये और किसीके पास से एक असरफी - इस तरह जैसी आसामी और जैसा मौका देखते वैसी ही लंबी जबान और लंबा हाथ करते थे । बेचारे यात्री बुरी तरह कोसे जाते थे । जिधर देखो उधर ही बडी अंधाधुन्धी मची हुई थी । न कोई अर्ज करता था और न कोई सुन सकता था । कई वर्षों तक ऐसी ही नादिरशाही बनी रही और जैन प्रजा मन ही मन अपने पवित्र तीर्थ की इस दुर्दशा पर आंसु बहाती रही । सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में, चित्तोड की वीरभूमि में कर्मासाह नामक कर्मवीर श्रावक का अवतार हुआ, जिसने अपने उदग्र वीर्य से इस तीर्थाधिराज का पुनरुद्धार किया । इसी महाभाग के महान् प्रयत्न से यह महातीर्थ मूर्च्छित दशा को त्यागकर फिर जागृतावस्था को धारण करने लगा और दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक उन्नत होने लगा । फिर, जगद्गुरु श्रीहीरविजयसूरि के समुचित सामर्थ्य ने इसकी उन्नति की गति में विशेष वेग दिया, जिसके कारण यह आज जगत् में "मंदिरों का शहर" (THE CITY OF TEMPLES)* कहा जा रहा है । मुंबई के वर्तमान गवर्नर लॉर्ड वेलिंग्टनने गत वर्ष में काठियावाड की मुसाफरी करते समय शत्रुजय की भी यात्रा की थी । उनकी इस यात्रा का मनहर वृत्तांत 'टाईम्स 2010_02 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक वृत्तान्त ३३ कर्मासाह का उद्धृत किया हुआ मंदिर और प्रतिष्ठित की गई मूर्ति अद्यावधि जैनप्रजा के आत्मिक कल्याण में सहायभूत हो रही है । प्रतिदिन सेंकडों-हजारों भाविक लोग, इस महान मंदिर में विराजित भगवान् की भव्य, प्रशांत और निर्विकार प्रतिकृति के दर्शन, वंदन और पूजन कर आत्महित किया करते हैं । कृतज्ञ जैनप्रजा अपने इस तीर्थोद्धारक प्रभावक पुरुष का पुण्यजनक नामस्मरण भी उसी प्रेम से करती है, जिस तरह भरतादिक अन्यान्य महापुरुषों का करती है । इस उद्धारक पुरुष का यश अक्षररूप से जगत में शक्य जितने समय तक विद्यमान रखने के लिये तथा भावि जैनप्रजा को अपने पूर्व पुरुषों के कल्याणकर कार्यों का अवलोकन और अनुमोदन कराने के लिये, पंडित श्रीविवेकधीर गणिने अपनी सद्बुद्धि का सदुपयोग कर यह शत्रुजयतीर्थोद्धारप्रबंध बनाया है । इस प्रबंध में लेखकने, कर्मासाह का और उनके उद्धार का सब हाल स्पष्टरूप से लिखा है । प्रबंधकार; उद्धार के समय विद्यमान ही न थे, लेकिन उद्धार संबंधी सब उचित व्यवस्था ही उनके हाथ में थी । इसलिये ऐतिहासिक दृष्टि से यह प्रबंध बडे ही महत्त्व का है । पं. विवेकधीर गणि कौन और किस गच्छ के व्यक्ति थे, इस विषय का सविस्तर जिक्र इस प्रबन्ध ही में किया हुआ है, इसलिये यहां पर ऊहापोह करने की अपेक्षा नहीं रहती । हां, इस प्रबन्ध के सिवा इन्होंने और भी कोई ग्रंथरचना वगैरह की है या नहीं ? इसके उल्लेख करने की आवश्यकता अवश्य रहती है । लेकिन, मुझे अपनी शोधखोल में, अभी तक इस विषय में, इससे अधिक और कुछ भी नहीं मालूम हुआ । ऑफ इन्डिया' के तारीख १४ फेब्रुआरी, (सन्-१९१६) के अंक में छपा है । इस वृत्तांत का शीर्ष, लेखकने (The Governor's Tour, In The City of Temples) (मंदिरों के शहर में गवर्नर की मुसाफरी) यह किया है और लेख में शहर के सौन्दर्य का चित्ताकर्षक वर्णन किया है । 2010_02 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक वृत्तान्त इस प्रबन्ध के दूसरे उल्लास के ८४ वें श्लोक का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि विवेकधीर गणि शास्त्रीय विद्याओं के तो पंडित थे ही, परंतु शिल्पविद्या में भी पूर्ण निपुण थे । शत्रुजय के उद्धारकार्य में कर्मासाह ने जिन हजारों शिल्पियों (कारीगरों) को नियुक्त किया था, उन सब को निर्माणकार्य में समुचित शिक्षा देनेवाले के स्थान पर, विवेकधीर गणि ही को, इनके गुरु (आचार्य)ने अध्यक्ष (इंजिनियर) नियत किया था ! इनके बडे गुरुभ्राता विवेकमंडन पाठक भी इस कार्य में सहकारी थे । पूर्वकाल में जैन विद्वान् कैसे विद्यावान् और सर्वकलाकुशल होते थे, इसका खयाल इस कथन से अच्छी तरह हो सकता है । जैनयतियों के लिये सावद्यकर्म के करने-कराने का यद्यपि जैनशास्त्र निषेध करते हैं तथापि संघ की शुभेच्छा और शान्ति के लिये कभी कभी उन्हें वैसे निषिद्ध कर्तव्यों के करने की भी शास्त्रकारों ने आपवादिकी आज्ञा दी है । वास्तुशास्त्र के कथनानुसार, यदि किसी देवमंदिर की रचना दोषयुक्त हो जाय तो उसका अनिष्ट फल बनानेवाले को, उसके पूजकों को, ग्रामवासियों को अथवा उससे भी अधिक सम्पूर्ण देशवासियों को भुगतना पडता है । इस आर्य शास्त्रानुज्ञा के कारण, संघ और राष्ट्र की भलाई के निमित्त, पं. विवेकधीर गणि को, शिल्पशास्त्र में उनकी अप्रतिम निपुणता देखकर, उनके धर्माचार्य ने, जैनधर्म के इस महान् तीर्थ के उद्धारकार्य में, निरीक्षक तया नियुक्त किये थे । आचार्यवर्य की इस योग्य नियुक्ति का और विवेकधीर गणि की सूक्ष्म निरीक्षणशक्ति का सुफल जैन प्रजा आज तक यथायोग्य भोग रही है । ___* वर्तमान में भी पाटन के तपागच्छ के वृद्ध यति श्रीहिमतविजयजी शिल्पशास्त्र के अद्वितीय ज्ञाता हैं । सारे राजपूताना में और गुजरात तथा काठियावाड में उनके जैसा कोई शिल्पज्ञ नहीं है । डॉ. हर्मन जेकोबी इनकी इस विषय की निपुणता देखकर बडे प्रसन्न हुए थे । खेद होता है कि इनके बाद इस विषय के उत्तम ज्ञाता का एक प्रकार से अभाव ही हो जाएगा । 2010_02 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ आधुनिक वृत्तान्त कर्मासाह के इस उद्धार के वर्णन की एक लंबी प्रशस्ति, इस महान मंदिर के अग्रिम द्वार पर, एक शिलापट्ट में ऊकीरी हुई है । यह प्रशस्ति कविवर लावण्यसमय की बनाई हुई और इस प्रबन्धकर्ता के हाथ ही की लिखी हुई है । इसमें, बहुत ही संक्षेप में, इस उद्धार का वर्णन लिखा हुआ है । प्रशस्ति के सिवा, भगवान आदिनाथ की और गणधर पुंडरीक की मूर्ति पर भी कर्मासाह के संक्षिप्त गद्यलेख हैं । ये सब लेख परिशिष्ट में दिये गये हैं । जो पाठक संस्कृत नहीं जानते अथवा जिन्हें केवल प्रबन्धान्तर्गत ऐतिहासिक भाग ही देखने की इच्छा हो उनके लिये इस 'उपोद्धात' के अगले ही पृष्ठ से 'शजयतीर्थोद्धार प्रबन्ध का ऐतिहासिक सारभाग' दिया गया है । इस सार-भाग में यथास्थान कुछ टिप्पणी भी अन्यान्य ऐतिहासिक ग्रन्थों के अनुसार लगा दी है । दूसरे उल्लास के प्रारंभ में अणहिल्लपुर स्थापक वनराज चावडे से लेकर शत्रुजयोद्धारक कर्मासाह तक के गुजरात के राजा-बादशाहों की सूची है । उनका विशेष वृत्तान्त जानने के लिये फार्बस साहब की 'रासमाला' या श्रीयुत गोविन्दभाई हाथीभाई देसाई रचित 'गुजरातनो प्राचीन अने अर्वाचीन इतिहास' नामक पुस्तक देखनी चाहिए । प्रबन्ध के अन्त में, स्वयं प्रबन्धकार ने एक 'राजावली-कोष्टक' दिया है, जिसमें द्वितीय उल्लासोल्लिखित नृपतियों ने कितने कितने समय तक राज्य किया था, उसका कालमान लिखा हुआ है । इसमें गुजरात के क्षत्रिय नृपतियों का जो कालमान है, वह तो अन्यान्य ऐतिहासिक लेखों के साथ सम्बद्ध हो जाता है, परन्तु मुसलमान बादशाहों के विषय में कहीं कहीं विसंवाद प्रतीत होता है । सिवा, इसमें दिल्ली के बादशाहों की भी नामावली और राज्यवर्षगणना दी हुई है, परंतु उनमें के कितने ही नामों का तो कुछ पता ही नहीं लगता है । जिनका 2010_02 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ आधुनिक वृत्तान्त पता मिलता है, उनमें से कई एकों के सत्ता- समय और राज्यकाल में अन्यान्य तवारीखों के साथ कुछ फेरफार और विसंवाद दृष्टिगोचर होता है । परंतु यह विसंवाद तो आईन-ए-अकबरी और तवारिख-एफरिस्ता आदि ग्रन्थों में भी परस्पर बहुत कुछ मिलता है, इसलिये इस विषय का परस्पर मिलन कर सत्यासत्य के निर्णय करने का कार्य किसी विशेषज्ञ ऐतिहासिक का है । प्रबन्धकार ने तो सिर्फ पुरानी भूपावली या मुखपरंपरा से देख-सुनकर यह कोष्टक लिखा है; न कि आज कल के विद्वानों की तरह ऐतिहासिक ग्रन्थों की जाँच पडताल । तो भी लेख के देखने से ज्ञात होता है कि उन्हें यह लिखा अवश्य विचारपूर्वक है । प्रवर्तक श्रीमान् कान्तिविजयजी महाराज के शास्त्रसंग्रह में नई लिखी हुई प्रति उपर से यह प्रबन्ध छपाने के लिये तैयार किया गया है और भावनगर के जैन संघ के पुस्तक - भाण्डागार में से सुश्रावक सेठ कुंवरजी आणंदजी द्वारा प्राप्त हुई प्राचीन प्रति द्वारा शोधा गया है * । आशा है कि इतिहासप्रेमी और धर्मरसिक- दोनों प्रकार के मनुष्यों को इस प्रयत्न में कुछ न कुछ आनंद अवश्य मिलेगा । और वैसा हुआ तो मैं अपना यह क्षुद्र प्रयास सफल हुआ मानुंगा । 1 पौषी पूर्णिमा, ( बडौदा ) 2010_02 - - * इस प्रति के अन्त में लेखक ने निम्न प्रकार का उल्लेख किया हुआ है " संवत् १६५५ वर्षे श्रावण वदि - ११, गुरौ महोपाध्याय श्री श्रीविमलहर्षगणि चरणसेविजसविजयेनालेखि । श्रीअहम्मदावादे । शुभं भवतु ॥ " मुनि जिनविजय Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुंजयतीर्थोद्धारप्रबन्ध का ऐतिहासिक सार - भाग वंशादि वर्णन | (प्रथम उल्लास ) इस प्रबन्ध के प्रारंभ में, प्रबन्धकार ने प्रथम काव्य में, शत्रुंजयमंडन श्री ऋषभदेव भगवान की प्रार्थना की है । दूसरे पद्य में भगवान के प्रथम गणधर श्रीपुंडरीकस्वामी की, जिनके कारण इस पर्वत का 'पुंडरीक' नाम प्रसिद्ध हुआ है, स्तवना की गई है । तीसरे काव्य में उल्लेख है कि-इस सिद्धगिरि पर, पूर्वकाल में भरत - आदि महापुरुषों ने, तीर्थंकरादि महात्माओं के उपदेश से अनेक उद्धार कार्य किये हैं, इसलिये इसकी उपासना करने से स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होती है यह जानकर, असंख्य श्रद्धालुओं ने संघ निकाल निकाल कर इसकी यात्रायें की हैं । चौथे, पाँचवें और छवें काव्य में भरतादिक जिन जिन उद्धारकों ने ऋषभादिक जिन जिन आप्तपुरुषों के कथन से (जिनकी सूची 'उपोद्घात' में दी गई है) इसके उद्धार किये हैं, उनका केवल नाम - निर्देश किया गया है और * साधु श्रीकर्मा के किये गये वर्तमान महान् उद्धार का मधुर वर्णन करने की प्रतिज्ञा कर श्रोताओं को सावधान मन से सुनने की विज्ञप्ति की गई है । सातवें पद्य से प्रबन्ध का प्रारंभ होता है । प्रारंभ, जिनके उपदेश से कर्मासाह ने यह उद्धारकार्य किया है, उन आचार्यवर्य के वृत्तान्त से किया गया है । आलंकारिक वर्णन को छोडकर ( जो कि बहुत * 'साधु' शब्द से यहां पर यति-श्रमण का अभिप्राय नहीं है । संस्कृत में 'साधु' का पर्याय श्रेष्ठ - सुपुरुष है । पूर्वकाल में जो अच्छे धर्मी और धनी गृहस्थ होते थे, वे 'साधु' ही का प्राकृतरूप 'साहु' है, जो अपभ्रंश होकर साह के रूप में वर्तमान में विद्यमान है तथा अब भी जो महाजनों को 'साहुकार' कहते हैं, वह संस्कृत 'साधुकार' (अच्छा कार्य करनेवाला) का प्राकृतिक रूप है । 2010_02 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ऐतिहासिक सार - भाग ही अल्प है ) ऐतिहासिक सार भाग का सरल भावार्थ यहां पर दिया जाता है । महान् तपागच्छ के रत्नाकरपक्ष की भृगुकच्छीय शाखा में पहले अनेक आचार्य हो गये हैं । उनमें विजयरत्नसूरि नामके एक प्रतिष्ठित आचार्य हुए, जिन्होंने अपनी प्रखर विद्वत्ता से विद्वानों में सर्वत्र विजयपताका प्राप्त की थी । उनके धर्मरत्नसूरि नामके शिष्य हुए । जो बडे क्रियावान, विद्यावान और प्रतापी थे । सुविहितजन निरंतर उनकी सेवा किया करते थे । उनका निर्मल यश सर्वत्र फैला हुआ था । बचपन ही में उन्हें लक्ष्मीमंत्र सिद्ध हो गया था । कई राजेमहाराजे उनके पगों में अपना मस्तक नमाते थे । अनेक अच्छे कवि उनकी स्तवना करते थे । उन सूरिवर्य के अनेक अच्छे अच्छे शिष्य थे, जिनमें विद्यामंडन और विनयमंडन ये दो प्रधान थे । इनमें पहले को सूरिजी ने आचार्यपद दिया था और दूसरे को उपाध्यायपद । एक समय धर्मरत्नसूर अपने शिष्यों के साथ संघपति धनराज की प्रार्थना से, आबू वगैरह तीर्थों की यात्रा के लिये उसके संघ में चले | अनेक नगरों और गांवों में, संघ के साथ बड़े भारी समारोह से प्रवेश करते हुए क्रमसे मेदपाट (मेवाड ) देश में पहुंचे । भारत भामिनी के भूषण समान इस मेदपाट की क्या प्रशंसा की जाय ? पैर पैर पर जहां सरोवर, नदियाँ, वन और क्रीडापर्वत विद्यमान हैं । धन और धान से जहां के शहर समृद्धिशाली बने हुए हैं। जहां न क्लेश का लेश है और न शत्रु का प्रवेश है । न दंड की भीति है और न x 'गुरुगुणरत्नाकरकाव्य' के तीसरे सर्ग में (श्लोक-२० से २५ तक) दाक्षिणात्य सं. धनराज और नागराज नामक दो भाईयों का जिक्र है । वे दक्षिण में देवगिरि (दौलताबाद) के रहनेवाले थे । उन्होंने सिद्धाचलादि तीर्थों की यात्रा के लिये बडे बडे संघ निकाले थे और लाखों रुपये खर्च किये थे । संभव है कि यह धनराज वही हो समय एक की है । 2010_02 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक सार-भाग ३९ लोगों में अनीति है । न कहीं दुर्जन का वास है और न कहीं दुर्व्यसन से किसीका विनाश है । इस सुंदर देश में, जिसने अपनी ऋद्धि से त्रिकूट को भी नीचा दिखा दिया है, ऐसा जगत्प्रसिद्ध चित्रकूट (चित्तोड) पर्वत है । इस पर्वत पर उन्नत और विशाल अनेक जिनमंदिर बने हुए हैं, जिनके रणरणाट करते हुए घंटनादों से सारा पर्वत शब्दायमान हो रहा है । चैत्यों के शिखरों पर स्थापित किये हुए सुवर्ण के देदीप्यमान कलश और बहुमूल्य वस्त्रों के बने हुए ध्वजपट, दूर ही से दृष्टिगोचर होने पर श्रद्धालुओं के पाप का प्रक्षालन करने लग जाते हैं । इस पर्वत पर अनेक साधुशालायें (उपाश्रय) बने हुए हैं, जिनमें निरन्तर अर्हदागमों का मधुर स्वर से जैनश्रमण स्वाध्याय करते रहते हैं । नगरनिवासी सभी मनुष्य आनंद और विलास में निमग्न रहते हैं । कई रमणीय सरोवर, अपने मध्य में रहे हुए कमलों के, पवन द्वारा उडे हुए परिमल से सुगंधमय हो रहे हैं । उस समय इस प्रसिद्ध पर्वत का शासक क्षत्रियकुलदीपक साङ्गा महाराणा* था, जो तीनलाख घोडों का मालिक था और जिसने अपने भुजाबल से समुद्रपर्यंत की पृथ्वी को स्वाज्ञाधीन किया था । उस नृपश्रेष्ठ के शौर्य, औदार्य और धैर्य आदि गुणों को देखकर तथा चतुरंग सैन्य की विभूति देखकर लोक उसे नया चक्रवर्ती मानते थे । __इस चित्रकोट नगर में, ओसवंश (ओसवाल ज्ञाति) में सारणदेव नामक एक प्रसिद्ध पुरुष हो गया है, जो जैन नृपति आमराज के ___* साङ्गा महाराणा का शुद्ध-संस्कृत नाम संग्रामसिंह था । कर्नल लॉर्ड के राजस्थान इतिहास में लिखा मुजब, इसने विक्रम संवत् १५६५ से १५८६ तक राज्य किया था । ____ - आमराज, सुप्रसिद्ध जैनाचार्य बप्पभट्टि का शिष्य था । बप्पभट्टि का जीवन चरित्र 'प्रभावक चरित्र' आदि कई ग्रंथों में लिखा मिलता है । 'गौडवध' नामक प्राकृत काव्य के कर्ता कवि वाक्यति और बप्पभट्टि समकालीन थे । आमराज कान्यकुब्ज का अधिपति था । गौडपति प्रसिद्धनृपति धर्मपाल-जो पालवंश का प्रतिष्ठाता पुरुष था-आमराज का ___ 2010_02 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ऐतिहासिक सार-भाग वंशजो में से था । उसका पुत्र रामदेव हुआ । रामदेव का लक्ष्मसिंह या (लक्ष्मीसिंह) हुआ । उसका भुवनपाल और भुवनपाल का भोजराज पुत्र हुआ । भोजराज का पुत्र ठक्करसिंह, उसका खेता और नरसिंह हुआ । ये सब प्रतिष्ठित नर हुए । नरसिंह का पुत्र तोला हुआ, जिसकी सतियों में ललामभूत ऐसी लीलू नाम की प्रिय पत्नी थी । साधु तोला, महाराणा साङ्गा का परम मित्र था । महाराणा ने उसे अपना अमात्य बनाना चाहा था, परंतु उसने आदरपूर्वक उसका निषेध कर केवल श्रेष्ठी पद ही स्वीकार किया । वह बडा न्यायी, विनयी, दाता, ज्ञाता, मानी और धनी था । सहृदय और पूरा दयालु था । यश भी उसका बडे बडे लोकों में था । बहुत ही उदारचित्त का था । याचकों को हाथी, समसामयिक था । बंगाल के प्रख्यात लेखक और विश्वकोष के कर्ता श्रीयुत नागेन्द्रनाथ वसु प्राच्य विद्यार्णव का 'लखनउ की उत्पत्ति' नामक एक ऐतिहासिक लेख 'पाटलिपुत्र' के प्रथम भाग के कितनेक अंको में प्रगट हुआ है । इस लेख में, लेखकने आमराज आदि के विषय में अच्छा प्रकाश डाला है । एक जगह लिखा है कि - "जैन ग्रंथ के अनुसार आमराज के गुरु बप्पभट्टि ने ८१५ संवत् या सन् ८३८ में पंचानवे की अवस्था पर पञ्चत्व पाया था । ऐसी स्थिति में ८०० संवत् या सन् ७४६ ई. से सन् ८३८ ई. तक बप्पभट्टि के आविर्भाव का समय मानना पडता है । प्रबन्धकोष के मत से ८५१ संवत् या सन् ७९५ ई. में आमराज की ही प्रार्थना पर बप्पभट्टि ने सूरिपद पाया था । आमराज ने वृद्ध वय में स्तम्भनतीर्थ, गिरनार, प्रभास प्रभृति नाना तीर्थ घूम और ८९० संवत् या सन् ८३४ ई. में मगधतीर्थ पहुंच प्राण छोडे । इसलिए मालूम होता है कि, सन् ७९५ से ८३४ ई. तक आमराज विद्यमान रहे । उधर गौड के पालराज वंश का इतिहास देखने से समझते हैं कि गौडाधिपति धर्मपाल ने सन् ७९५ से ८३४ ई. तक राजत्व चलाया था । ('बङ्गेर-जातीय इतिहास' के राजन्य कांड का २१६ वा पृष्ठ देखना चाहिए ।) इसलिए देखते हैं कि पालवंश के प्रकृत प्रतिष्ठाता महाराज धर्मपाल और कान्यकुब्जपति आमराज समसामयिक रहे ।" - पाटलिपुत्र, माघ शुक्ल-१, सं. १९७१ । ____ * लावण्यसमयवाली प्रशस्ति (पद्य-८-९) में लिखा है कि-आमराज की स्त्रियों में एक कोई व्यवपारी पुत्री थी । उसकी कुक्षिसे जो पुत्र उत्पन्न हुआ, उसका गोत्र राजकोष्ठागार (राजभांडागारिक) कहलाया । सारणदेव उसीके गोत्र में हुआ । १. प्रशस्त्यनुसार, इसका दूसरा नाम 'तारादे' था । 2010_02 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ ऐतिहासिक सार-भाग घोडे, वस्त्र, आभूषण आदि बहुमूल्य चीजें दे देकर कल्पवृक्ष की तरह उनका दारिद्र्य नष्ट कर देता था । जैन धर्म का पूर्ण अनुरागी था । उस पुण्यशाली तोलासाह के १ रत्न,* २ पोम, ३ दशरथ, ४ भोज और ५ कर्मा नामक पांडवों के जैसे ५ पराक्रमी पुत्र हुए । इन भ्राताओं में जो सबसे छोटा कर्मासाह था, वह गुणों में सभी से बडा था अर्थात् वह पांचों में श्रेष्ठ और ख्यातिमान था । उसके सौन्दर्य, धैर्य, गांभीर्य और औदार्य आदि सभी गुण प्रशंसनीय थे । ___ धर्मरत्नसूरि और सं. धनराज का संघ मेदपाट के पवित्र तीर्थस्थलों की और प्रसिद्ध नगरों की यात्रा करता हुआ क्रमशः चित्रकोट पहुंचा । सूरिजी के साथ संघ का आगमन सुनकर महाराणा साङ्गा अपने हाथी, घोडे, सैन्य और वादित्र वगैरह लेकर उनके सन्मुख गया । सूरिजी को प्रणाम कर उनका सदुपदेश श्रवण किया । बाद में, बहुत आडम्बर के साथ संघ का प्रवेशोत्सव किया और यथायोग्य सब संघजनों को निवास करने के लिये वासस्थान दिये । तोलासाह अपने पुत्रों के साथ संघ की यथेष्ट भक्ति करता हुआ सूरिजी की निरन्तर धर्मदेशना सुनने लगा । राजा भी सूरिजी के पास आता था और धर्मोपदेश सुने करता था । सूरिजी के उपदेश से सन्तुष्ट होकर, राजाने पाप के मूलभूत शिकार आदि दुर्व्यसनों का त्याग कर दिया । वहां पर एक पुरुषोत्तम नामका ब्राह्मण था, जो बडा गर्विष्ठ विद्वान् और दूसरों के प्रति असहिष्णुता रखनेवाला था । सूरिजी ने उसके साथ, राजसभा में सात दिन तक वाद कर उसे पराजित किया । इस बात का उल्लेख एक दूसरी प्रशस्ति में भी किया हुआ है । यथा - * लावण्यसमय के कथनानुसार, इसने चित्रकोट नगर में एक जैन मंदिर बनवाया था । १. इन पांचों के परिवार का वंशवृक्ष प्रशस्त्यनुसार अन्त में दिया गया है । 2010_02 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक सार - भाग कीर्त्या च वादेन जितो महीयान् द्विधा द्विजो यैरिह चित्रकूटे । जितत्रिकूटे नृपतेः समक्षमहोभिरह्नाय तुरङ्गसंख्यैः * ॥ ४२ एक दिन अवकाश पाकर लीलू सती के पति तोलासाह ने अपने छोटे बेटे कर्मासाह के समक्ष धर्मरत्नसूरि से भक्तिपूर्वक एक प्रश्न किया कि- 'हे भगवन् मैंने जो कार्य सोच रखा है, वह सफल होगा या नहीं, यह आप विचार कर मुझसे कहने की कृपा करें ।' आचार्य महाराज उसी समय एकाग्रचित्त होकर अपने ज्योतिषशास्त्र विषयक विशेष ज्ञान द्वारा उसके चिन्तितार्थ का स्वरूप और फलाफल सोचने लगे । बात यह थी कि, गुर्जर महामात्य वस्तुपाल एक समय शत्रुंजय पर स्नात्र महोत्सव कर रहे थे । उस समय वहां पर अनेक देशों के बहुत संघ आये हुए थे, इसलिये मंदिर में दर्शन और पूजन करनेवाले श्रावकों की बड़ी भारी भीड लगी हुई थी । भक्तलोग भगवान की पूजा करने के लिये एक दूसरे से आगे होना चाहते थे । अनेक मनुष्य सुवर्ण के बडे बडे कलशों में दूध और जल भरकर प्रभु की प्रतिमा पर अभिषेक कर रहे थे । मनुष्यों की इस दट्टी और पूजा करने की उत्कट धून मची हुई देखकर पूजारियों ने सोचा कि, किसीकी बेदरकारी या उत्सुकता के कारण कलश वगैरह का भगवत्प्रतिमा के किसी सूक्ष्म अवयव के साथ संघट्टन हो जाने से कहीं कुछ नुकसान न हो जायँ । इसलिये उन्होंने चारों तरफ मूर्ति को पुष्पों के ढेर से ढंक दी । मंत्री वस्तुपाल ने मंडप में बैठे बैठे यह सब देखा और सोचा कि यदि किसी कलशादि के कारण या कोई म्लेच्छों के हाथ जो ऐसी दुर्घटना हो जाय तो फिर इस महातीर्थ की क्या अवस्था हो ? भावि काल में होनेवाले अमंगल की आशंका अपने अन्त:करण में इस प्रकार आविर्भाव हुआ देखकर दीर्घदर्शी महामात्य ने उसी समय मम्माण की 1 * यह प्रशस्ति ( शिलालेख ) कहां पर थी ( या अभी तक है) इसका पता नहीं । ऐसी बहुत सी प्रशस्तियों के उल्लेख कई ऐतिहासिक लेखों में मिलते हैं, लेकिन वे प्रायः नष्ट हो गई हैं । 2010_02 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक सार-भाग संगमरमर की खान में से, मौजुद्दीन बादशाह की आज्ञा से उत्तम प्रकार के पांच बडे बडे पाषाण खंडों के मंगवाने के प्रबन्ध किया । बहुत कठिनता से वे खंड शत्रुजय पर पहुंचे । इन में से दो खंड मंत्री ने मंदिर के भूगृह में रखवा दिये कि जिससे भविष्य में कभी कोई ऊपर्युक्त दुर्घटना हो जाय तो इन खंडों से नई प्रतिमा बनवाकर पुनः शीघ्र स्थापित कर दी जायँ । ___ संवत् १२९८ में वस्तुपाल महामात्य का स्वर्गवास हो गया । सत्पुरुषों की जो शंका होती है, वह प्रायः मिथ्या नहीं होती । विधि की वक्रता के प्रभाव से, मंत्रीश्वर के मृत्यु अनन्तर थोडे ही वर्षों बाद मुसलमानों ने भगवान् आदिनाथ की उस भव्य मूर्ति का कंठ छेद कर दिया । संवत् १३७१ में साधु समरासाहने फिर नई प्रतिमा बनवाकर उस जगह स्थापित की और वृद्ध तपागच्छ के श्रीरत्नाकरसूरि, जिनसे इस गच्छ का दूसरा नाम रत्नाकरगच्छ प्रसिद्ध हुआ, ने उसकी प्रतिष्ठा की । इस बात का जिक्र अन्य प्रशस्ति में भी किया हुआ है । यथा - वर्षे विक्रमतः कुसप्तदहनैकस्मिन् (१३७१) युगादिप्रभुं श्रीशजयमूलनायकमतिप्रौढप्रतिष्ठोत्सवम् । साधुः श्रीसमराभिधस्त्रिभुवनीमान्यो वदान्यः क्षितौ श्रीरत्नाकरसूरिभिर्गणधरैर्यैः स्थापयामासिवान् ॥ ___* टिप्पणी में लिखा है कि-मोजुद्दीन बादशाह का मंत्री पुन्नड करके था, जो श्रावक होकर वस्तुपाल का प्रिय मित्र था । उसने ये पाषाण खंड भिजवाये थे । इन खंडों में से एक खंड आदिनाथ भगवान की मूर्ति के लिये, दूसरा पुंडरीक गणधर की, तीसरा कपर्दी यक्ष की, चौथा चक्रेश्वरी देवी की और पांचवा तेजलपुर प्रासाद लिये पार्श्वनाथ तीर्थंकर की प्रतिमा के लिये मंगवाया था । १. टिप्पणी में, इस दुर्घटना का संवत् १३६८ लिखा है । २. समरासाह का विस्तृत वृत्तान्त के लिये मेरी 'ऐतिहासिक-प्रबन्धो' नामक गुजराती पुस्तक देखो । - यह प्रशस्तिपद्य, स्तम्भतीर्थ (खंभात) के कोटीध्वज साधु श्रीशाणराज के संवत् 2010_02 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ऐतिहासिक सार-भाग समरासाह के स्थापित किये हुए बिम्ब का पीछे से म्लेच्छों (मुसलमानों) ने फिर किसी समय मस्तक खंडित कर दिया । धर्मरत्नसूरि के पास बैठकर तोलासाह ने जिस अपने मनोरथ के सफल होने न होने का प्रश्न किया, वह इसी विषय का था । तोलासाह के समय तक किसीने गिरिराज का पुनरुद्धार नहीं किया था, इसलिये तीर्थपति की प्रतिमा वैसे खंडित रूप में ही पूजी जाती थी । वस्तुपाल के गुप्त रक्खे हुए पाषाणखंडो की बात संघ के नेताओं में पूर्वज परंपरा से कर्णोपकर्ण चली आती थी और समरासाह ने तो नया ही पाषाणखंड मंगवाकर उसकी मूर्ति बनवाई थी, अतएव वस्तुपाल के रक्षित पाषाणखंड अभी तक भूमिगृह में वैसे ही प्रस्थापित होने चाहिये; इसलिये उन्हें निकालकर चतुर शिल्पियों द्वारा उनके बिम्ब बनाये जाय और वर्तमान खंडित मूर्तियों की जगह स्थापित किये जाय तो अच्छा है; यह विचार कर तोलासाह ने धर्मरत्नसूरि से अपना यह विचार सफल होगा या नहीं, इस विषय का उपर्युक्त प्रश्न किया था । धर्मरत्नसूरि ने प्रश्न का फलाफल विचार कर तोलासाह से कहा कि-'हे सज्जन शिरोमणि ! तेरे चित्त रूप क्यारे में शत्रुजय के उद्धार स्वरूप जो मनोरथ का बीज बोया गया है, वह तेरे इस छोटे पुत्र से फलवाला होगा । और जिस तरह समरासाह के उद्धार में हमारे पूर्वजों-आचार्यों ने प्रतिष्ठा करने का लाभ प्राप्त किया था, वैसे तेरे पुत्रकर्मासाह के उद्धार में हमारे शिष्य प्राप्त करेंगे ।' तोलासाह सूरिजी का यह कथन सुनकर हर्ष और विषाद का एक साथ अनुभव करने लगा । हर्ष इसलिये था कि, अपने पुत्र के हाथ से यह महान कार्य १४४९ में बनाये हुए गिरनार तीर्थ पर के श्रीविमलनाथप्रासाद की प्रशस्ति का है । यह प्रशस्ति आज उपलब्ध नहीं है । कोई ३५० वर्ष पहले बनी हुई 'बृहत्पोशालिक पट्टावलि' में इस प्रशस्ति का उल्लेख है तथा इसके बहुत से पद्य भी उल्लिखित हैं । उन्हीं पद्यसमूहों में यह ऊपर का पद्य भी सम्मिलित है । इसका पद्यांक ७२ वां है । 2010_02 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक सार - भाग सफल होगा और विषाद इसलिये था कि अपना आत्मा यह महत्पुण्य उपार्जन न कर सका । कर्मासाह यद्यपि उस समय कुमारावस्था में ही था, परंतु पिता की इस इच्छा के पूर्ण करने का तभी से संकल्प कर गुरुमहाराज के शुभ वचनों की शकुनग्रंथी बांध ली । चित्रकोट की यात्रा वगैरह कर चूकने पर संघने आगे चलने का प्रयत्न किया । तोलासाह ने धर्मरत्नसूरि को वहीं ठहरने के लिये अत्यंत आग्रह किया । सूरिने कहा, 'महाभाग ! विवेकी होकर हमें अपनी यात्रा में क्यों अन्तराय डालना चाहते हों ।' इस पर सेठ बड़ा उदासीन हुआ, तब उसके चित्त को सन्तुष्ट करने के लिये अपने शिष्य विनयमंडन नामक पाठक को वहीं पर रख दिये । सूरि संघ के साथ यात्रा के लिये प्रस्थित हो गये । विनयमंडन पाठक के समीप में तोलासाह आदि श्रावक वर्ग उपधान वगैरह तपश्चर्यादि धर्मकृत्य करने लगा रत्नासाह आदि तोलासाह के पांचों पुत्र भी पाठक के पास षडावश्यक, नवतत्त्व और भाष्यादि धर्मग्रंथों का अभ्यास करने लगे । भाविकाल में महान कार्य करनेवाले कर्मासाह ऊपर, अपने गुरु के कथन से उपाध्यायजी सबसे अधिक प्रेम रखने लगे । एक दिन कर्मासाह ने विनयपूर्वक विनयमंडन जी से कहा कि, 'महाराज ! आपके गुरु के वचन को सत्य सिद्ध करने के लिये आपको मेरे सहायक बनना पडेगा ।' उपाध्यायजी ने हँस कर मीठे वचन से कहा कि, 'महाभाग ! ऐसे सर्वोत्तम कार्य में कौन सहाय करना नहीं चाहता ?' तदनन्तर कोई अच्छा अवसर देखकर उन्होंने कर्मासाह को 'चिन्तामणि महामंत्र' आराधन करने के लिये विधिपूर्वक प्रदान किया । उपाध्यायजी, कई महिने तक चित्रकोट में रहे और ज्ञान, ध्यान, तप और क्रिया आदि मुनिवृत्ति द्वारा श्रावकों के चित्त को आनंदित करते हुए यथायोग्य सबको उचित उचित धर्मकार्यों में लगाया । कर्मासाह 2010_02 ४५ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ऐतिहासिक सार-भाग को तीर्थोद्धार विषयक प्रयत्न में लगे रहने का वारंवार उपदेश कर उपाध्यायजी वहां से फिर अन्यत्र विहार कर गये । कुछ वर्ष बाद तोलासाह अपने धर्मगुरु श्रीधर्मरत्नसूरि का स्मरण करता हुआ, न्यायोपार्जित धन को पुण्य क्षेत्रों में वितीर्ण करता हुआ और सर्व प्रकार के पापों का पश्चात्तापपूर्वक प्रत्याख्यान करता हुआ, स्वर्ग के सुखों का अनुभव करने के लिये इस संसार को छोड गया । पिता के विरह से सब पुत्र शोकग्रस्त हुए, लेकिन संसार के अचल नियम का स्मरण कर समय के जाने पर शोकमुक्त होकर अपने अपने व्यावहारिक कर्तव्यों का यथेष्ट पालन करने लगे । छोटा पुत्र कर्मासाह कपडे का व्यापार करता था, जिसमें वह दिन प्रतिदिन उन्नति पाता हुआ सज्जनों में अग्रेसर गिना जाने लगा । वह दैवसिक और रात्रिक दोनों संध्याओं में निरंतर प्रतिक्रमण करता था । त्रिकाल भगवत्पूजा और पर्व के दिनों में पौषध वगैरह भी नियमित करता रहता था । धर्म और नीति के प्रभाव से थोडे ही वर्षों में उसने क्रोडों रुपये पैदा किये । हजारों वणिक पुत्रों को व्यवहार कार्य में लगाकर उन्हें सुखी कुटुंबवाले बनाये । शीलवती और रूपवती ऐसी अपनी दोनों* प्रियाओं के साथ कौटुंबिक सुख का आनंदप्रद अनुभव करता हुआ, पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र और स्वजनादि के बीच में साक्षात इन्द्र की तरह वह साह शोभने लगा । निरन्तर याचकजनों की कल्पवृक्ष की समान इच्छित दान दे देकर दुखियों के दु:खों का नाश करने लगा । इस तरह सब प्रकार का पुरुषार्थ साधकर बाल्यावस्था में जिस प्रतिज्ञा का स्वीकार किया था, उसके पूर्ण करने का सतत प्रयत्न करता हुआ कर्मासाह जैन धर्म और जिनदेव की सदैव सेवा-उपासना करने लगा । ___* लावण्यसमय वाली प्रशस्ति में कर्मासाह के कुटुंब के कुछ मनुष्यों के नाम दिये हुए हैं, जिसमें इन दोनों पतिव्रताओं के नाम भी सम्मिलित हैं । पहली स्त्री का नाम कपूरदेवी और दूसरी का नाम कमलादेवी था । कमलादेवी से एक पुत्र हुआ था, जिसका नाम भीषजी था । पुत्र के सिवा ४ पुत्रीयाँ भी थी । सबका नामोल्लेख वंशवृक्ष में किया गया है । 2010_02 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ ऐतिहासिक सार-भाग उद्धार-वर्णन (दूसरा उल्लास) चापोत्कट (चावडा) वंश के प्रसिद्ध नृपति वनराज ने गुजरात की (मध्यकालीन) राजधानी अणहिल्लपुर-पाटण को बसाया बाद, *वनराज, योगराज, क्षेमराज, भूयड, वज्र, रत्नादित्य और सामन्त सिंह नामक ७ चावडा राजाओं ने उसमें राज्य किया । उनके बाद मूलराज, चामुंडराज, वल्लभराज, दुर्लभराज, भीमराज, कर्णराज, जयसिंह (सिद्धराज), कुमारपाल, अजयपाल, लघुमूलराज और भीमराज ने - इन ११ चौलुक्य (सोलंकी) नृपतियों ने गुजरात का शासन किया । चौलुक्यों के बाद वाघेला वंश के वीरधवल, वीसल, अर्जुनदेव, सारङ्गदेव और कर्ण नामक पांच राजाओं का राज्य रहा । संवत् १३५७ में अलाउद्दीन के सैन्य ने कर्णराजा का पराजय कर पट्टन में अपना अधिकार जमाया । __विक्रम संवत् १२४५ में मुसलमानों ने भारत की राजधानी दिल्ही को अपने आधिन में लिये बाद अलाउद्दीन तक १५ बादशाहों ने वहां पर अधिकार किया । उनके नाम इस प्रकार है - __२१ महिमद, ४ कुतुबुद्दीन २ सांजरसाहि, शाहबुद्दीन ३ मोजद्दीन, रुकमद्दीन * इन सब राजाओं ने कितने कितने समय तक राज्य किया है, इसका उल्लेख, मूल प्रबन्ध के अन्त में जो 'राजावली-कोष्टक' किया है, उसमें स्वयं प्रबन्धकार ने कर दिया है । १. टिप्पणी में लिखा है कि, किसी किसी जगह अजयपाल के बाद त्रिभुवनपाल का नाम लिखा हुआ मिलता है, लेकिन वीरधवल के पुरोहित सोमेश्वर कवि की बनाई हुई 'कीर्तिकौमुदी' में वह नहीं गिना गया है, इसलिये हमने भी उसका उल्लेख नहीं किया । २. इन सब मुसलमान बादशाहों के राज्यकाल का भी मान 'राजावली कोष्ठक' में दिया हुआ है । ___ 2010_02 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ऐतिहासिक सार-भाग ७ जुआ बीबी मोजद्दीन ९ अलाउद्दीन १० नसरत ११ ग्यासद्दीन १२ मोजद्दीन १३ समसूद्दीन १४ जलालुद्दीन १५ वाँ बादशाह अलाउद्दीन हुआ । वह संवत् १३५४ में दिल्ली के तख्त पर बैठा । उसने ठेठ गुजरात से लेकर लाभपुर (लाहौर) तक का प्रदेश जीता था । अलाउद्दीन से लेकर, कुतुबुद्दीन, शाहबुद्दीन, खसरबदीन, ग्यासबदीन और महिमुद तक के दिल्ली के ६ बादशाहों ने गुजरात का शासन चलाया । उनकी आज्ञा से क्रमशः अलूखान (अलपखान), खानखाना, दफरखान और ततारखान पाटन के सुबेदार रहे । पीरोजशाह के समय में गुजरात स्वतंत्र हुआ और गुजरात की जुदी बादशाही शुरू हुई । संवत् १४३० में मुजफ्फर नामका हाकिम गुजरात का पहला बादशाह बना ।* * राजावली कोष्टक में, इसने २४ वर्ष राज्य किया ऐसा लिखा हुआ है । उसमें इसके सदूमलिक (?), उजहेल (?) और मुजफ्फर, इस प्रकार तीन नाम लिखे हैं, जिनमें प्रथम के दो का कुछ भी अर्थ ज्ञात नहीं होता । तवारिखों में इसका पहला नाम जफरखान मिलता है । इसके बादशाह होने की तारीख तवारिखों में अलग अलग मिलती है । रासमाला में ई. सन् १३९१ (संवत् १४४७) का उल्लेख है । अन्यान्य ग्रन्थों में ई. सन् १४०७-८ (संवत् १४६३-४) मिलता है । कोष्ठक में लिखा है कि पूर्वावस्था में कुछ उपकार करने के कारण फिरोजशाह बादशाह ने अपना उपकारी समझकर इसे गुजरात का राज्य दिया । तवारिखों में इसके विषय में जो कुछ लिखा हुआ है, उसका मतलब इस प्रकार है, फिरोज तुगलक, बादशाह बनने से पहले, एक दफा पंजाब के जंगल में शिकार खेलने गया था । वहां पर वह भूला पड गया और इधर उधर भटकता हुआ टांक जाति के राजपूतों के एक गांव में जा पहुंचा । शाहरान और साधु नामक दो राजपूत भाईयों ने उसका स्वागत किया और कुछ दिन तक अपने घर पर रक्खा । उनकी एक बहन थी, जिसके साथ फिरोज का प्रेम हो जाने से उसको ब्याह कर वह दिल्ली ले गया । साथ में वे दोनों भाई भी दिल्ली गये और फिरोज के कथन से उन्होंने वहां पर इस्लाम धर्म का स्वीकार किया । शाहरान का नाम वजीहुल्मुल्क और साधु का नाम समशेरखान रक्खा गया । जब फिरोज बादशाह बना 2010_02 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक सार-भाग ४९ ___ मुजफ्फरशाह की मृत्यु बाद संवत् १४५४* में अहमदशाह गद्दी पर बैठा । उसने संवत् १४६८४ में साबरमती नदी के किनारे, जहाँ प्राचीन कर्णावती नगरी थी, वहाँ पर, अपने नाम से अहमदाबाद शहर बसाया था और पट्टन के बदले उसे अपनी कायम की राजधानी बनाया । अहमदशाह के पीछे उसका बेटा महंमदशाह बादशाह हुआ, उसके बाद कुतुबुद्दीन और फिर महमूद बादशाह बना । वह महमूद बेगडा के नाम से प्रसिद्ध है । उसने जूनागढ और पावागढ (चांपानेर) के प्रसिद्ध किल्लों को जीत कर अपने राज्य में मिलाये । महमूद के बाद मुजफ्फर दूसरा बादशाह हुआ । वह लक्षण, साहित्य, ज्योतिषशास्त्र और संगीत आदि विद्याओं का अच्छा जाननेवाला था । विद्वानों को आधारभूत और वीरपुरुष था । उसने अपनी प्रजा का, पुत्रवत् पालन किया था । उसके कई पुत्र थे, जिनमें सिकंदर सबसे बडा था । उसने नीति, शक्ति और भक्ति से अपने पिता का और प्रजा का दिल अपनी ओर आकृष्ट कर लिया था । उसका छोटा भाई बहादुरखान नामक था, जो बड़ा उद्भट, साहसिक और शूरवीर था । उसने पूर्वकाल के तब समशेरखान और वजीहुल्मुल्क के बेटे जफरखान को अमीरपद दिया गया । कुछ समय बाद जफरखान को गुजरात का सुबा बनाकर पाटन भेजा गया । फिरोजशाह के मर जाने पर उसने अपने को गुजरात का स्वतंत्र अधिकारी मानकर अपने बेटे तातारखान को, नासिरुद्दीन महम्मदशाह के नाम से गुजरात का स्वतंत्र सुलतान जाहिर किया । महम्मद ने आसावल्ली (जो पीछे से अहमदाबाद कहलाया) को राजधानी बनाया और दिल्ली के बादशाह को जीतने के लिये रवाना हुआ । रास्ते में पाटन में किसीने जहर देकर उसे मार डाला । उसके मर जाने पर, बड़े बड़े अमीरों के कथन से जफरखान स्वयं तख्त पर बैठा और मुजफरशाह के नाम से खुद को गुजरात का बादशाह जाहिर किया । ___ * तवारिखों में सन् १४११ ईस्वी (सं. १४६७) लिखा हुआ है । x राजावली कोष्टक में अहमदाबाद के स्थापन की मीती वैशाख वदि ७ रविवार और पुष्यनक्षत्र के दिन की लिखी है । आईन-ए-अकबरी में सन् १४११ और फिरस्ता में सन् १४१२ की साल है । 2010_02 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ऐतिहासिक सार-भाग नृपपुत्रों के चरित्रों का विशेष अवलोकन किया था । इसलिये उनकी तरह उसका भी मन देशाटन कर अपने ज्ञान की वृद्धि करने का हो गया । कितनेक नोकरों को साथ लेकर वह अहमदाबाद से प्रदेश की मुसाफरी करने के लिए निकल गया* । नाना गाँवो और शहरो में होता हुआ वह क्रम से चित्रकूट (चित्तोड) पहुंचा । वहां पर, महाराणा ने उसका यथोचित सत्कार किया । उपर उल्लेख हो चूका है कि, कर्मासाह कपडे का व्यापार करता था । बंगाल और चीन वगैरह देश-विदेशों से करोडों रुपये का माल उसकी दुकान पर आता जाता था । इस व्यापार में उसने अपरिमित रूप में द्रव्यप्राप्ति की थी । शाहजादा बहादुरखान ने भी कर्मासाह की दुकान से बहुत सा कापड खरीद किया । इससे साह की शाहजादा के साथ अच्छी मैत्री हो गई । स्वप्न में गौत्रदेवी ने आ कर कर्मासाह से कहा कि, “इस शाहजादा से तेरी ईष्ट सिद्धि होगी" इसलिये उसने खान-पान, वसन और प्रिय वचन से मुसाफर शाहजादा का बहुत सत्कार किया । बहादुरखान के पास इस समय खर्ची बिलकुल खूट गई थी, इसलिये कर्मासाह ने उसे एक लाख रुपये बिना किसी शरत के मुफ्त में दिये । शाहजादा इससे अति आनंदित हुआ और साह से कहने लगा कि, 'हे मित्रवर ! जीवन पर्यंत मैं तुम्हारे इस एहसान को न भूल सकूँगा ।' इस पर कर्मासाह ने कहा कि, 'आप ऐसा न कहें । आप तो हमारे मालिक हैं और हम आपके सेवक हैं । केवल इतनी अर्ज है कि कभी कभी इस जन का स्मरण किया करें और जब आपको राज्य मिले, तब शत्रुजय के उद्धार करने की जो मेरी ____ * तवारिखों में तो लिखा है कि, "शाहजादा बहादुरखान, पिता ने अपने को थोडी सी. जागीर देने के कारण नाराज होकर गुजरात को छोड हिन्दुस्तान में चला गया और मुजफ्फर शाह ने बड़े बेटे सिकन्दरखान को अपना उत्तराधिकारी बनाकर बादशाह बनाया ।" (गुजरातनो अर्वाचीन इतिहास ।) 2010_02 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक सार-भाग ५१ एक प्रबल उत्कंठा है, उसे पूर्ण करने दें ।' शाहजादा ने साह की इच्छा पूर्ण करने देने का वचन दिया और फिर उसकी अनुमति लेकर वहाँ से अन्यत्र गमन किया । इधर गुजरात में मुजफ्फरशाह की मृत्यु हो गई और उसके तख्त पर सिकन्दर बैठा । वह अच्छा नीतिवान् था, लेकिन दुर्जनों ने उसे थोडे ही दिनों में मार डाला । यह वृत्तांत जब बहादुरखान ने सुना तो वह शीघ्र गुजरात को लौटा और चांपानेर पहुंचा । वहीं संवत् १५८३ के भाद्रपद मास की शुक्ल द्वितीया और गुरुवार के दिन, मध्याह्न समय में उसका राज्याभिषेक हुआ और बहादुरशाह नाम धारण किया* । बहादुरशाह ने अपने राज्य की लगाम हाथ में लेकर पहले पहले जितने स्वामीद्रोही, दुर्जन और उद्धत मनुष्य थे, उन सब को कडी शिक्षा दी; किसीको मार डाला, किसीको देशनिकाल किया, किसीको कैद में डाला, किसीको पदभ्रष्ट किया और किसीको लूट लिया । उसके प्रताप के डर के मारे निरंतर अनेक राजा आकर बडी बडी भेंटें सामने धरने लगे । पूर्वावस्था में जिन जिन मनुष्यों ने उस पर उपकार या अपकार किया था, उन सबको क्रमशः अपने पास बुला बुलाकर यथायोग्य सत्कार या तिरस्कार कर कृतकर्म का फल पहुंचाने लगा । सुकर्मी कर्मासाह को भी, उसके किये हुए नि:स्वार्थ उपकार को स्मरण कर, बडे आदर के साथ कृतज्ञ बदशाह ने अपने ___ 'गुजरातनो अर्वाचीन इतिहास' नामक पुस्तक में लिखा है कि, "सिकंदर शाह ने थोडे महिने राज्य किया, इतने में इमादुल्मुल्क खुशकदम नाम के अमीर ने उसे मार डाला और उसके छोटे भाई नासिरखान को महमूद दूसरा, इस नाम से बादशाह बनाकर, उसकी और से स्वयं राज्य करने लगा । लेकिन दूसरे अमीर उसके विरोधी बनकर बहादुरखान जो हिन्दुस्तान से वापस आया था, उसके साथ मिल गये । बहादुरखान के पक्ष के अमीरों में धंधुका का मलिक ताजखान मुख्य था । बहादुरखान एकदम कूच कर चांपानेर पहुंचा । वहाँ उसने इमादुल्मुल्क को पकड कर मार डाला और नासिरखान को जहर देकर, स्वयं बहादुरशाह नाम धारण कर, १५२७ ई. में तख्त पर बैठा ।" 2010_02 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक सार-भाग पास बुलाने के लिये आह्वान भेजा । साह भी आमंत्रण आते ही भेंट के लिये अनेक बहुमूल्य चीजें लेकर उसके पास पहुंचा । बहादुरशाह ने साह के सामने आते ही ऊठकर दोनों हाथों से बड़े प्रेम के साथ उसका आलिङ्गन किया । अपने सभामंडल के आगे कर्मासाह की निष्कारण परोपकारिता की खूब प्रशंसा करता हुआ बोला कि-"यह मेरा परम मित्र है । जिस समय बुरी दशा ने मुझे बे तरह तंग किया था, तब इसी दयालु ने उससे मेरा छूटकारा करवाया था ।" बादशाह के मुंह से इन शब्दों को सुनकर कर्मासाह बीच ही में एकदम बोलकर उसे आगे बोलने से बंध किया और कहा कि, "हे शहेनशाह ! इतना बोझा मुज पर न रक्खें, मैं इसे ऊठाने में समर्थ नहीं हूं । मैं तो केवल आपका एक सेवक मात्र हूं । मैंने कोई ऐसा कार्य नहीं किया है कि, जिससे आप मेरी इतनी तारीफ करें ।" इस तरह परस्पर मैत्रीपूर्ण संभाषण हो चूकने पर बादशाह ने साह को ठहरने के लिए अपने शाही महल का एक सुंदर भाग खोल दिया । उसकी खातिर-तवज्जा के लिये सब प्रकार का उत्तम बन्दोबस्त किया गया । बाद में कर्मासाह देव-गुरु के दर्शन के लिये अच्छे ठाठ-पाट से जिनमंदिर और जैन उपाश्रय में गया । विधिपूर्वक देव और गुरु का दर्शन-वंदन किया । नाना प्रकार के वस्त्र, आभूषण और मिष्टान्न याचकों को दान में दिये । श्रीसोमधीर गणि नामक विद्वान यति वहां पर बिराजमान थे, जिनके पास कर्मासाह सदैव धर्मोपदेश सुनने और आवश्यकादि धर्मकृत्य करने के लिये जाया करने लगा । ___ इस प्रकार निरन्तर पूजा, प्रभावना और साधर्मिकवात्सल्यादि करता हुआ साह सावधान होकर बादशाह के पास रहने लगा । कुछ दिन बाद श्री विद्यामंडनसूरि और विनयमंडन पाठक को कर्मासाह ने अपने आगमनसूचक तथा बादशाह की मुलाकात वगैरह के वृत्तान्तवाले पत्र लिखे । बादशाह ने साह के पास से पहले चित्तोड में जो कुछ 2010_02 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक सार-भाग द्रव्य लिया था, वह सब उसने वापिस दिया । एक दिन बादशाह खुश होकर बोला कि, "हे मित्रवर ! मैं तुम्हारा क्या इष्ट कर सकू ? मेरा दिल खुश करने के लिये मेरे राज्य में से कोई देश इत्यादि का स्वीकार करो ।' साह ने कहा, "आपकी कृपा से मेरे पास सब कुछ है । मुझे कुछ भी वस्तु नहीं चाहिए । मैं केवल एक बात चाहता हूं कि, शत्रुजय पर्वत पर मेरी कुलदेवी की स्थापना हों । उसके लिये मैंने कई कठिन अभिग्रह कर रक्खे हैं । यह बात मैंने पहले भी आपसे चित्रकूट में, आपके विदेश जाते समय कही थी और जिसके करने का आपने वचन भी प्रदान किया था । उस वचन के पूर्ण करने का अब समय आ गया है, इसलिये वैसा करने की आज्ञा है ।" यह सुनकर बादशाह बोला कि, "हे साह ! तुम्हारी जो इच्छा हो वह निःशंक होकर पूर्ण करो । मैं तुम्हें अपना यह शासनपत्र (फरमान) देता हूं, जिससे कोई भी मनुष्य तुम्हारे कार्य में प्रतिबंध नहीं कर सकेगा।" यह कहकर बादशाह ने एक शाही फरमान लिख दिया, जिसे लेकर, अच्छे मुहूर्त में कर्मासाह ने वहां (चांपानेर) से शीघ्र ही प्रयाण किया । आकाश को शब्दमय कर देनेवाले वाजिंत्रो के प्रचंड घोषपूर्वक साह ने शहर से निर्गमन किया । चलते समय सुवासिनी स्त्रियों ने मंगल कृत्य कर उसके सौभाग्य को बधाया । बहार निकलते समय बहुत अच्छे शकुन हुए, जिन्हें देखकर कर्मासाह के आनंद का वेग बढने लगा । रास्ते में स्थान स्थान पर सेंकडों बंदिजनों ने साह का यशोगान किया, जिसके बदले में उसने, उनके प्रति धन की धारा बरसाई । हाथी, घोडे और रथ पर चढे हुए अनेक संघजनों से परिवृत होकर रथारूढ कर्मासाह क्रमशः शत्रुजय की ओर आगे बढ़ने लगा। मार्ग में स्थान स्थान पर जितने जैन चैत्य आते थे, उन प्रत्येक में स्नात्र महोत्सव और ध्वजारोपण करता हुआ, जिनते उपाश्रयों में जैन 2010_02 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ऐतिहासिक सार-भाग साधु मिलते थे, उनके दर्शन-वंदन कर वस्त्र-पात्रादि दान देता हुआ, जितने दरिद्रलोक दृष्टिगोचर होते थे, उनको यथायोग्य द्रव्य की सहायता पहुंचाता हुआ और चीडीमार-मच्छीमार आदि हिंसक मनुष्यों को उनके पापकर्म से मुक्त करता हुआ, शत्रुजयोद्धारक वह परम प्रभावक श्रावक स्तंभतीर्थ (खंभात) को पहुंचा। स्तंभनतीर्थवासी जैन समुदाय ने बडे महोत्सवपूर्वक कर्मासाह का नगर प्रवेश कराया । स्तंभनक पार्श्वनाथ और सीमंधर तीर्थंकर के मंदिरों में दर्शन कर साह पौषधशाला (उपाश्रय) में गया । वहाँ पर श्री विनयमंडन पाठक बिराजमान थे, उनको बड़े हर्षपूर्वक वंदन कर सुखप्रश्नादि पूछे । बाद में साह कहने लगा कि, "हे सुगुरु ! आज मेरा दिन सफल है, जो आपके दर्शन का लाभ मिला । भगवन् ! पहले जो आपने मुझे जिस काम के करने की सूचना की थी, उसके करने की अब स्पष्ट आज्ञा दें । आप समस्त शास्त्र के ज्ञाता और सब योग्य क्रियाओं में सावधान हैं, इसलिये मुझे जो कर्तव्य और आचरणीय हो, उसका आदेश दीजिए । लोकों में साधारण वस्तु का उद्धार-कार्य भी पुण्य के लिये होना-माना गया है, तो फिर शत्रुजय जैसे पर्वत पर जिनेन्द्र जैसे परम पुरुष की पवित्र प्रतिमा के उद्धार का तो कहना ही क्या है ? वह तो महान अभ्युदय (मोक्ष) की प्राप्ति करानेवाला है । पूज्य ! आप ही का किया हुआ, यह उपदेश आपके सन्मुख मैं बोल रहा हूँ, इसलिये मेरी इस धृष्टता पर क्षमा करें ।" साह के इस प्रकार बोले रहने पर पाठक जरा मुस्कुराये, परंतु उत्तर कुछ नहीं दिया । बाद में उन्होंने यथोचित सारी सभा के योग्य धर्मोपदेश दिया, जिसे सुनकर सब ही खुश और उपकृत हुए । अन्त में कर्मासाह को पाठक ने कहा कि, "हे विधिज्ञ ! जो कुछ करना है, वह तो तुम सब जानते ही हो । हमारा तो केवल इतना ही कथन है कि, अपने कर्तव्य में शीघ्रता करो । अवसर आने पर हम भी अपने 2010_02 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ ऐतिहासिक सार-भाग कर्तव्य का पालन कर लेंगे । शुभकार्य में कौन मनुष्य उपेक्षा करता है ?" मुनि-उचित इस प्रकार के संभाषण को सुनकर व्यंगविज्ञ कर्मासाह ने पाठक के आगमन की इच्छा को जान लिया और फिर से उनको नमस्कार कर वहां से रवाना हुआ । पांच छ ही दिन में साह वहां पहुंचा, जहां से शत्रुजय गिरि के दर्शन हो सकते थे । गिरिवर के दृष्टिगोचर होते ही, जिस तरह मेघ के दर्शन से मोर और चन्द्र के दर्शन से चकोर आनंदित होता है, वैसे साह भी आनंदपूर्ण हो गया । वहीं से उसने सुवर्ण और रजत के पुष्पों से तथा श्रीफलादि फलों से सिद्धाचल को बधाया । याचकों को दान देकर संतुष्ट किया । गिरिवर को भावपूर्वक नमस्कार कर फिर इस प्रकार स्तुति करने लगा, "हे शैलेन्द्र ! इच्छित देनेवाले कल्पवृक्ष की समान बहुत काल से तेरे दर्शन किये हैं । तेरा दर्शन और स्पर्शन दोनों ही प्राणीयों के पाप का नाश करनेवाले हैं । ऐहिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के सुखों के देनेवाले तेरे दर्शन किये बाद स्वर्गादिकों में भी मेरा संकल्प नहीं है । स्वर्गादि सुखों की श्रेणि के दाता और दुःख तथा दुर्गति के लिये अर्गला समान है गिरीन्द्र ! चिरकाल तक जयवान रहो ! तूं साक्षात पुण्य का परम मंदिर है । जिनके लिये हजारों मनुष्य असंख्य कष्ट सहन करते हैं, वे चिंतामणि आदि चीजें तेरा कभी आश्रय ही नहीं छोडती हैं । तेरे एक एक प्रदेश पर अनंत आत्मा सिद्ध हुए हैं इसलिये जगत में तेरे जैसा और कोई पुण्यक्षेत्र नहीं है । तेरे ऊपर जिनप्रतिमा हों अथवा नहीं, तू अकेला ही अपने दर्शन और स्पर्शन द्वारा लोगों के पाप का नाश करता है । सीमंधर तीर्थंकर जैसे जो भारतीय जनों की प्रशंसा करते हैं, उसमें तुझे छोडकर और कोई कारण नहीं है ।" इस प्रकार की स्तवना कर, अंजलि जोडकर पुनर्नमस्कार किया और फिर वहां से आगे 2010_02 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ ऐतिहासिक सार-भाग चला । अपने सारे समुदाय के साथ शत्रुजय की जड में-आदिपुर पद्या (तलहटी) में जाकर वास स्थान बनाया । इस समय सौराष्ट्र का सूबा मयादखान (गुझाहिदखान) था । वह कर्मासाह के इस कार्य से दिल में बडा जलता था, परंतु अपने मालिक (बहादुरशाह) की आज्ञा होने से कुछ नहीं कर सकता था । गूर्जर वंश के रविराज और नृसिंह ने कर्मासाह को अपने कार्य में बहुत साहाय्य दिया । खंभायत से विनयमंडन पाठक भी साधु और साध्वी का बहुत सा परिवार लेकर सिद्धाचल की यात्रा के उद्देश से कुछ समय बाद वहां पर आ पहुंचे । गुरुमहाराज के आगमन से कर्मासाह को बडा आनंद हुआ और अपने कार्य में दुगुना उत्साह हो आया । पाठकवर ने समरा आदि गोष्ठिकों को बुलाकर महामात्य वस्तुपाल के लाये हुए मम्माणी खान के दो पाषाणखंड जो भूमिगृह में गुप्त रूप से रक्खे हुए थे, मांगे । गोष्ठिकों के दिल को खुश और वश करने के लिये कर्मासाह ने गुरु महाराज के कथन से उनको इच्छित से भी अधिक धन देकर वे दोनों पाषाणखंड लिये और मूर्ति बनाने का प्रारंभ किया । अपने अन्यान्य कौटुम्बिकों के कल्याणार्थ कुछ प्रतिमायें बनवाने के लिये और भी कितने ही पाषाणखंड, जो पहले के पर्वत पर पडे हुए थे, लिये । सूत्रधारों (कारीगरों) को निर्माण कार्य में योग्य शिक्षा ___* टिप्पणी में लिखा है कि- आदिपुर पद्या (तलहटी) में जो कर्मासाह ने वासस्थान रक्खा, उसका कारण सूत्रधारों (कारीगरों) को ऊपर जाने-आने में सुविधा रहे, इसलिये था । बाद में प्रतिष्ठा के समय जब बहुत लोग इकट्ठा हुए, तब वहां से स्थान ऊठाकर पालीताणा में रक्खा था । क्योंकि वहां पानी आदि की तंगाईस पड़ने लगी थी । १. लावण्यसमय की प्रशस्ति में (देखो, श्लोक-२७) रविराज (या रवा) और नृसिंह-इन दोनों को मयादखान (मुझाहिदखान) के मंत्री (प्रधान) बतलाये हैं । डॉ. बुल्हर के कथनानुसार ये जैन थे । (देखो, एपिग्राफिआ इन्डिका प्रथम पुस्तक) 2010_02 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक सार-भाग देने के लिये, पाठकवर्यने, वाचक विवेकमंडन और पंडित विवेकधीर नामक अपने दो शिष्यों को, जो वास्तुशास्त्र (शिल्पविद्या) के विशेषज्ञ विद्वान् थे, निरीक्षक के स्थान पर नियुक्त किये । उनके लिये शुद्धनिर्दोष आहार-पानी लाने का काम क्षमाधीर प्रमुख मुनियों को सौंपा । और बाकी के जितने मुनि थे, वे सब संघ की शांति के लिये छट्ठअट्ठमादि के विशेष तप तपने लगे । रत्नसागर और जयमंडन नामके दो यतियों ने छमासी तप किया । व्यंतर आदि नीच देवों के उपद्रवों के शमनार्थ पाठकवर्य ने सिद्धचक्र का स्मरण करना शुरू किया । इस प्रकार वे सब धर्म के सार्थवाह तप, जप, क्रिया, ध्यान और अध्ययनरूपी अपने धर्मव्यापार में बहुत कुछ प्राप्त करते हुए रहने लगे। सूत्रधारों के मन को आवर्जित करने की इच्छा से कर्मासाह निरंतर उनको खाने के लिये अच्छे अच्छे भोजन और पीने के लिये गरम दूध आदि चीजें दिया करता था । पर्वत पर चढने के लिये डोलियों का भी यथेष्ट प्रबन्ध कर दिया गया था । अधिक क्या ! सेंकडों ही वे सूत्रधार जिस समय, जिस चीज की इच्छा करते थे उसे, उसी समय कर्मासाह द्वारा अपने सामने रक्खी हुई पाते थे । इस तरह साह की सुव्यवस्था और उदारता से आवर्जित होकर सूत्रधार भी दत्तचित्त होकर अपना काम करते थे और जो कार्य महिने भर में किये जाने योग्य था, उसे वे दस ही दिन में पूरा कर देते थे । उन कारीगरों ने सब प्रतिमायें बहुत चतुरता के साथ तैयार की और सब अवयव वास्तुशास्त्र के उल्लेख मुजब यथास्थान सुन्दराकार बनाये । अपराजित शास्त्र में लिखे हुए लक्षण मुताबिक, 'आय-भाग के ज्ञाता ऐसे उन कुशल * यह शिल्पशास्त्र का प्रामाणिक और अत्युत्तम ग्रंथ है । यह अब संपूर्ण नहीं मिलता । पाटन के प्राचीन-भाण्डागार में इसका कितनाक भाग विद्यमान है । १. मंदिरों और भुवनों के उंच-नीच भागों का वास्तुशास्त्र में अलग अलग आय के नाम से व्यवहार किया जाता है । 2010_02 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ऐतिहासिक सार - भाग कारीगरों ने थोडे ही काल में अद्भुत और उन्नत मंदिर तैयार किया । इस प्रकार जब सब प्रतिमायें लगभग तैयार हो गई और मंदिर भी पूर्ण बन चूका, तब शास्त्रज्ञाता विद्वानों ने प्रतिष्ठा के मुहूर्त निर्णय करना शुरू किया । इसके लिये कर्मासाह ने दूर दूर से, आमंत्रण कर कर, ज्ञान और विज्ञान के ज्ञाता ऐसे अनेक मुनि, अनेक वाचनाचार्य, अनेक पंडित, अनेक पाठक, अनेक आचार्य, अनेक गणि, अनेक देवाराधक और निमित्त शास्त्र के पारंगत ऐसे अनेक ज्योतिषी बुलाये । उन सब ने एकत्र होकर अपनी कुशाग्र बुद्धि द्वारा, सूक्ष्म विवेचनापूर्वक प्रतिष्ठा के शुभ और मंगलमय दिन का निर्णय किया । फिर कर्मासाह को वह दिन बताया गया और सभी ने शुभाशीर्वाद देकर कहा कि, "हे तीर्थोद्धारक महापुरुष ! संवत् १५८७ के वैशाख वदि (गुजरात की गणना से चैत्र वदि) ६, रविवार और श्रवण नक्षत्र के दिन जिनराज की मूर्ति की प्रतिष्ठा का सर्वोत्तम मुहूर्त है, जो तुम्हारे उदय के लिये हो ।" कर्मासाह ने, उनके इस वाक्य को हर्षपूर्वक अपने मस्तक पर चढाया और यथायोग्य उन सबका पूजन - सत्कार किया । मुहूर्त का निर्णय हो जाने पर कुंकुम पत्रिकायें लिख लिखकर पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण- चारों दिशाओं के जैन संघों को इस प्रतिष्ठा पर आने के लिये आमंत्रण दिये गये । आचार्य श्रीविद्यामंडनसूरि को आमंत्रण करने के लिये साहने अपने बडे भाई रत्नासाह को भेजा । कुंकुम पत्रिकायें पहुंचते ही चारों तरफ से, बडी बडी दूर से संघ आने लगे । अंग, बंग, कलिंग, काश्मीर, जालंधर, मालव... लाट, सौराष्ट्र, गुजरात, मगध, मारवाड और मेवाड आदि कोई भी देश ऐसा न रहा कि जहां पर कर्मासाह ने आमंत्रण न भेजा हो अथवा बिना आमंत्रण के भी जहां के मनुष्य उस समय न आने लगे हों । कहीं से हाथी प्रतिष्ठामुहूर्त की लग्नकुंडली राजावलीकोष्टक के अन्त में दी हुई है । X 2010_02 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक सार-भाग पर, कहीं से घोडे पर, कहीं से रथ पर, कहीं से बेल पर, कहीं से पालखी पर और कहीं से ऊँट पर सवार होकर मनुष्यों के झुंड के झूड शत्रुजय पर आने लगे । रत्नासाह, विद्यामंडनसूरि के पास पहुंचा और हर्षपूर्वक नमस्कार तथा स्तवना कर गिरिराज की प्रतिष्ठा पर चलने के लिये संघ के सहित आमंत्रण किया । सूरिजी ने कहा, "हे महाभाग ! पहले तुमने जब चित्तोड पर पार्श्वनाथ और सुपार्श्वनाथ का अद्भुत मंदिर बनवाया था, तब भी तुमने हमको आमंत्रण दिया था, लेकिन किसी प्रतिबंध के कारण हम तब न आ सके और हमारे शिष्य विवेकमंडन ने उस की प्रतिष्ठा की थी । लेकिन शत्रुजय की यात्रा के लिये तो पहले ही से हमारा मन उत्कंठित हो रहा है और फिर जिसमें यह तुम्हारा प्रेमपूर्ण आमंत्रण हुआ, इसलिये अब तो हमारा आगमन हों, इसमें कहने की बात ही क्या है ?" यह कहकर, सौभाग्यरत्नसूरि आदि अपने विस्तृत शिष्य परिवार से परिवृत्त होकर सूरिजी रत्नासाह के साथ, शत्रुजय की ओर रवाना हुए । वहां का स्थानिक संघ भी सूरिजी के साथ हुआ । अन्यान्य संप्रदाय के भी सेंकडो ही आचार्य और हजारों ही साधुसाध्वीयों का समुदाय, विद्यामंडनसूरि के संघ में सम्मिलित हुआ और क्रमशः शत्रुजय पहुंचा । कर्मासाह बहुत दूर तक सूरिजी के सन्मुख आया और बडी धामधूम से प्रवेशोत्सव कर उनका स्वागत किया । गिरिराज की तलहटी में जाकर सबने वासस्थान बनाया । अन्यान्य देश-प्रदेशों से भी अगणित मनुष्य इसी तरह वहां पर पहुंचे । लाखों मनुष्यों के कारण शत्रुजय की विस्तृत अधोभूमि भी संकुचित होती हुई मालूम देने लगी । लेकिन ज्यों ज्यों जनसमूह की वृद्धि होती जाती थी, त्यों त्यों कर्मासाह का उदार हृदय विस्तृत होता जाता था । आये हुए उन सब संघजनों को खान, पान, मकान, वस्त्र, सन्मान और दान दे देकर शक्तिमान कर्मासाह ने अपनी उत्तम संघभक्ति प्रकट की । 2010_02 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ऐतिहासिक सार-भाग दरिद्र से लेकर महान श्रीमन्त तक के सभी संघजनों की उसने एक सी भक्ति की । किसीको, किसी बात की न्यूनता न रहने दी । । प्रतिष्ठा महोत्सव में, सब अधिकारी अपने अपने अधिकारानुसार प्रतिष्ठा विधियां करने लगे । वैद्यों, वृद्धों और भीलों आदिकों को पूछ पूछकर सब प्रकार की वनस्पतियें, अगणित द्रव्य व्यय कर, भिन्न भिन्न स्थानों में से ढूंढ ढूंढ मंगवाई । श्री विनयमंडन पाठक की सर्वावसर सावधानता और सर्वकार्यकुशलता देखकर, प्रतिष्ठाविधि के कुलकार्यों का मुख्य अधिकार, सभी आचार्य और प्रमुख श्रावक एकत्र होकर, उन्हें समर्पित किया । बाद में, गुरुमहाराज के वचन से अपने कुलगुरु आदिकों की यथेष्ट दान द्वारा सम्यग् उपासना कर और सबकी अनुमति पाकर कर्मासाह अपने विधिकृत्य में प्रविष्ट हुआ । जब जब पाठकजी ने साह से द्रव्य व्यय करने को कहा तब तब सौ की जगह हजार देनेवाले उस उदार पुरुष ने बडी उदारतापूर्वक धन वितीर्ण किया । कोई भी मनुष्य उस समय वहाँ पर ऐसा नहीं था, जो कर्मासाह के प्रति नाराज या उदासीन हों । याचक लोकों को इच्छित से भी अधिक दान देकर उनका दारिद्र्य नष्ट किया । जो याचक अपने मन में जितना दान मांगना सोचता था, कर्मासाह के मुख की प्रसन्नता देखकर वह मुंह से उससे भी अधिक मांगता था और साह उसे मांगे हुए से भी अधिक प्रदान करता था; इसलिये उसका जो दान था वह 'वचोऽतिग' था । स्थान स्थान पर अनेक मंडप बनाये गये थे, जिनमें बहुमूल्य गालीचे, चंद्रोए और मुक्ताफल के गुच्छक लगे हुए थे । लोकों को ऐसा आभास हो रहा था कि, सारा ही जगत महोत्सवमय हो रहा है । आनंद और कौतुक के कारण मनुष्यों को दिन तो एक क्षण के जैसा मालूम होता था । जलयात्रा के दिन जो महोत्सव कर्मासाह ने किये थे, उन्हें देखकर लोक शास्त्रवर्णित भरतादिकों के महोत्सवों की कल्पना करने लगे थे । 2010_02 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक सार-भाग __ प्रतिष्ठा के मुहूर्तवाले दिन, स्नात्र प्रमुख सब विधि के हो जाने पर, जब लगसमय प्राप्त हुआ तब, सर्वत्र मंगल ध्वनि होने लगी । सब मनुष्य विकथा वगैरह का त्याग कर प्रसन्न मनवाले हुए । श्राद्धगण में भक्ति का अपूर्व उल्लास फैलने लगा । विकसित वदन और प्रफुल्लित नयन वाली स्त्रियें मंगलगीत गाने लगी । खूब जोर से वाजिंत्र बजने लगे । हजारों भावुक लोग आनंद और भक्ति के वश होकर नृत्य करने लगे । सब मनुष्य एक ही दिशा में एक ही वस्तु तरफ निश्चल नेत्र से देखने लगे । अनेक लोग हाथ में धूपदान लेकर धूप ऊडाने लगे । कुमकुम और कर्पूर का मेघ बरसाने लगे । बंदीजन अविश्रान्त रूप से बिरुदावली बोलने लगे । ऐसे मंगलमय समय में, भगवन्मूर्ति का जब दिव्य स्वरूप दिखाई देने लगा, तब कर्मासाह की प्रार्थना से और जैन प्रजा की कल्याणाकांक्षा से, राग-द्वेष विमुक्त होकर श्रीविद्यामंडनसूरि ने समग्र सूरिवरों की अनुमति पाकर, शत्रुजयतीर्थपति श्री आदिनाथ भगवान की मंगलकर प्रतिष्ठा की । उनके और और शिष्यों ने अन्य जो सब मूर्तियें थी, उनकी प्रतिष्ठा की । विद्यामंडनसूरि बडे नम्र और लघुभाव को धारण करनेवाले थे, इसलिये ऐसा महान कार्य करने पर भी उन्होंने कहीं पर अपना नाम नहीं खुदवाया* । प्रायः उनके बनाये हुए जितने स्तवन हैं, उनमें भी उन्होंने अपना नाम नहीं लिखा । किसी भी मनुष्य को उस कल्याणप्रद समय में कष्ट का लेशमात्र भी अनुभव न हुआ । अपने कार्य में कृतकृत्य हो जाने से कर्मासाह के आनंद का तो कहना ही क्या है, परन्तु उस समय औरों के चित्त में भी आनंद का आवेश नहीं समाने लगा । केवल लोक ही कर्मासाह को इस कार्य करने से धन्य नहीं समझने लगे, किन्तु स्वयं वह आप भी अपने को धन्य मानने लगा । उस समय भगवन्मूर्ति को, उसकी ___* प्राचीन काल से यह प्रथा चली आ रही है कि, जो आचार्य जिस प्रतिमा की प्रतिष्ठा करता है, उस पर उसका नाम लिखा जाता है । 2010_02 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ऐतिहासिक सार-भाग प्रतिष्ठा करनेवाले विद्यामंडनसूरि को और तीर्थोद्धारक पुण्यप्रभावक कर्मासाह को-तीनों को एक ही साथ सब लोक पुष्प-पुंजों और अक्षत-समूहों से बधाने लगे । हजारों मनुष्य सर्व प्रकार के आभूषणों से कर्मासाह का न्युछन कर याचकों को देने लगे । मंदिर के शिखर पर सुन्ने ही के कलश और सुन्ने ही का ध्वजादंड, जिसमें बहुत से मणि जडे हुए थे, स्थापित किया गया । बाद में, सूरिवर ने साह के ललाटतल पर अपने हाथ से, विजयतिलक की तरह, संघाधिपत्य का तिलक किया और इन्द्रमाला पहनाई । मंदिर में निरंतर काम में आने लायक आरती, मंगलदीपक, छत्र, चामर, चंद्रोए, कलश और रथ आदि सुन्ने-चांदी की सब चीजें अनेक संख्या में भेट की । कुछ गांव भी तीर्थ के नाम पर चढाये । सूर्योदय से लेकर सायंकाल तक कर्मासाह का भोजनगृह सतत खुल्ला रहता था । जैन-अजैन कोई भी मनुष्य के लिये किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं था । पैर पैर पर साह ने क्या याचक और क्या अयाचक सबका सत्कार किया । सेंकडों ही हाथी, घोडे और रथ, सुवर्णाभरणों से भूषित कर कर अर्थिजनों को दे दिये । ज्यों ज्यों याचक गण उसके सामने याचना करते थे, त्यों त्यों उसका चित्त प्रसन्न होता जाता था । कभी किसीने उसके वदन, नयन और वचन में कोई तरह का विकारभाव न देखा । अधिक क्या उस समय कोई ऐसा याचक न था, जिसने साधु कर्मा के पास याचना न की हो और पुनः ऐसा भी कोई याचक न था, जिसने पीछे से कर्म (देव) के आगे याचना की हों - अर्थात् कर्मासाह ने कुल याचकों की इच्छा पूर्ण कर देने से फिर किसीने अपने नसीब को नहीं याद किया । - तदनन्तर, जितने सूत्रधार (कारीगर) थे, उन सबको सुवर्ण का यज्ञोपवित, सुवर्ण मुद्रा, बाजुबन्ध, कुण्डल और कंकण आदि बहुमूल्य आभरण तथा उत्तम वस्त्र देकर सत्कृत किये । अपने जितने साधर्मिक बंधु थे, उनका भी यथायोग्य धन, वस्त्र, अशन, पान, वाहन और प्रिय 2010_02 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक सार-भाग वचन द्वारा विनयवान् साहने पूर्ण सत्कार किया । मुमुक्षु वर्ग जितना था, उसे भी वस्त्र, पात्र और पुस्तकादि धर्मोपकरण प्रदान कर अगणित धर्मलाभ प्राप्त किया । इनके सिवा आबाल-गोपाल पर्यंत के वहां के कुल मनुष्यों को भी स्मरण कर कर उस दानवीर ने अन्न और वस्त्र का दान दे देकर सन्तुष्ट किया । विशाल हृदय और उदार चित्तवाले कर्मासाह ने इस प्रकार सर्व मनुष्यों को आनंदित और सन्तुष्ट कर अपने अपने देश में जाने के लिये विसर्जित किये । आप थोडे से दिन तक, अवशिष्ट कार्यों की समाप्ति के लिये, वहीं ठहरा । जिस भगवत्प्रतिमा के दर्शन करने के लिये प्रत्येक मनुष्य को सौ सौ रुपये टेक्स (कर) के देने पडते थे और जिसमें भी केवल एक ही बार, क्षणमात्र, दर्शन कर पाते थे, उसी मूर्ति के, पुण्यशाली कर्मासाह ने आपने पास से सुन्ने के ढेर के ढेर राजा को देकर, लाखों-करोडों मनुष्यों को बिना कोडी के खर्च किये, महिनों तक पूर्ण शांति के साथ पवित्र दर्शन कराये । सुकर्मी संघपति कर्मासाह की इस पुण्यराशी का कौन वर्णन कर सकता है ? श्रीविद्यामंडनसूरि की आज्ञा को मस्तक पर धारण कर उनके वशवर्ती शिष्य विवेकधीर ने संघनायक श्री कर्मासाह के महान उद्धार की यह प्रशस्ति बनाई है । इसमें जो कुछ दोषकणिकायें दृष्टिगोचर हो, उन्हें दूर कर निर्मत्सर मनुष्य इसका अध्ययन करें ऐसी विज्ञप्ति है । इस प्रबन्ध के बनाने से मुझे जो पुण्य प्राप्त हुआ हो, उससे जन्मजन्मान्तरों में सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की मुझे प्राप्ति हो, यही मेरी एक केवल परम अभिलाषा है । जब तक जगत में सुर-नरों की श्रेणि से पूजित शत्रुजय पर्वत विद्यमान रहें, तब तक कर्मासाह के उद्धार का वर्णन करनेवाली यह प्रशस्ति भी विद्वानों द्वारा सदैव ___ 2010_02 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ऐतिहासिक सार-भाग वांची जाती हुई विद्यमान रहें । वैशाख सुदी सप्तमी और सोमवार के (प्रतिष्ठा के दूसरे) दिन यह प्रबन्ध रचा गया है और श्री विनयमंडन पाठक की आज्ञा से सौभाग्यमंडन नामक पंडित ने दशमी ओर गुरुवार के दिन इसकी पहली प्रति लिखी है । ॥ शुभमस्तु ॥ 2010_02 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुंजयतीर्थोद्धार के प्रतिष्ठाता सूरिवर का वंशवृक्ष विजयरत्नसूरि | विवेकमंडन जयमंडन क्षमाधीर धर्मरत्नसूरि | विद्यामंडन्सूरि विवेकधीर 2010_02 सौभाग्यरत्नसूरि सौभाग्यमंडन रत्नसागर * जयवंत पंडित * जयवंत पंडित ने संवत् १६१४ में गुजराती कविता में 'शृंगारमंजरी' नामक एक ग्रंथ बनाया है । इसकी रचना बहुत ही सरस और सुंदर है । इसमें शीलवती का चरित्र वर्णित है । ६५ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ कविवर लावण्यसमय की प्रशस्त्यनुसार कर्मासाह का कौटुम्बिक परिवार । तोलासाह ( पत्नी - लीलू) रत्ना साह पोमा साह गणा साह दशरथ ( स्त्री रज़मलदे) (पद्मादे-पाटमदे ) ( गउरदे - गारवदे) (देवलदे - टूरमदे) ་་་་་)པ་པ།་ (पाटे-घाटम श्रीरंग देवा कोल्हा पुत्री सुहवी माणिक हीरा बाई सोभा बाई सोना 2010_02 भोजा साह (भावलदे - हर्षमदे) श्रीमण्डन कर्मासाह (कपूरदे - कामलदे) भीषजी बाई मना * विवेकधीर गणि ने प्रबन्ध में पांच ही भाइयों का उल्लेख किया है । गणासाह का नाम नहीं लिखा । ईससे ज्ञात होता है कि प्रतिष्ठा के समय गणा साह विद्यमान न होगा । इसके पहले ही उसका स्वर्गवास हो गया होगा । बाई पा Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ परिशिष्ट । कर्मा साह के उद्धार की बृहत्प्रशस्ति जो शत्रुजय के मुख्य मंदिर के द्वार पर बड़े शिलापट्ट में उकीरी हुई है, इस जगह दी जाती है । इसके कर्ता कविवर लावण्यसमय हैं, जिन्होंने 'विमलप्रबन्ध' नामक प्रसिद्ध ऐतिहासिक पुस्तक की रचना की है । ॥ ॐ स्वस्ति श्रीगूर्जरधरित्र्यां पातसाहश्रीमहिमूदपट्टप्रभाकरपातसाहश्रीमदाफरसाहपट्टोद्योतकारकपातसाह श्रीश्रीश्रीश्रीश्री बादरसाह विजयराज्ये । संवत् १५८७ वर्षे राज्यव्यापारधुरंधरषान श्रीमझादषानव्यापारे श्रीशत्रुञ्जयगिरौ श्रीचित्रकूटवास्तव्य दो०करमाकृत-सप्तमोद्धारसक्ता प्रशस्तिर्लिख्यते ॥ स्वस्ति श्रीसौख्यदो जीयाधुगादिजिननायकः । केवलज्ञानविमलो विमलाचलमण्डनः ॥१॥ श्रीमेदपाटे प्रकटप्रभावे भावेन भव्ये भुवनप्रसिद्ध । श्रीचित्रकूटो मुकुटोपमानो विराजमानोऽस्ति समस्तलक्ष्म्या ॥२॥ सन्नन्दनो दातृसुरद्रुमश्च तुङ्गः सुवर्णोऽपि विहारसारः । जिनेश्वरस्नात्र-पवित्रभूमिः श्रीचित्रकूटः सुरशैलतुल्यः ॥३॥ विशालसालक्षितिलोचनाभो रम्यो नृणां लोचनचित्रकारी । 2010_02 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ परिशिष्ट । विचित्रकूटो गिरिचित्रकूटो लोकस्तु यत्राखिलकूटमुक्तः ॥४॥ तत्र श्रीकुम्भराजोऽभूत्कुम्भोद्भवनिभो नृपः । वैरिवर्गः समुद्रो हि येन पीतः क्षणात्क्षितौ ॥५॥ [त]त्पुत्रो राजमल्लोऽभूद्राज्ञां मल्ल इवोत्कटः । सुतः सङ्ग्रामसिंहोऽस्य सङ्ग्रामविजयी नृपः ॥६॥ तत्पट्ट भूषणमणिः सिंहेन्द्रवत्पराक्रमी । रत्नसिंहोऽधुना राजा राजलक्ष्म्या विराजते ७ ।। इतश्च गोपाह्यगिरौ गरिष्ठः श्रीबप्पभट्टीप्रतिबोधितश्च । श्रीआमराजोऽजनि तस्य पत्नी काचित्बभूव व्यवहारिपुत्री ॥८॥ तत्कुक्षिजाता: किलराजकोष्ठागाराहगोत्रे सुकृतैकपात्रे । श्रीओशवंशे विशदे विशाले तस्यान्वयेऽमी पुरुषाः प्रसिद्धाः ॥९॥ श्रीसारणदेवनामा तत्पुत्रो रामदेवनामाऽभूत् । लक्ष्मीसिंहः पुत्रो(त्रस्)तत्पुत्रो भुवनपालाख्यः ॥१०॥ श्रीभोजराजपुत्रो ठक्कुरसिंहाख्य एव तत्पुत्रः । घेताकस्तत्पुत्रो नरसिंहस्तत्सु..... तत्पुत्रस्तोलाख्यः पत्नी तस्याः (तस्य) प्रभूतकुलजाता । तारादेऽपरनाम्नी लीलूः पुण्यप्रभापूर्णा ॥१२॥ तत्कुक्षिसमुद्भुताः ष[ट्] पुत्रा[:] कल्पपादपाकाराः । [धर्मा]नुष्ठानपराः श्रीव(म)न्तः श्रीकृतोऽन्येषाम् ॥१३॥ 2010_02 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट । प्रथमो र[ना]ख्यसुतः सम्यक्त्वोयोतकारकः कामम् । श्रीचित्रकूटनगरे प्रासादः [कारितो] येन ॥१४॥ तस्यास्ति कोमला कल्पवल्लीव विशदा सदा । भार्या रजमलदेवी पुत्र [:] श्रीरंगनामाऽसौ ॥१५॥ भ्रातान्य: पोमाह्वः पतिभक्ता दानशीलगुणयुक्ता । पद्मा-पाटमदेव्यौ पुत्रौ माणिक्य-हीराद्वौ ॥१६॥ बन्धुर्गणस्तृतीयो भार्या गुणरत्नराशिविख्याता । गउरा-गारतदेव्यौ पुत्रो देवाभिधो ज्ञेयः ॥१७॥ तुर्यो दशरथनामा भार्या तस्यास्ति देवगुरुभक्ता । देवल-[दू]रमदेव्यौ पुत्रः कोल्हाभिधो ज्ञेयः ॥१८॥ भ्रातान्यो भोजाख्यः भार्या तस्यास्ति सकलगुणयुक्ता । भावल-हर्षमदेव्यौ पुत्रः श्रीमण्डनो जीयात् ॥१९॥ सदा सदाचारविचारचारुचातुर्यधैर्यादिगुणैः प्रयुक्तः । श्रीकर्मराजो भगिनी च तेषां जीयात्सदा सूहविनामधे[या] ॥२०॥ कर्माख्यभार्या प्रथमा कपूरदेवी पुनः कमलदे द्वितीया । श्रीभीषजीकः स्वकुलोदयाद्रिसूर्यप्रभः कामलदेविपुत्रः ॥२१॥ श्रीतीर्थयात्राजिनबिम्बपूजापदप्रतिष्ठादिककर्मधुर्याः । सुपात्रदानेन पवित्रमात्राः सर्वेदृशाः सत्पुरुषाः प्रसिद्धाः ॥२२॥ श्रीरत्नसिंहराज्ये राज्यव्यापारभारधौरेयः ।। श्रीकर्मसिंहदक्षो मुख्यो व्यवहारिणां मध्ये ॥२३॥ श्रीशत्रुञ्जयमाहात्म्यं श्रुत्वा सद्गुरुसन्निधौ । तस्योद्धारकृते भावः कर्मराजस्य तदाऽभूत् ॥२४॥ आगत्य गौर्जरे देशे विवेकेन नरायणे । वसन्ति विबुधलोकाः पुण्यश्लोका इवाद्भुताः ॥२५॥ 2010_02 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० परिशिष्ट । तत्रास्ति श्रीधराधीशः श्रीमद्वाहदरो नृपः । तस्य प्राप्य स्फुरन्मानं पुण्डरीके समाययौ ॥२६॥ राज्यव्यापारधौरेयः षानश्रीमान्मझादकः । तस्य गेहे महामन्त्री रवाख्यो नरसिंहकः ॥२७॥ तस्य सन्मानमुत्प्राप्य बहुवित्तव्ययेन च । उद्धारः सप्तमस्तेन चक्रे शत्रुञ्जये गिरौ ॥२८॥ श्रीपादलिप्तललनासरशुद्धदेशे सद्वाद्यमङ्गलमनोहरगीवनादैः । श्रीकर्मराजसुधिया जलयात्रिकायां चक्रे महोत्सववरः सुगुरूपदेशात् ॥२९॥ चञ्चच्चङ्गमृदङ्गरङ्गरचनाभेरीनफेरीरवावीणा[वंश] विशुद्धनालविभवा साधर्मि[वात्सल्य]कम् । वस्त्रालङ्कति[हेम]तुङ्गतुरगादिनां च स[व]र्षण मेवं विस्तरपूर्वकं गिरिवरे बिम्बप्रतिष्ठापनम् ॥३०॥ विक्रमसमयातीते तिथिमितसंवत्सरेऽश्ववसुवर्षे (१५८७) । शाके जगत्रिबाणे (१४५३) वैशाखे कृष्णषष्ठ्यां च ॥३१॥ मिलिताः सूरयः सङ्घा मार्गणा मुनिपुङ्गवाः । वहमाने धनुलग्ने प्रतिष्ठा कारिता वरा ॥३२॥ लावण्यसमयाख्येन पंडितेन महात्मना । सप्तमोद्धारसक्ता च प्रशस्तिः प्रकटीकृता ॥३३॥ श्रीमद्वा( हदर) क्षितीशवचनादागत्य शत्रुञ्जये प्रासादं विदधाप्य येन वृ........द्विम्बमारोप्य च । उद्धारः किल सप्तमः कलियुगे चक्रेऽथ ना..... जीयादेष सदोशवंशमुकुटः श्रीकर्मराजश्चिरम् ॥३४॥ 2010_02 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ परिशिष्ट । यत्कर्मराजेन कृतं सुकार्यमन्येन केनाऽपि कृतं हि तन्नो । . यम्लेच्छराज्ये [ऽपि नृपा] ज्ञयैवोद्धारः कृतः सप्तम एष येन ॥३५॥ सत्पुण्यकर्माणि बाहूनि सङ्के कुर्वन्ति भव्याः परमत्र काले । कर्माभिधानव्यवहारिणैवोद्धारः कृतः श्रीविमलाद्रिशृङ्गे ॥३६॥ श्रीचित्रकूटोदयशैलशृङ्गे कर्माख्यभानोरुदयान्वितस्य । शत्रुञ्जये बिम्बविहारकृत्य [कर्माव]लीयं स्फुरतीति चित्रम् ॥३७॥ श्रीमेदपाटे विषये निवासिनः श्री कर्मराजस्य च कीर्तिरु[ज्वला] । देशेष्वनेकेष्वपि [सञ्चरत्य]हो ज्योत्स्नेव चन्द्रस्य नभोविहारिणः ॥३८॥ दत्तं येन पुरा धनं बहुसुरत्राणाय तन्मानतो यात्रा येन [नृ]णां च सङ्घपतिना शत्रुञ्जये कारिता । साधूनां सुगमैव सा च विहिता चक्रे प्रतिष्ठाऽर्हतामित्थं वर्णनमुच्यते कियदहो ? श्रीकर्मराजस्य तु ॥३९॥ येनोद्धारः शुभवति नगे कारितः पुण्डरीके स्वात्मोद्धारो विशदमतिना दुर्गतस्तेन चक्रे । येनाकारि प्रवरविधिना तीर्थनाथप्रतिष्ठा प्राप्तास्तेन त्रिभुवनतले सर्वदैव प्रतिष्ठाः ॥४०॥ सौम्यत्वेन निशामणिनिमणिस्तीव्रप्रतापेन च वंशोद्दीपनकारणागृहमणिश्चिन्तामणिर्दानतः । धर्माच्छ्राद्धशिरोमणिर्मदविषध्वस्तान्मणिर्भोगिनः एकानेकमयो गुणैर्नवनवैः श्रीकर्मराजसुधीः ॥४१॥ तोलासुतः सुतनयो विनयोज्वलश्च लीलूसुकुक्षिनलिनीशुचिराजहंसः 2010_02 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ परिशिष्ट । सन्मानदानविदुरो मुनिपुङ्गवानां सदृद्धबान्धवयुतो..... कर्मराजः ॥४२॥ कर्मी श्रीकर्मराजोऽयं कर्मणा केन निर्ममे ? । तेषां शुभानि कर्माणि यैर्दृष्ट : पुण्यवानसौ ॥४३ ॥ श्यधीशः पुण्डरीकस्तु मरुदेवा कपर्दिराट् । श्राद्धश्रीकर्मराजस्य सुप्रसन्ना भवन्त्वसी ॥४४॥ श्रीशत्रुञ्जयतीर्थोद्धारे कमठा[य] सानिध्यकारक सा० जइता भा० बाई चाम्पू पुत्र नाथा भ्रातृ कोता ॥ अहम्मदावादवास्तव्य सूत्रधारकोला पुत्र सूत्रधार विरु [पा] सू० भीमा ठ० वेला ठ० वछा ॥ श्रीचित्रकूटादागत सू० टीला सू० पोमा सू० गाङ्गा सू. गोरा सू० ठाला सूत्र० देवा ॥ सूत्र० नाकर सू० नाइआ सू० गोविंद सू० विणायग सू० टीका सू० वाछा सू० भाणा सू० का [ल्हा] सूत्र० देवदास सू० टीका सू० ठाकर... प० काला वा० विणाय० । ठा० छाम ठा० हीरा सू० दामोदर वा० हरराज सू० थान ।। मङ्गलमादिदेवस्य मङ्गलं विमलाचले । मङ्गलं सर्वसङ्घस्य मङ्गलं लेखकस्य च ॥ पं. विवेकधीरगणिना लिखिता प्रशस्तिः ॥ पूज्य पं. समयरत्न शिष्य पं. लावण्यसमयस्त्रिसन्ध्यं श्री आदिदेवस्य प्रणमतीतिभद्रम् ॥ श्रीः ॥ ठा० हरपति ठा० हासा ठा० मूला ठा० कृष्णा ठा० का [ल्हा] ठा० हर्षा सू० माधव सू० बाठू ॥ लो सहज ॥ (प्राचीन जैनलेखसंग्रह-नं. १) ॥ ॐ ॥ संवत [त्] १५८७ वर्षे शाके १४५३ प्रवर्त्तमाने वैशा (ख) वदि ६ । रवौ ॥ श्रीचित्र[कूट] वास्तव्य श्रीओशवा[ल] * यह लेख तीर्थपति श्री आदिनाथभगवान की मूर्ति की बैठक पर खुदा हुआ है । ____ 2010_02 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट । ज्ञातीय वृद्धशाखायां दो० नरसिंह सुत दो० [तो] ला भार्या बाई लीलू पुत्र ६ दो० रत्ना भार्या रजमलदे पुत्र श्रीरङ्ग दो० पोमा भा० पद्मादे द्वि० पटमादे पुत्र माणिक हीरा दो० गणा भा० गउरादे (द्वि०) गारवदे पु० देवा दो० दशरथ भा० देवलदे द्वि० टूरमदे पुत्र केहला दो० भोजा भा० भावलदे द्वि० [ह]र्षम-(दे पुत्र श्रीमण्डन) भगिनी [सुह] विदे [बं]धव श्रीमद्राजसभाशृङ्गारहारश्रीशत्रुञ्जयसप्तमोद्धारकारक दो० करमा भा० कपूरादे द्वि० कामलदे पुत्र भीषजी पुत्री बाई सौभां बा० सोना बा० मना बा० पना प्रमुखसमस्तकुटुम्बश्रेयोर्थं शत्रुञ्जय-मुख्यप्रासादो[द्धा]रे श्री आदिनाथबिम्बं प्रतिष्ठापितम् । मं० रवी । मं० नरसिंगसानिध्यात् । प्रतिष्ठितं श्रीसूरिभिः ॥ श्रीः ॥ (प्राचीन जैनलेखसंग्रह-नं. २) 'ॐ ।। संवत् १५८७ वर्षे वैशाख [व] दि [६] श्रीओशवंशे वृद्धशाखायां दो० तोला भा० बाई लीलू सुत दो० रत्ना दो० पोमा दो० गणा दो० दशरथ दो० भोजा दो० करमा भा० कपूरादे कामलदे पु० भीषजीसहितेन श्रीपुण्डरीकबिम्बं कारितम् । ॥ श्रीः ॥ (प्राचीन जैनलेखसंग्रह-नं. ३) १. यह लेख श्रीपुण्डरीक गणधर की मूर्ति पर लिखा हुआ है । 2010_02 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ परिशिष्ट । अनुपूर्ति । शत्रुजय के इस महान् उद्धार के समय अनेक गच्छ के अनेक आचार्य और विद्वान् एकत्र हुए थे । उन सबने मिलकर सोचा कि जिस तरह अन्यान्य स्थलों में मंदिर और उपाश्रयों के मालिक भिन्न भिन्न गच्छवाले बने हुए हैं और उनमें अन्य गच्छवालों को हस्तक्षेप नहीं करने देते हैं, वैसे इस महान् तीर्थ पर भी भविष्य में कोई एक गच्छवाला अपना स्वातंत्र्य न बना रक्खें, इसलिए इस विषय का एक लेख कर लेना चाहिए । यह विचार कर सब गच्छवाले धर्माध्यक्षों ने एक ऐसा लेख बनाया था । इसकी एक प्राचीन पत्र ऊपर प्रतिलिपि की हुई मिली है, जिसका भावानुवाद निम्न प्रकार है । मूल की भाषा तत्समय की गुजराती है । यह पत्र भावनगर के श्रीमान् सेठ प्रेमचन्द रतनजी के पुस्तक संग्रह में है । १. श्री तपागच्छनायक श्री श्री श्री हेमसोमसूरि लिखितं । यथाशत्रुजयतीर्थ ऊपर का मूल गढ और मूल का श्री आदिनाथ भगवान का मंदिर समस्त जैनों के लिये हैं और बाकी सब देवकुलिकायें भिन्न भिन्न गच्छवालों की समझनी चाहिए । यह तीर्थ सब जैनों के लिए एक समान है । एक व्यक्ति इस पर अपना अधिकार जमा नहीं सकती । ऐसा होने पर भी यदि कोई अपनी मालिकी साबित करना चाहे तो उसे इस विषय का कोई प्रामाणिक लेख या ग्रंथाक्षर दिखाने चाहिए । वैसा करने पर हम उसकी सत्यता स्वीकार करेंगे । लिखा पंडित लक्ष्मीकल्लोल गणि ने । २. तपागच्छीय कुतकपुराशाखानायक श्री विमलहर्षसूरि लिखितंयथा ..... (बाकी सब ऊपर मुताबिक) ..... लिखा भावसुन्दर गणि ने । ३. श्री कमलकलशसूरिगच्छ के राजकमलसूरि के पट्टधर कल्याणधर्मसूरि लिखितं-यथा शत्रुजय के बारे में जो ऊपर लिखा हुआ 2010_02 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ परिशिष्ट । है, वह हमें मान्य है । यह तीर्थ ८४ ही गच्छों का है । किसी एक का नहीं है । लिखा, कमलकलशा मुनि भावरत्न ने । ४. देवानन्द गच्छ के हारीज शाखा के भट्टारक श्रीमहेश्वरसूरि लिखितं-यथा (बाकी ऊपर ही के अनुसार) । ५. श्री पूर्णिमापक्षे अमरसुंदरसूरि लिखितं-(ऊपर मुताबिक ।) ६. पाटडियागच्छीय श्रीब्राह्मणगच्छनायक भट्टारक बुद्धिसागरसूरि लिखितं- (ऊपर मुताबिक)। ७. आंचलगच्छीय यतितिलकगणि और पंडित गणराजगणि लिखितं(ऊपर मुताबिक) । ८. श्री वृद्धतपागच्छ पक्षे श्री विनयरत्नसूरि लिखितं । ९. आगमपक्षे श्री धर्मरत्नसूरि की आज्ञा से उपाध्याय हर्षरत्न ने लिखा । १०. पूर्णिमागच्छ के आचार्य श्री ललितप्रभ की आज्ञा से वाचक वाछाक ने लिखा । यथा-शत्रुजय का मूल किला, मूल मंदिर और मूल प्रतिमा समस्त जैनों के लिये वन्दनीय और पूजनीय है । यह तीर्थ समग्र जैन समुदाय की एकत्र मालिकी का है । जो जो जिनप्रतिमा मानते, पूजते हैं, उन सब का इस तीर्थ पर एक सा हक्क और अधिकार है । शुभं भवतु । जैन संघस्य । 2010_02 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ शत्रुञ्जयतीर्थोद्धारप्रबन्धः । ( पंडित श्रीविवेक धीरगणिरचितः । ) स्वस्ति श्रीवृषभप्रभुः प्रथयतु श्रेयांसि संऽनघे । चञ्चत्काञ्चनगौरकान्तिरमराधीशार्च्यपत्पङ्कजः । श्रीशत्रुञ्जयशैलमण्डनमणिर्विश्वस्थितेर्दर्शकः सिद्धिश्रीहृदयङ्गमोऽप्रतिहतप्रौढप्रभावोज्ज्वलः ॥१॥ पुण्डरीकयशा जीयात्पुण्डरीकोऽकदन्तिनाम् । पुण्डरीकप्रतिष्ठाकृत् पुण्डरीको गणाधिपः ॥२॥ उद्धारान् भरतादयो नरवराः सिद्धाचलेऽस्मिन् पुरा चक्रस्तीर्थपसूरिराजवचनाच्छ्रद्धोल्लसन्मानसाः । अस्मादेव सुपुण्यतः शयगताः स्वर्गापवर्गश्रियः स्युः सम्भाव्य हृदीति सङ्घपतयो भूयांस एवाभवन् ॥३॥ नाभेयस्य गिरार्षभिर्मेघवतः श्रीदण्डवीर्यः प्रभोरैशानोऽब्धि - शर" - त्रिविष्टपपतिश्रीभावनेन्द्राः स्वतः ॥ भूमर्त्ता सागरोऽजितस्य जगतां भर्त्तुस्तथा व्यन्तरा' भूपश्चन्द्रयशाश्च चन्द्रमुकुटाह्वर्षेर्लसद्धर्षवान् ॥४॥ शान्तेश्चक्रधरो मुनेर्दशमुखारी नेमिनः पाण्डवाः श्री सिद्धस्य सुविक्रमः पविविभोः श्रीजावडः शुर्द्धघीः । आचार्यस्य धनेश्वरस्य च शिलादित्यो धराधीरेश्चौलुक्योऽपि स बाहडो नृपर्गुरोः श्रीवस्तुपालो "मुनेः ॥५॥ १. “सङ्घाय सद्गाङ्गेयामलदेहकान्तिः" इति वा पाठः । 2010_02 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुञ्जयतीर्थोद्धारप्रबन्धे साधुः श्रीसमराह्वयोऽपि सुगुरोरेते पवित्राशया उद्धारान् गुरुभक्तितो विदधिरे श्रीपुण्डरीकाचले । साधुश्रीकरमाह्वनिर्मितगुरूद्धारस्वरूपं मया संशृण्वन्त्वभिधीयमानमधुना पीयूषवर्षोपमा ॥६॥ तपापक्षे महत्यस्मिन् गच्छे रत्नाकराह्वये । भृगुकच्छीयशाखायां सूरयो भूरयोऽभवन् ॥७ ॥ सर्वत्र लब्धविजयास्तत्र श्रीविजयरत्नसूरीन्द्राः । समजनिषत भव्याम्बुजविकासने हेलिकेलिभृतः ॥८ ॥ तेषां शिष्यमतल्लिकाः समभवन् श्रीधर्मरत्नाभिधाः सूरीन्द्रा द्रुघणायमानचरिताः शस्यक्रियावत्सु ये । स्याद्वादोज्ज्वलहेतिसंहतिहतप्रावादुकप्रीतयः श्रीरत्नत्रयधारका जितकलाकेलिप्रभावाः कलौ ॥ ९ ॥ सुविहितजनाभिगम्या विशदयशः पूरपूरितदिगन्ताः । निहितकुपाक्षिकपक्षा जयन्ति ते धर्मरत्नसूरीन्द्राः ॥ १० ॥ उद्यच्छन्ती विवादाय गिरा सह यदीयया । पराजयं सुधा घोषवती न लभतां कथम् ॥११॥ हृद्घोषे नन्दप्रदेशो गोपो यद्गां दधन्मुदा । अमारिपयसा कीर्त्तिकुटुम्बं समपूपुषत् ॥१२॥ येषां पद्मामन्त्रः सरीसे शैशवेऽपि सिद्धिमदात् । वव्रे यानतिसुभगानक्षीणमहानसी लब्धिः ॥ १३॥ १. हृदयरूपाभीरपल्ल्याम् । 2010_02 (त्रिभिर्विशेषकम् ।) ७७ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ राजानो विलुठन्ति यत्क्रमतले ये ज्ञैरनेकैः श्रिताः स्तूयन्ते कविभिश्च येऽनवरतं जानन्ति जीवस्थितिम् । राजौक:श्रयणात्प्रयाति पदवीमुच्चां हि योऽग्रेकृतो ज्ञेन क्वापि विरोधमेति कविना जीवः कथं तैः समम् ॥१४॥ किं बहुना ? - प्रथमोल्लासः । मीयन्ते तद्गुणाः सम्यक् तत्तुल्यैरेव नापरैः । व्योममानं धरा वेत्ति धरामानं मरुत्पथः ॥ १५ ॥ तेषां बहुशिष्याणां प्रधानभूतावुभौ विनेयौ तु । विद्यामण्डन आद्यो विनयादिमण्डनस्त्वपरः ॥ १६ ॥ योग्यावेतौ क्रमशः पूज्यैराचार्यपाठकौ विहितौ । शतशोऽन्यानि प्रतिदिनमनघानि कृतानि कृत्यानि ॥१७॥ अथान्यदा तेऽर्बुदमुख्यतीर्थयात्रार्थमत्यर्थमनूनभावैः । अभ्यर्थिताः श्रीधनराजमुख्यैः सङ्घाधिपैः सद्विहगै: प्रचेलुः ॥१८॥ पुरे पुरे निर्मितसुप्रवेशमहोत्सवाः सङ्ख्युताः क्रमेण । ते चैयरुर्नीवृति मेदपाटे दौस्थ्याऽप्रवेशाय मिलत्कपाटे ॥ १९ ॥ पदे पदे यत्र सरांसि नद्यो वनानि हेलागिरयोऽतिरम्याः । धनैश्च धान्यैश्च समृद्धिभाञ्जि वदान्यमा॑न्यानि पुराणि यत्र ॥२०॥ न क्लेशलेशो न रिपुप्रवेशो न दण्डभीतिर्न जनेष्वनीतिः । न यत्र कुत्रापि खलावकाशः कदापि नो दुर्व्यसनात्स्वनाशः ॥ २१ ॥ तत्रास्ति शैलः किल चित्रकूट : स्फुरत्पुरद्धय विजितत्रिकूट: । उर्व्या सुरावासजिगीषयेदं धृतं धनुः किं विगतप्रभेदम् ? ॥ २२ ॥ १. स्थाने स्थाने । २. धन्यानि । 2010_02 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुञ्जयतीर्थोद्धारप्रबन्धे प्रासादा: परमेष्ठिनां रणरणद्घण्टाप्रतिच्छन्दिनः स्फूर्जद्धैमनकुम्भसङ्गतमहादण्डध्वजोल्लासिनः । दूराद्दृक्पथमागताः कलिमलप्रक्षालनं तन्वते शालाः संयमिनां च यत्र मधुरस्वाध्यायघोषोज्ज्वलाः ॥२३॥ युवमनोमृगबन्धनवागुरा स्मरमहीक्षिदमोघशरासनम् । नयनपातनिपातितविष्टपो लसति यत्र वधूगण उन्मदः ॥ २४ ॥ वपुः श्रिया धिक्कृतमीनकेतना वनीपकेभ्यः प्रवितीर्णवेतनाः । विभान्ति यत्राप्तजयन्तवैभवा युवान उच्चैरधिरूढसैन्धवाः ॥ २५ ॥ यत्राभिसारिणीनामसिते पक्षेऽपि नेहितैः फलितम् । स्फाटिकसौधप्रग्रहविघटितभूच्छायनिकुरम्बे ॥ २६ ॥ यत्र च चम्पककेतकपाडलनवमल्लिकासुमवनानि तालतमालरसालप्रियालहिन्तालविपिनानि ॥ २७ ॥ । ७९ सरांसि यत्रानिलकम्पिताब्जोच्छलद्रजःपुञ्जसुगन्धिकानि । अनेककारण्डवकेकिकोकगतागतै रम्यतमानि भान्ति ॥ २८ ॥ किं बहुना ? - चित्रकूटदिवोर्मध्ये सुरावासकृतैव भित् । यद्वा न स्वश्चतुर्वर्गोपायस्तेनांनरान्तरम् ॥२९॥ तत्र त्रिलक्षाश्वपतिर्महीक्षित्साङ्गाभिधानोऽखिलभूमिशास्ता । स्वदोर्बलेनाम्बुधिमेखलां गामेकातपत्रामकरोत्प्रभुर्यः ॥ ३० ॥ आकारितोऽनेन विना भिषं न स्थातुं प्रभुर्यामिकवारकेऽहम् । इतीव भास्वान् हृदि सम्प्रधार्या ततक्षदङ्ग किल यद्भयेन ॥ ३१ ॥ सावधानतया द्रष्टुं सहस्त्राक्षोऽभवद्धरिः । पलायनैकधीः सम्यग् योद्धुं येन सहाक्षमः ॥३२॥ 6 2010_02 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० प्रथमोल्लासः। अविहितसन्धानानां साङ्गेनामा करार्पणै राज्ञाम् । शङ्काशङ्करं निःसरणे नाप हृद्दाही ॥३३॥ हेषन्ते हरयो विपक्षसदोद्भिन्नाङ्करैर्मेदुरा गर्जन्तेऽञ्जनशैलकीर्तिविततिग्रासोद्धराः सिन्धुराः । ज्वालश्यामलमेघघोररसितप्रस्पर्द्धिनः स्यन्दनध्वाना वेश्मनि यस्य साङ्गनृपतिश्चक्री नवः कोऽप्ययम् ॥३४॥ अथामभूपस्य कुले विशाले क्रमादभूत्सारण ओशवंशे १ । श्रीरामदेवस्तनयस्तदीयो रामस्य पुत्रोऽपि च लक्ष्मसिंहः ३ ॥३५॥ अथ लक्ष्मसिंहतनयः सत्याह्वो भुवनपालनामाभूत् ४ । श्रीभोजराजानामा५तनयोऽभूद्भुवनपालस्य ॥३६॥ ठक्कुरसिंहो भोजाइत्तजः खेताभिधश्च तत्सूनुः७ । नरासिंहाख्यः साधुः८ क्रमशस्ते [ ते ] नरोत्तंसाः ॥३७॥ तोलाभिधानो नरसिंहसूनुः९ साधुः सुधादीधितिशुद्धकीर्त्तिः । प्राणप्रिया तस्य च भाग्यभूमिबलू ललामप्रतिमा सतीषु ॥३८॥ साधुस्तोलाभिधः साङ्गभूपस्याभूत्प्रियः सखा । अमात्यत्वमनिच्छन् यो लेभे श्रेष्ठिपदं नृपात् ॥३९॥ स नयी विनयी दाता ज्ञाता मानी धनी भृशम् । दयालुहृदयालुश्च यशस्वी च महत्स्वपि ॥४०॥ विपरीतलक्षणोदाहरणे धनदं वदन्तु लाक्षणिकाः । तोलाख्यस्य वदान्यस्याग्रे भद्रामिवाभद्राम् ॥४१॥ तोलाढेन न केवलमर्थिजनो निर्मितः सदानन्दी । सुरशाखिप्रमुखा अपि विमोचिता याचकक्लेशात् ॥४२॥ गजरथतुरगाभरणस्वर्णलसद्रूप्यरत्नवसनानाम् । दानैरर्थिधरास्वम्भोधरलीलायितं तेन ॥४३॥ १. सारणदेवः । 2010_02 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुञ्जयतीर्थोद्धारप्रबन्धे जिनधर्ममरालो न व्यमुचत्तस्य मानसम् । पद्मोदयकृतोल्लासं परं जाड्यविवर्जितम् ॥४४॥ तोलाह्वसाधुतनयाः पञ्च पाण्डवविक्रमाः । रत्नः१ पोमो२ दशरथो३ भोज:४ कर्माभिधः५ क्रमात् ॥४५॥ एतेषु पञ्चस्वपि नन्दनेषु प्रशंसनीयेषु सुधर्मकृत्यैः ।। कर्मः कनिष्ठोऽपि गुणैः समग्रैः प्रगीयते ज्येष्ठतया धरायाम् ॥४६॥ रूपेण कामो विजितः सुराद्रिधैर्येण गाम्भीर्यतया सरस्वान् । नयेन रामः शशिजश्च बुद्धया दानेन कल्पः करमाभिधेन ॥४७॥ अथागतान् सङ्घजनेन सार्द्ध गणाधिपान् साङ्गनृपो निशम्य । शिखीव मेघागमने प्रमोदमियाय धर्मश्रवणाभिलाषी ॥४८॥ युक्तः पौरजने रथेभतुरगातोद्यासनाडम्बरैर्गत्वा पूज्यपदौ प्रणम्य नृपतिः शुश्राव सद्देशनाम् । धन्यंमन्य उदारधीश्च सहसा प्रावेशयच्छीगुरूनावासांश्च यथार्हमार्पयदसौ सङ्घाय सद्भक्तितः ॥४९॥ तोलाभिधेन ससुतेन समं नरेशः शुश्राव धर्ममनघं सुगुरोः सदापि । आखेटकादिविरतिं वृषमूलभूतामङ्गीचकार करुणाविमलस्वभावः ॥५०॥ इतश्चद्विजस्तत्रास्त्यसहनो नानैव पुरुषोत्तमः । स पूज्यैर्निर्जितो वादे सप्ताहैर्नृपसाक्षिकम् ॥५१॥ प्रशस्त्यन्तरेऽपि"कीर्त्या च वादेन जितो महीयान् द्विधा द्विजो यैरिह चित्रकूटे। जितत्रिकूटे नृपतेः समक्षमहोभिरह्नाय तुरङ्गसंख्यैः ॥५२॥" 2010_02 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोल्लासः । अथ तोलाभिधः श्राद्धः पूज्यान् रत्नत्रयीभृतः । निरीक्ष्याप्यायितस्वान्तो गुरुभक्तिं ततान सः ॥५३॥ अवकाशं समासाद्य लीलूजानिरर्थकदा । कनीयःसूनुसंयुक्तो गुरून् पप्रच्छ भक्तितः ॥५४॥ भगवन् ! चिन्तितो मेऽर्थो भविष्यति फलेग्रहिः । न वेति सम्यगालोच्य प्रसादं कुरुताधुना ॥५५॥ श्रुत्वेति ते क्षणं तस्थुवा॑नस्तिमितलोचनाः । उचुश्च शृणु सम्यक् त्वं सज्जनाग्रिम ! सन्मते ! ॥५६॥ शत्रुञ्जये मूलबिम्बोद्धारचिन्तास्ति ते हृदि । वस्तुपालसमानीतदले दलितकिल्बिषे ॥५७॥ तदानयनस्वरूपं त्वेवम्श्रीवस्तुपालेन विधीयमाने शत्रुञ्जये स्नात्रमहोत्सवेऽस्मिन् । अनेकदेशागतभूरिसङ्घाधिपैः समं भक्तिभरप्रणुन्नैः ॥५८॥ मा मूलबिम्बस्य विकूणिकाया भृङ्गारसङ्घट्टवशाद्विबाधा । स्याज्जातु देवेडिति सम्प्रधार्य पुष्पोच्चयैस्तां पिदधे समन्तात् ॥५९॥ (युग्मम्) तन्मन्त्रिराजोऽपि निरीक्ष्य चित्ते चिन्तां दधेऽवाच्यममङ्गलं चेत् । म्लेच्छादिना वा कलशादिना वा स्यान्मूलबिम्बस्य विधेर्नियोगात् गतिस्तदा सङ्घजनस्य केति निध्याय मम्माणिखनेरुपायैः । इहानिनायाधिपमोजदीनदिल्ल्या विशाला: फलिका हि पञ्च ॥१॥ १. स्तात् । २. मोजदीनाज्ञया तन्मंत्री पुनडो वस्तुपालमित्रं ताः शत्रुञ्जयाद्रौ प्रैषि । तत्रैका ऋषभफलही १ द्वितीया पुण्डरीकफलही २ तृतीया कपर्दिनः३ चतुर्थी चक्रेश्वर्याः ४ पञ्चमी तेजलपुरप्रासादपार्श्वफलही५ । 2010_02 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुञ्जयतीर्थोद्धारप्रबन्धे ततश्चदिग्नन्दार्कमितेषु विक्रमनृपात्संवत्सरेषु १२९८ प्रयातेषु स्वर्गमवाप वीरधवलामात्यः शुभध्यानतः । बिम्बं मौलमथाभवद्विधिवशाव्यङ्ग्यं सुभद्राचलेद्वैःस्तोकैर्गलितैः कदापि न मृषा शङ्का सतां प्रायशः ॥६२॥ इतश्चआसन् वृद्धतपागणे सुगुरवो रत्नाकराह्वाः पुराऽयं रत्नाकरनामभृत्प्रववृत्ते येभ्यो गणो निर्मलः । तैश्चक्रे समराख्यसाधुरचितोद्धारे प्रतिष्ठा शशिद्वीपत्र्येकमितेषु १३७१ विक्रमनृपादद्वेष्वतीतेषु च ॥६३॥ प्रशस्त्यन्तरेऽपि"वर्षे विक्रमतः कुसप्तदहनैकस्मिन् १३७१ युगादिप्रभुं श्रीशत्रुञ्जयमूलनायकमतिप्रौढप्रतिष्ठोत्सवम् । साधुः श्रीसमराभिधस्त्रिभुवनीमान्यो वदान्यः क्षितौ श्रीरत्नाकरसूरिभिर्गणधरैर्यैः स्थापयामासिवान् ॥१॥" गुप्ताः फलहिकाः सन्ति वस्तुपालसमाहृताः । समरोऽकारयाद्विम्बं स्वाहतेन दलेन तु ॥६४॥ स्मरस्थापितं बिम्बं म्लेच्छैः कालेन पापिभिः । शिरोऽवशेषं विहितं तदद्यापि तथार्च्यते ॥६५॥ तव चित्तालवालेऽसौ मनोरथसुरद्रुमः । उप्तोऽस्मिंस्त्वत्सुते किन्तु भविष्यति फलेग्रहिः ॥६६॥ १-मुख्यम् । २-संवत् १३६८ म्लेच्छाज्ञया तदा शत्रुञ्जयभङ्गः । 2010_02 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ प्रथमोल्लासः । प्रतिष्ठा समरोद्धारे यथास्मत्पूर्वजैः कृता । तथैव त्वत्सुतोद्धारेऽस्मद्विनेयैः करिष्यते ॥६७॥ नारसिंहिरिति श्रुत्वाऽविसंवादि गुरूदितम् । समं हर्षविषादाभ्यां भावसङ्करमन्वभूत् ॥६८॥ बबन्ध शकुनग्रन्थिं करमाह्वः कुमारराट् । शत्रुञ्जयमहातीर्थोद्धारचिन्तां विदन् पितुः ॥६९॥ यात्रास्नात्रार्चनादीनि श्रीसङ्घोऽपि यथारुचि । चकार गुरुसाहाय्याद्यात्रां च गुरुसत्तमाः ॥७०॥ ससङ्घा गुरवोऽन्येद्युश्चलनोपक्रमं व्यधुः । गुरुस्थित्यै च तोलाख्यो निर्बन्धं बहुधाऽकरोत् ॥७१॥ गुरवो व्याहरन् श्राद्ध ! धर्मकृत्ये विवेक्यपि । अन्तरायी भवस्यस्मान् भक्तिजाड्यमहो ! तव ॥७२॥ भृशं दानं तमालोक्य वत्सलत्वादुरूत्तमाः । व्यमुचंस्तत्र विनयमण्डनाभिधपाठकान् ॥७३॥ उद्यद्विहारिणः पूज्या यात्रायै ते प्रतस्थिरे । पाठकाश्चित्रकूटेऽपि भव्यसत्वानबूबुधन् ॥७४॥ तोलादिश्राद्धगणो निकषा पाठकमथोपधानादि । विदधे सद्गुरुबुद्ध्या कुलगुरुरीतिं न च लुलोप ॥५॥ रत्नादिकाः श्रीकरमावसानास्तोलात्मजाः शुद्धधियः परेऽपि । पेठुः षडावश्यकनन्दतत्त्वभाष्यादिकं प्रीतिपरायणास्ते ॥७६॥ परं कर्माभिधे श्राद्धे पाठकाः श्रीगुरोगिरा । परमामादधुः प्रीतिं महत्कार्यविधातरि ॥७७॥ 2010_02 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुञ्जयतीर्थोद्धारप्रबन्धे ८५ करमाह्वोऽन्यदा प्राह भवद्गुरुवचो विभो ! । अविसंवादि तत्रार्थे पूज्यैर्भाव्यं सहायिभिः ॥७८॥ पाठकेन्द्रास्ततः स्मित्वा सुश्लिष्टं वचनं जगुः । विनयादेव विमलगोत्रोद्धारकृतां हितम् ॥७९॥ चिन्तामणिमहामन्त्रं चिन्तितार्थप्रसाधकम् । ददुश्च विधिवत्तस्मै सुचिह्नोदयधारिणे ॥८॥ सर्वे पाठकपुङ्गवैरथ गिरौ श्रीचित्रकूटाभिधे ज्ञानध्यानतपःक्रियाभिरनिशं श्राद्धा भृशं रञ्जिताः । सिक्ताभिग्रहपुष्पसञ्चयवती जाता यथा सद्वने ॥८१॥ स्थित्वा मासान् कतिचन ततः पाठकेन्द्रा विजह्वर्धर्मे लोकानुचित उचिते योजयित्वा यथार्हम् । भूयो भूयः करमकुमरं सम्यगामन्त्र्य तीर्थोद्धारार्थं ते सुविहितजनेष्वादिमा ये प्रसिद्धाः ॥८२॥ पुण्यक्षेत्रेषु सर्वेष्वपि विमलघनं स्थापयित्वागमोक्तयुक्त्या श्रीधर्मरत्नाभिधसुगुरुमथाधाय चित्ते पवित्रे । प्रत्याख्यायाघवृन्दान्यनशनविधिना साधितार्थोऽवसाने तोलाख्यः श्राद्धमुख्यः सुरसदनसुखान्याससादाऽविषादः ॥८३॥ ततः क्रमेण विगलच्छोका रत्नादयः सुताः । रम्येषु स्वस्वकृत्येषूद्युक्ता धोरेयतामधुः ॥८४॥ कनीयानपि कर्माह्वो वसनव्यवसायवान् । सुधर्मव्यसनीमुख्यः सज्जनेषु सदाऽजनि ॥८५॥ न सेहे महनीयात्मा तनयस्यापि दुर्नयम् । दुस्थानां दौस्थ्यमुद्धर्तुं स विक्रमपराक्रमः ॥८६॥ 2010_02 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ व्यधत्त विधिना स्पर्द्धामप्यनुल्लङ्घयन् विधिम् । विधिनिर्मितदौर्विध्यानीश्वरीकृत्य सोऽञ्जसा ॥८७॥ द्विसन्ध्यमावश्यकमेकचित्तस्त्रिसन्ध्यमर्च्या जिनराजमूर्त्तेः । कुर्वन् सदा पर्वसु पौषधादिकर्मो हि धर्मं चिरमारराध ॥ ८८ ॥ उपार्जयामास हिरण्यकोटीर्महेभ्यकोटीरमणिः सुखेन । वणिक्पुतश्रेणिनिषेव्यमाणोऽपापैरुपायैर्नरवाहनोऽन्यः ॥८९ ॥ स्वरूपशोभाविजिताप्सरोभ्यामभान्महेभ्यः सुभगः प्रियाभ्याम् । सरूपशोभाजितकाममानः सदार्थिनां कल्पतरूपमानः ॥९०॥ पुत्रपौत्रप्रपौत्रादिस्वजनालम्बनं हि सः । रराज वासव इव स्वर्वासिभिरुपासितः ॥९१॥ इति करमाह्वः साधितपुरुषार्थो मनसि देवमेव जिनम् । श्रीविनयमण्डनं गुरुमस्थापयदमलसम्यक्त्वः ॥ ९२ ॥ शत्रुञ्जयोद्धृतिविधो विधृतप्रतिज्ञः स्वप्नेऽपितिद्गतमनाः प्रयतः समन्तात् । इष्टार्थसाधकमनिन्दितमुत्प्रभावं 'धर्म्मामरद्रुममसौ चिरमारराध ॥ ९३ ॥ प्रथमोल्लासः । इति श्रीइष्टार्थसाधकनाम्नि श्रीशत्रुञ्जयोद्धारप्रबन्धे पं. विवेकधीरगणिकृते वंशादिव्यावर्णनो नाम प्रथम उल्लासः । १. चिंतामणि स खलु मंत्रमथारराध - इति वा पाठः । 2010_02 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ शत्रुञ्जयतीर्थोद्धारप्रबन्धे ॥ अथ द्वितीय उल्लासः ॥ श्रेयोवनितालिकः प्रमदवनोल्लासने च वारिधरः । प्रथयतु मङ्गलमालां पार्श्वस्त्रैलोक्यजनमहितः ॥१॥ इतश्चश्रीवनराजस्थापितपत्तननगरेऽत्र गूर्जरात्रायाम् । चापोत्कटवरवंशे राजानो विदितकीर्तयोऽभूवन् ॥२॥ छत्राधीशा बलिनो वन-योग-क्षेमराजनामानः । भूयड-वज्रौ रत्नादित्यः सामन्तसिंहश्च ॥३॥ अथ चोलुक्यसुवंशे राजानो मूलराज-चामुण्डौ । वल्लभ-दुर्लभ-भीमाः कर्णो जयसिंह - कुमरनृपौ ॥४॥ 'भूनेताऽजयपालो लघुक्रमान्मूल-भीम-भूपालौ । अथ वाघेलकवंश्यास्तत्राद्यो वीरधवलनृपः१९ ॥५॥ वीसला-र्जुन-सारङ्गदेवा ग्रथिलकर्णकः२२ । सप्ताऽक्षत्रीन्दुवर्षेषु १३५७ पत्तने यावनी स्थितिः ॥६॥ शरयुगनयनसुधाकर १२४५ मितेषु वर्षेषु विक्रमादिल्ली । लब्धा यवननरेशैः क्रमशस्तेऽमी महावीर्याः ॥७॥ महिमद - साञ्जर साही तदनु नृपौ मोज- कुतुबै- दीनाहौ । साहब - रुकम-दीनौ सप्तमपट्टे जूआं बीबी ॥८॥ मोजंदीनो-ऽलावंदीनो वृद्धो नसरतो नृपः । ग्यास - मोज - समस्दीना जलालदीनो भूधवः ॥९॥ * क्वचिदजयपालपट्टे त्रिभुवनपालो लिखितोऽस्ति स तु वीरधवलपुरोहितसोमेश्वरकृत-कीर्तिकौमुदीकाव्ये न गणित इत्युपेक्षितः । स ___ 2010_02 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः । अलावदीनो - वेदाक्षाग्रीन्दुवर्षेषु १३५४ विक्रमात् । गूर्जरात्रालाभपुरजेताऽभूत्पार्थिवो महान् ॥१०॥ कुतुब- सहाब " - खसबाद्दीनाः श्रीग्यासदीनें - महिमुदौ । पिरोज". बूबक "नृपौ तुगलक - महिमुदशाही च ॥११॥ २३ ८८ दिल्लयामेते भूपा अलावदीनाच्च गूर्जरात्रेशाः । षण्महिमूदनृपान्ता रज्यविभक्तिस्ततो जज्ञे ॥ १२ ॥ अलावदीनाद्याज्ञप्ताः पत्तनेऽथाधिकारिणः । अलूखानः खानखानाँ दफरंश्च ततारकैः ॥१३॥ पीरोजशाहेः समयेऽथ जज्ञे श्रीगूर्जरात्राभुवि पादशाहिः । मुज्जफुराह्वः खगुणाब्धिचन्द्रमितेषु १४३० वर्षेषु च विक्रमार्कात् ॥१४॥ अहिमदशाहिर्जज्ञे तत आशेष्वब्धिचन्द्रमितवर्षे १४५४ । दिग्रसवेन्द्वे १४६८ योऽस्थापयदहिमदावादम् ॥१५ ॥ महिर्मुन्द-कुतुबैदीनौ शाहिमहिर्मुन्दवेगडस्तदनु । यो जीर्णदुर्गचम्पकदुर्गौ जग्राह युद्धेन ॥ १६ ॥ ततो लक्षणसाहित्यज्योतिःसङ्गीतशास्त्रवित् । आधारो विदुषां वीरश्रीवरोऽभून्मुजफ्फरः ॥१७॥ प्रज्ञाः प्रजा इवापाद्यः प्रजा इव प्रजा अपि । शकन्दरादयः पुत्रा बभूवुस्तस्य भूविभोः ॥१८॥ नयविनयभक्तिशक्तिप्रमुखगुणैरन्वितः पितुश्चेतः । अहरच्छकन्दराह्नो जायान्सूनुः प्रजायाश्च ॥१९॥ बाधरनामा तदनुज उद्वरचरितः प्रतापजिततरणि: । रिपुहृदये प्रलयानल इवोदितः साहसी सततम् ॥२०॥ 2010_02 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुञ्जयतीर्थोद्धारप्रबन्धे श्रुतपूर्वराजनन्दनचरितो वसुधानिरीक्षणव्यसनी । कतिचनपरिचारकजनसमन्वितो निर्ययौ सदनात् ॥२१॥ पुरनगरपत्तनान्याक्रामन् विक्रमधनः क्रमेणैषः । श्रीचित्रकूटदुर्गे जगाम तद्भूपविहितबहुमानः ॥२२॥ करमेभ्येन सहस्याभवदतिसौहार्दमंशुकः कयणात् । प्रियवचनाशनवसनैरेनं करमोऽपि बहु मेने ॥२३॥ स्वप्नेऽन्यदा गोत्रसुरीगिरेभ्यः स्वेष्टार्थसिद्धिं प्रविभाव्य तस्मै । वितीर्णवान् टङ्ककलक्षमाशूद्यताय गन्तुं पथि शम्बलार्थम् ॥२४॥ आजीवितं मित्रवराधमोऽहं ते, वदन्तं त्विति कर्म आह । न वाच्यमित्थं प्रभवो हि यूयं भृत्यः कदापि स्मरणीय एषः ॥२५॥ सुलब्धराज्येन वचोमदीयमेकं विधेयं भवता प्रयत्नात् । शत्रुञ्जये स्थापनरूपमङ्गीचकार तद्बाधरशाहिराशु ॥२६॥ अथ प्रतस्थे करमं ततोऽनुज्ञाप्याधिपो गूर्जरमण्डलस्य । सर्वंसहायाः कुतुकानि सर्वंसहो ह्यपश्यद्दिवसैः कियद्भिः ॥२७॥ मुजफ्फरो भूमिधवोऽवसाने शकन्दरं राज्यधरं चकार । स नीतिशालीति खलैर्निजघ्ने स्तोकैरहोभिर्महिमुन्दकोऽपि ॥२८॥ वृत्तान्तमाप्तप्रहितं निशम्य विदेशगो बाधरशाहिरेनम् । प्रत्यावृतश्चम्पकदुर्गमाप तदैव राज्ये विनिविष्ट एव ॥२९॥ श्रीविक्रमार्काद्णदिक्षरेन्दुमितास्वतीतासु समासु १५८३ जज्ञे । राज्याभिषेको नृपबाधरस्य प्रोष्ठद्वितीयादिवसे गुरौ च ॥३०॥ स्वामिद्रोहपरायणाः खलजनाः केचिद्धता उद्धताः केचिन्निर्विषयीकृता विदलिताः केचिच्च बन्दीकृताः । १. चित्रकूटात् । २. शकन्दर । ___ 2010_02 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः । केचित्केचन लुण्टिता निगडिताः केचित्पदं त्याजिता । राज्यं बाधरशाहिना श्रितवताऽहन्येव तस्मिन्नथ ॥३१ ॥ श्रीमद्बाधरभूपतेः प्रसरति स्फीते प्रतापाब्जिनीप्राणेशे प्रपलायितं रिपुतमस्तोमेन मूलादपि । दस्युलूककुलेन भीतितरलेनाहो निलीय स्थितं सच्चक्रैर्मुदितं द्विजिह्वमदनेनालं विलीनं जवात् ॥३२॥ दुःखशुष्यद्रिपुप्राणतृणसन्धुक्षितः क्षणात् । ववृधेऽस्य प्रतापाग्निर्बन्दी श्वासानलेरितः ॥ ३३ ॥ अकरोद्गोत्रसंहारं यत्सुरेशेरितः पविः । श्रीबाधरप्रतापानौ वर्णलोपमवाप तत् ॥३४॥ बाधरसमरेऽरीणां दत्ताः प्राणास्तृणैर्वदननिहितैः । तैर्भुक्तैर्धेनूनां भवति पयाश्चित्रमत्र कथम् ॥ ३५ ॥ बाधरभूपतिदृक्पथमुपेत्य कुशलेन गेहमायातैः । भूपैर्वर्द्धापनिका निरन्तरं तन्यते भीतैः ॥ ३६ ॥ उपकारिणमपकारिणमेष च सस्मार विस्फुरत्तेजाः । सुरतरुरेकस्याभूदशनिनिपातः परस्परम् ॥३७॥ आह्वयच्च सुकर्माणमथ कर्मेभ्यमादरात् । स्मरन्नुपकृतिं तस्य स कृतज्ञशिरोमणिः ॥ ३८ ॥ आगात्किलाकारितमात्र एवोपदीकृतानेकसुवस्तुशैलः । कर्मस्ततो बाधरभूमिपालोऽप्युत्थाय दोर्भ्यां च तमालिलिङ्गः ॥ ३९ ॥ तुष्टाव बाढं परिषत्समक्षमहो ! ममायं परमो वयस्यः । कदर्थितं प्राग्दुरवस्थया मां समुद्दधाराशु दयालुरेषाः ॥४०॥ १. अविर्मेष इत्यर्थः । ९० 2010_02 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुञ्जयतीर्थोद्धारप्रबन्धे न्यवारयद्भूपमिति ब्रूवाणं कर्मेभ्य आप्यायितचित्तवृत्तिः । अलं भरं वोढुमधीश ! नैतावन्तं जनोऽयं बत भृत्यमात्रः ॥४१॥ आवासान् करमाय बाधरधराधीशोऽप्यथादापयत् सन्मान्य प्रवरांशुकाभरणसत्ताम्बूलदानादिना । नत्वा देवगुरून् वितीर्य बहुधा स्वयं याचकेभ्यो नृपप्रत्तावासमथाससाद स महेभ्योऽप्युत्सर्वैर्भूरिभिः ॥४२॥ श्रीसोमधीरसुगणिं निकषा धर्मोपदेशमश्रौषीत् । आवश्यकादिकृत्यं चकार नित्यं महौभ्योऽसौ ॥४३॥ अथ चविद्यामण्डनसूरीन्द्रान् पाठकेन्द्रानपि स्फुटम् । स उद्दिश्यालिखत्पत्रं प्रणामागमसूचकम् ॥४४॥ उपभूपं स्वयं तस्यौ सावधानमना: सुधीः । पूजाप्रभावनासङ्घवात्सल्यादिपरायणः ॥४५॥ अथ देयं ददौ द्रव्यं भूपोऽपीभ्याय सत्वरम् । इभ्योऽपि धर्मपत्रे तदलिखत्तत्क्षणादपि ॥४६॥ तुष्टोऽन्यदा बाधरशाहिराह वयस्य ! किं ते प्रियमाचरामि । मन्मानसप्रीतिकृते समृद्धदेशादिकं किञ्चिदितो गृहाण ॥४७॥ ततो महेभ्यः समुवाच वाचं शत्रुञ्जयोद्धारपरीतचेताः । भवत्प्रसत्त्या मम सर्वमस्ति किन्त्वेतदीहे महसां निधान ! ॥४८॥ संस्थापनीया मयकास्ति शत्रुञ्जयाचले गोत्रसुरी विशाला । आज्ञां प्रयच्छाधिप ! तन्निमिता अभिग्रहाः सन्ति ममापि तीव्राः ॥४९॥ 2010_02 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ द्वितीय उल्लासः । पुरापि किञ्च प्रतिपन्नमासीच्छ्रीचित्रकूटे भवता नरेश ! मामुत्कलाप्य व्रजता विदेशमुपस्थितोऽयं समयोऽधुना सः ॥५०॥ श्रुत्वेति वाचं निजगाद शाहिर्यद्रोचते ते कुरु तद्विशङ्कम् । गृहाण मे शासनपत्रमेतन्न कोऽपि भावी प्रतिबन्धकोऽत्र ॥५१॥ ततोऽह्नि शुद्धे करमश्चचालोपादाय तच्छासनपत्रमाशु । सुवासिनीभिः कृतमङ्गलश्च प्रवृद्धरागः शकुनैर्वरण्यैः ॥५२॥ आतोद्यनादध्वनितान्तरिक्षः प्रगीतकीर्त्तिः पथि बन्दिवृन्दैः । पौरैः परीतो गजवाजिराजरथाधिरूढैः परितो रथस्यः ॥५३॥ धनैर्मुदाऽऽसार इवाभिवर्षन् सूर्यादपि स्फीतमरीचिजालः । भ्राजिष्णुरिन्द्रादपि वैभवेन शुद्धः सुधादीधितितोऽपि सौम्यः ॥५४॥ चैत्येषु चैत्येषु पुरे पुरे च स्नात्रार्चनादीन्यमलानि तन्वन् । शालासु शालासु च साधुवर्गं सन्मानयन् सद्वसनानपानैः ॥५६॥ स्वैरुद्धरन् दुस्थितदीनलोकान्निवारयन् शाकुनिकादिवर्गम् । त्यजन्निषिद्धाचरणानि धर्मकृत्यानि सर्वाणि समाचरंश्च ॥५६॥ (पञ्चभिः कुलकम्) स्तम्भतीर्थमधिगत्य सत्पुरं पौरलोकविहितोत्सवः क्रमात् । पार्श्वनाथमभिनूय तत्र सीमन्धरं च परमां मुदं दधे ॥५७॥ तत उपेत्य स पौषधसद्मनि प्रमदजोद्वषणाञ्जितविग्रहः । विनयमण्डनपाठकसत्तमान्समभिवन्द्य कृती न्यवदत्तदः ॥५८॥ फलवदद्यतनं दिनमीशितर्मतिजितभंगुरो ! सुगुरो ! मम । सुविहिताय॑भवच्चरणाम्बुजप्रणतितो जितमन्मथभूपते ! ॥११॥ 2010_02 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुञ्जयतीर्थोद्धारप्रबन्धे त्वयि भवो भगवन्न पुनर्भवो न मदनो मदनोऽपि मदोऽमदः । जनमिमं तु समुद्धर दुर्गतौ परिपतन्तमनन्यगतिं हहा ॥६०॥ पूज्यैः पुराऽऽश्लिष्टतयोदितं यत्तत्साम्प्रतं स्पष्टतया विधेयम् । समस्तशास्त्रार्थविचारदक्षैः क्रियासु योग्यासु कृतावधानैः ॥६१॥ समुद्धतिः प्राकृतवस्तुनोऽपि पुण्याय लोकैकरुपदिश्यते चेत् । जिनेन्द्रबिम्बस्य कथं न शत्रुञ्जयाचले सा हि महोदयाय ॥६२॥ अथवा महतामियं कथं परिहासाय न धृष्टता मम । भवतामुपदेश एष चेद्भवतामेव पुनः समर्प्यते ॥६३॥ वाक्यावसानेऽथ च पाठकेन्द्रा मनक् स्मितो नोत्तरयाम्बभूवुः । धर्मोपदेशेन यथोचितेन जन्तूनशेषान् समबूबुधश्च ॥६४॥ कर्माख्यमाहुर्विधिविज्ञ ! धर्मकृत्ये त्वया द्राक् यतनीयमेव । ज्ञास्यामहे चावसरे वयं तूपेक्षां शुभे कर्मणि के हि कुर्युः ॥६५॥ वक्तृवैशिष्ट्यतो व्यङ्ग्यविद्विज्ञाततदागमः । गुरून् नत्वाऽचलत्कर्मो गृहीतनृपशासनः ॥६६॥ अहोभिः पञ्चषैरदिरगान्नेत्रपथातिथिः । कर्मस्य हृदयानन्दी महातीर्थाहयो यतः ॥६७॥ वीक्षणाच्छैलराजस्य सोऽभूतानन्दमेदुरः । स्तनयित्नोः शिखण्डीव चलचञ्चुर्विधोरिव ॥६८॥ वर्द्धाप्य स्वर्णरजतपुष्पै रत्नैः फलैरपि । सन्तोष्य मार्गणान् दानैर्गिरये स नमोऽकरोत् ॥६९॥ १. करमस्येतिशेषः । तद्भाषणान्ते-इति वा पाठः । २. महातीर्थं शत्रुञ्जयस्य नाम । 2010_02 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः । "चिराद् दृष्टोऽसि शैलेन्द्र ! कल्पद्रुरिव कामदः । दर्शनस्पर्शनाभ्यां हि पापव्यापहरः परः ॥ ७० ॥ कल्पादौ हि न सङ्कल्पो ममाल्यैहिककामदे | ऐहिकामुष्मिक सुखयच्छके त्वयि वीक्षिते ॥ ७१ ॥ स्वर्गादिसौख्यनिःश्रेणिर्दुर्गत्योकोदृढार्गला । चिरं जय ! गिरीन्द्र ! त्वं परमं पुण्यमन्दिरम् ॥७२॥ चिन्तामण्यादिवस्तूनि न मुञ्चन्ति तवाश्रयम् । यदर्थं क्लिश्यते लोकैराराधनपरैश्चिरम् ॥७३॥ प्रदेशे हि तवैकैकेऽनन्ताः सिद्धाः प्रतिष्ठिताः । न विद्यते परं त्वत्तः पुण्यक्षेत्रं त्रिविष्टपे ॥ ७४ ॥ अस्तु वा प्रतिमा मास्तु केवलस्त्वं नगाधिपः । भिनस्त्येनांसि लोकानां दर्शनात्स्पर्शनादपि ॥ ७५ ॥ जिनः सीमन्धरो मत्त्र्त्यान् भारतान् वर्णयत्यलम् । त्वां विहाय बुधा: प्राहुः कारणं तत्र नापरम् " ॥ ७६ ॥ इति स्तुत्वाञ्जलिं बद्ध्वा पुनर्नत्वाऽग्रतोऽचलत् । अकल्पयदसौ वासं पद्यामादिपुरस्य च ॥७७॥ म्लेच्छस्वभावाच्च मयादखानः कालुष्यमन्तर्भृशमादधानः । सौराष्ट्रभुक् स्वप्रभुशासनात्तु नालं निषेद्धुं करमाय जज्ञे ॥७८॥ श्रीगूर्जरवंशीयै रविराज - नृसिंहवीरवर्यैश्च । कर्मस्य धर्मकृत्ये बहुधा साहाय्यमत्र कृतम् ॥ ७९ ॥ ९४ १. आदिपुरपद्यां हि सूत्रधारादीनां सुखार्थं, ततश्च जनसमूहे मिलिते जलादिसौलभ्यार्थं पादलिप्ते स्थितः । तदपेक्षया 'पादलिप्ताख्यसत्पुरे' इति पाठः । २. बाधरशासनात् । 2010_02 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुञ्जयतीर्थोद्धारप्रबन्धे ९५ श्रीस्तम्भतीर्थादथ पाठकेन्द्राः सुसाधुसाध्वीपरिवारयुक्ताः । . उद्दिश्य यात्रां विमलाचलस्य तत्रैयरुः प्रीणितसाधुवर्गाः ॥८॥ गुर्वागमनात्प्रीतिं करमः परमां दधे विशुद्धमतिः । द्विगुणीभूतोत्साहो मङ्गलकृत्यानि विदधे च ॥८१॥ अथ समरादिगोष्ठिकवर्गान् पाठकवराः समाकार्य । श्रीवस्तुपालसचिवानीतदले याचयामासुः ॥८२॥ तानुपास्य करमो गुरोगिरा प्रार्थिताधिकधनार्पणादिना । ते दले हि समुपाददे मुदाऽन्यान्यपि स्वककुटुम्बहेतवे ॥८३॥ विवेकतो मण्डनधीरसंज्ञौ शिष्यौ क्रमात्पाठकपण्डितौ हि । पूज्यौनियुक्तावथ सूत्रधारशिक्षाविधौ वास्तुसुशास्त्रविज्ञौ ॥८४॥ शुद्धान्नपानानयनादिकार्ये शिष्याः क्षमाधीरमुखा नियुक्ताः । भूयांस आनन्दपराः परे तु षष्ठाष्टमादीनि तपांसि तेनुः ॥८५॥ रत्नसागरसंज्ञस्य जयमण्डनकस्य च । षाण्मासिकतपोनन्दिर्जज्ञे शासननन्दिकृत् ॥८६॥ व्यन्तरादिकृतान् घोरानुपसर्गाननेकशः । पाठकाः शमयामासुः सिद्धचक्रस्मृतेः क्षणात् ॥८७॥ तपोजपक्रियाध्यानाध्ययनादिक्रयाणकैः ॥ अर्जयन्तो भूरिलाभं तेऽशुभन् धर्मसार्थपाः ॥८८॥ सुखासिकाभिर्विविधाभिराशु भोज्यैश्च साज्यैः ससितैः पयोभिः । स सूत्रधारान् करमोऽपि नित्यमावर्जयामास वदान्यधुर्यः ॥८९॥ शतशः सूत्रधारास्ते यद्यदीषुर्यदा यदा । तत्तदानीतमेवाग्रेऽपश्यं श्रीकर्मसाधुना ॥१०॥ ___ 2010_02 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः । कर्मेणावर्जितास्ते तु सूत्रधारास्तथा यथा । चक्रुर्मासविधेयानि कार्याणि दशभिर्दिनैः ॥११॥ प्रतिमावयवानां तैर्विभागा वास्तुदर्शिताः । यथास्थानं समुत्कीर्णश्चतुरस्राकृतिस्थितेः ॥१२॥ अपराजितशास्त्रोक्तालालक्षणलक्षितः । उत्तुङ्ग आयकुशलैः प्रासादो विदधेऽद्भुतः ॥१३॥ क्रमेण च सुनिष्पन्नप्रायास्तु प्रतिमास्तथा । मुहूर्त्तनिर्णयः कर्तुमारेभे शास्त्रकोविदः ॥१४॥ मुनयो वाचनाचार्या विबुधा अपि पाठकाः । सूरयो गणयोऽनेके देवतादेशशालिनः ॥१५॥ गणकाश्च निमित्तज्ञा ज्ञानविज्ञानकोविदाः । सर्वतोऽपि समाहूताश्चक्रुस्ते दिननिर्णयम् ॥१६॥(युग्मम्) वैशाखमासेऽसितषष्ठिकायां वारे रवौ भे श्रवणाभिधे च । इदं मुहूर्तं जिनराजमूर्तेः संस्थापनाया उदयाय वोऽस्तु ॥१७॥ इति वाक्यावसाने तान् समभ्यर्च्य यथोचितम् । कुङ्कमाक्ताह्वनपत्र्यः प्राहिणोत्स दिशो दिशम् ॥९८॥ प्राच्यामपाच्यां दिशि च प्रतीच्यां सम्प्रेषितास्तेन जना उदीच्याम् । श्रीपूज्यविद्यादिमण्डनानामाकारणाय प्रहितश्च रत्नः ॥१९॥ अङ्गेषु बङ्गेषु कलिङ्गकेषु काश्मीरजालन्धरमालवेषु । वाहीकवाल्हीकतुरुष्ककेषु श्रीकामरूपेषु मुरुण्डकेषु ॥१०॥ १. मूलप्रासादस्तु चिरन्तन एव तत्र जीर्णोद्धारः कारितो देवकुलिकाश्चोद्धृताः २. प्रतिष्ठामुहूर्तस्य प्रारेभे निर्णयो बुधैः-इति वा पाठः । ३. ज्येष्ठभ्राता । 2010_02 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७ शत्रुञ्जयतीर्थोद्धारप्रबन्धे वैद्येषु साल्वेषु च तायिकेषु सौवीरप्रत्यग्रथकेरलेषु । कारूपभोटेषु च कुन्तलेषु लाटेषु सौराष्ट्रसुमण्डलेषु ॥१०१॥ श्रीगूर्जरात्रासु मरुष्वथापि ये सन्ति लोका मगधेषु तेऽपि । आकारिताः कर्ममहेभ्यः के नानाकारिताश्चाययुरुत्सवेऽस्मिन् ॥१०२॥ (त्रिभिः कुलकम्) गजाधिरूढास्तुरगाधिरूढा रथाधिरूढा वृषभाधिरूढाः । अभ्याययुः सारसुखासनाधिरूढा नराः सत्करभाधिरूढाः ॥१०३॥ विद्यामण्डनसूरीन्द्रान् रत्नसाधुरुपेत्य च । नत्वा स्तुत्वोल्लसद्भक्तिः ससङ्घाश्च न्यमन्त्रयत् ॥१०४॥ पूज्याः प्राहुर्महाभाग ! पुरा पार्श्वसुपार्श्वयोः । चित्रकूटाचले चैत्यं व्यधायि भवताद्भुतम् ॥१०५॥ आहूतैरपि निर्बन्धादस्माभिस्तत्र नागतम् । विवेकमण्डनेनास्मच्छिष्येण तत्प्रतिष्ठितम् ॥१०६॥ चेतोऽस्माकं पुराप्यासीच्छत्रुञ्जयगिरि प्रति । सोत्कण्ठमधुना तत्तु त्वरां धत्ते विशेषतः ॥१०७॥ ततः सरत्नसङ्घाः श्रीविद्यामण्डनसूरयः । शिष्यसौभाग्यरत्नानूचानादिमुनिमण्डिताः ॥१०८॥ परःशतैः सूरिराजैरन्यैः पाठकपण्डितैः । सहस्त्रसंख्यैर्मुनिभिः पूज्यत्वेन पुरस्कृताः ॥११०॥ कृतोत्सवाश्च कर्मेणायातेनाभिमुखं भृशम् । विहरन्तः क्रमेणाद्रेर्व्यभूषयन्नुपत्त्यकाम् ॥१११॥ लक्षाभिर्मानुषाणां सा भूरभूदतिसङ्कटा । कर्मेभ्यस्य परं वक्षो विपुलं समजायत ॥११२॥ 2010_02 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ द्वितीय उल्लासः । सङ्घस्य विपुलां भक्तिं शक्तिमान् स व्यधाद्धनी । अन्नपानवरावासासनसन्मानदानतः ॥११३॥ सुस्फुराः स्वाभिधावच्च कृतास्तदधिकारिभिः । प्रतिष्ठाविधयः सर्वे न्यासमुद्राविशारदैः ॥११४॥ भिषग्भ्यश्च पुलिन्देभ्यो ज्ञात्वा वृद्धेभ्य आदरात् । स औषधीः समाजहेऽगणितद्रविणव्ययः ॥११५॥ कृत्येषु सर्वेष्वपि सूरिवर्यैः क्रमेण च श्राद्धजनैश्च सर्वैः । श्रीपाठकेन्द्राः सुभगाः प्रमाणीकृताः समस्तक्षणसावधानाः ॥११६॥ सर्वान् तत्: कुलगुरून् वचसा गुरूणां दानीयमन्यमपि सम्यगुपास्य लोकम् । तेषां वरामनुमतिं समवाप्य कर्मः प्रावर्त्तत प्रवरकृत्यविधौ विधिज्ञः ॥११७॥ यदा यदा पाठकपुङ्गवैः कृती धनव्यये तद्धितवाञ्छयेरितः । तदा तदानन्दमवाप सोऽञ्जसा पदे शतस्यापि सहस्त्रयच्छकः ॥११८॥ नाऽकोपि दानेन किलातिकणे केनापि तस्मिन् सहनप्रधाने । वनीपकेनेहिततोऽधिकानि प्रयच्छति प्रीणितजन्तुजाते ॥११९॥ यदर्थितुं चेतसि मार्गणैधृतं तदस्य संवीक्ष्य मुखप्रसन्नताम् । गिराधिकं याचितमाप्तमाश्वितोऽधिकं च तदानमतो वचोऽगतिम् ॥ १२०॥ नानावर्णसुभक्तिशालिविशदोल्लोचप्रभाभासुरा मुक्ताजालविभूषिता मणिगणाढ्यैः कन्दुकैरञ्चिताः १. विच्छित्ति । 2010_02 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुञ्जयतीर्थोद्धारप्रबन्धे सद्वातायनपतिसङ्गतमरुत्प्रेडोलितोद्यद्ध्वजाः प्रोत्तुङ्गाः पटमण्डपा जवनिकासंच्छादिता रेजिरे ॥१२१॥ तदानन्दमयं विश्वमभवच्च महोमयम् । क्षणा इव दिना जाता लोकानां कुतुकेक्षणात् ॥१२२॥ सूर्यकुण्डं ततो मुख्यमघसङ्घातघातकम् । व्यक्तीचक्रेऽर्चकैवृद्धैरिभ्यदानवशीकृतैः ॥१२३॥ जलयात्रादिने तेनोत्सवा ये च वितेनिरे । भरताद्युत्सवानां ते निदर्शनपदेऽभवन् ॥१२४॥ अथ निर्णीते दिवसे स्नात्रप्रमुखेऽखिले विधौ विहिते । प्राप्ते च लग्नसमये प्रसरति सति मङ्गलध्वनि ॥१२५॥ सर्वेषु प्रसन्नीभूतेषु जनेषु मुक्तविकथेषु । श्राद्धगणेषु समन्ताद्भक्तिभरोल्लसितचित्तेषु ॥१२६॥ गायन्तीष्वतिहर्षाच्छ्राद्धीपूत्फुल्लनयनवदनासु । आतोद्येषु च नदत्सु च नृत्यत्सु च भव्यवर्गेषु ॥१२७॥ विस्फारितनयनाम्बुजमविरतमीक्षत्सु सकललोकेषु । अहमहमिकया घट्यां धूपेषूत्क्षिप्यमाणेषु ॥१२८॥ विकसत्कुसुमामोदैनिभृतं सुरभीकृतासु काष्ठासु । वर्षन्तीषु च कुङ्कुमकर्पूराम्भःसु धारासु ॥१२९॥ बन्दिषु पठत्सु भोगावलीषु विलसत्सु विजयशद्वेषु । सङ्कान्तेषु च मूर्ती सुरेषु पूज्यानुभाववशात् ॥१३०॥ कर्मेभ्याभ्यर्थनयोपकारबुद्धया च विश्वलोकानाम् । रागद्वेषविमुक्तैरनुमत्या निखिलसूरीणाम् ॥१३१॥ १. तदा मूलनायकप्रतिमया सप्त श्वासोच्छ्वासाः कृताः । 2010_02 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० द्वितीय उल्लासः । श्रीऋषभमूलबिम्बे श्रीविद्यामण्डनाह्वसूरिवरैः । श्रीपुण्डरीकमूर्तावपि प्रतिष्ठा शुभा विदधे ॥१३२॥ (अष्टभिः कुलकम्) नालीलिखंश्च कुत्रापि हि नाम निजं गभीरहृदयास्ते । प्रायः स्वोपज्ञेषु च स्तवेषु तैर्नाम न न्यस्तम् ॥१३३॥ सङ्ग्रहश्लोकश्चात्रस्वस्ति श्रीनृपविक्रमाजलधिदिग्बाणेन्दुवर्षे १५८७ शुभे मासो माधवसंज्ञिकस्य बहुले पक्षे च षष्टयां तिथौ । वारेऽर्के श्रवणे च भे प्रभुपदाद्रौ साधुकर्मोद्धृतौ । विद्यामण्डनसूरयो वृषभसन्मूर्तेः प्रतिष्ठां व्यधुः ॥१३४॥ अन्येऽन्यासां चक्रुर्मूर्तीनां स्थापनां च शिष्यवराः । नानुबभूवे तस्मिन् समये केनापि दुःखलवः ॥१३५॥ कृतकृत्यस्य कर्मस्यानन्दलाभे किमुच्यते । किन्तु चित्तै तदान्येषां नामादानन्दकन्दली ॥१३६॥ न केवलं जनैः कर्मो धन्यो मेनोऽतिहर्षितैः । कर्मेणापि किलात्मानं धन्यं मेनेऽतिहर्षितः ॥१३७॥ तदा जज्ञे त्रयाणां हि समं वर्धापनक्षणः । मूर्तेर्गुरोश्च कर्मस्य स्वर्णपुष्पाक्षतादिभिः ॥१३८॥ सर्वावयवाभरणैर्वृष्टं कर्मेण सङ्घलोकैश्च ष विहितं न्युञ्छनकृत्यैरानन्दोद्भूतबहुलरोमाञ्चैः ॥१३९॥ दन्त्यं वा तालव्यं चैत्येऽस्थापयदथार्हतः कलसम् । तालव्यमेव चात्मनि कर्मो दुष्कर्ममर्मज्ञः ॥१४०॥ १. शत्रञ्जये। 2010_02 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ शत्रुञ्जयतीर्थोद्धारप्रबन्धे सौवर्णेऽत्र च कलशे दण्डं संस्थापयाम्बभूवासौ । शिवनगरशुद्धदण्डं मणिगणखचितं ध्वजोपेतम् ॥१४१॥ सङ्गाधिपत्यतिलकं भाले कर्मस्य विजयतिलकमिव । विद्यामण्डनसूरिभिरकारि वंश्योदयायैव ॥१४२॥ इन्द्रमालपरिधानादिकं किञ्चिद्व्ययास्पदम् । तन्नासीद्यन्न कर्मेणाराधितं दानशालिना ॥१४३॥ नीराजनरथचमरछत्रोल्लोचासनानि कलशाश्च । तेन ग्रामारमोघर्थाश्चैत्योपयोगिनो न्यस्ताः ॥१४४॥ उदयादारभ्याह्नोऽस्तं यावत्कर्मसाधुसदनेऽभूत् । अनिवारितान्नदत्तिः प्रतिदिनमखिलाङ्गिनां प्रीत्या ॥१४५॥ पदे पदे याचितारोऽयाचितारश्च सत्कृताः । द्रव्यकोटीरलभत तदैकैकोऽपि मार्गणः ॥१४६॥ गजरथतुरगाणां स्वर्णभूषान्वितानामददत स शतानि प्रीतिमान् याचकेभ्यः । धनवसनसुवर्णश्वेतसद्रनभूषादिकमपरमनिन्द्यं लक्षकोटिप्रमं च ॥१४७॥ विररामाऽगर्जत्सन् दानासारान्न कर्मपर्जन्यः । याचकचातकलोको वितृष्ण आजीवितं जातः ॥१४८॥ कार्पितघनजातं कियदादातुं वनीपकाः सेकुः । बहुरूपिणीं च विद्यां विधिं ययाचुस्तदा केऽपि ॥१४९।। कं विहाय स्थितः कल्पः कर्मदानविनिर्जितः । बलिः स्वरविपर्यासमभजत् ह्रीतमानसः ॥१५०॥ १. विरराम दानसमरे न कर्मशूरो दरिद्रवाटीभ्यः । ता अनिहत्य स्वशरैरविमोच्य च तद्गृहीतवन्द्याली: ॥४७॥ इति पाठान्तरे । 2010_02 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ द्वितीय उल्लासः । कर्मस्य काऽपि विकृतिर्न वचननयनाननेषु सञ्जाता । याचककोटीक्षणतः प्रसन्नतैतेषु वृद्धिमगात् ॥१५१॥ यद्वाच्यं वक्तृभिस्तद् हृदि विमलतरेऽसौ विशेषेण जानन् तेभ्यः शुश्राव सम्यक् तृषित इव तद्दूषणादत्तचित्तः । तानिच्छातीनदानैः प्रियतमवचनैर्हष्टचित्तान्विधाय प्रैषीद्गम्भीरिमाऽहो ! जगति च वचनातीतमौदार्यमस्य ॥१५२॥ वैदग्धेन निजेन पण्डितजनेऽवज्ञां परां नाट्यन्त्येके स्वं त्वपलापयन्ति च भृशं शाठ्यं समातन्वते । किन्तु श्रीकरमोऽर्थिसात्कृतरमोऽयं मार्गणाक्षोहिणीनामन्तर्विलसत्सदा विजयते दानास्त्रविभ्राजितः ॥१५३॥ कुलाचारं क्षुद्रस्त्यजति हि कदाचिद्धनमदादितीवार्थी याञ्चाव्रतमुचदिभ्याद् द्रविणवान् । न मुञ्चत्यात्मीयं व्रतमिह महात्मा कथमपीत्यसौ कर्मो दानान्न खलु विरराम क्षणमपि ॥१५४॥ अन्योऽन्यसन्दर्शनजातरागयोदेहीति वाक्यं बुवतोर्विशङ्कितम् । जज्ञे जनैर्दायकयाचकाङ्गिनोस्तदान्तरं नायहस्तयोर्मुहुः ॥१५५॥ स कोऽपि याचको नाभूद्येन कर्मो न याचितः । स पुनर्याचको नाभूद्येन कर्मस्तु याचितः ॥१५६॥ स्वर्णोपवीतमुद्राङ्गदकुण्डलकङ्कणादिकाभरणैः । वस्त्रैश्च सूत्रधारानतूतुषत्सोऽपि कर्मकृतः ॥१५७॥ धनवसनाशनभूषणयानप्रियवचनभक्तिबहुमानैः । साधर्मिकगणमसकृत्समारराधैष विनयनतः ॥१५८॥ १. 'अपरे' अध्याहारः । 2010_02 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुञ्जयतीर्थोद्धारप्रबन्धे १०३ योग्यान्नपानवसनोपकरणभैषज्यपुस्तकादीनाम् । दानैर्मुमुक्षुवर्ग समपूपुजदेष नित्यमपि भक्तः ॥१५९॥ आबालात्पशुपालं यावत्सर्वो जनोऽन्नवसनाद्यैः । सम्भावितो हि नामग्राहं कर्मेण विशदेन ॥१६०॥ इत्थं सर्वजनान् विशालहृदयः सन्तोष्य कर्माभिधः सङ्केशो विससर्ज सज्जनगुणैः सर्वैः सदा भ्राजितः । स्वे स्वे निवृत्त सङ्गमाय पुनरप्यामन्त्र्य तस्थौ स्वयं कर्तुं कार्यमिहावशिष्टमनघं घस्रान् कियन्तोऽपि च ॥१६१॥ एकैकस्य जनस्य दर्शनमभून्मुद्राशतेनैकशः तत्रापि क्षणमेकमेव भगवन्मूर्तेः सुभद्राचले । श्रीकर्मेण धनं विनापि जनताकोटे शं कारिता यात्रा तत्र सुवर्णशैलमपरं दत्त्वात्मना भूभुजे ॥१६२॥ शेषोदितान् कर्ममहेभ्यपुण्यराशीन् लिखत्यर्जुनकः खपत्रे । समस्तरत्नाकरजै रसैश्चेत्तथाप्यनन्ता लिखितावशिष्टाः ॥१६३॥ आज्ञां श्रीविनयादिमण्डनगुरोधृत्वोत्तमाङ्गे शुभां तच्छिष्यस्तु विवेकधीरविबुधो नित्यं विधेयोऽकरोत् । श्रीकर्माभिधसङ्घनायककृतोद्धारप्रशिस्तं बुधैर्वाच्यैषा रभसोत्थदोषकणिका उत्सार्य निर्मत्सरैः ॥१६४॥ एतत्प्रबन्धनिर्माणे यन्मया पुण्यमर्जितम् । सम्यग्रत्नत्रयावाप्तिस्तेनैवास्तु भवे भवे ॥१६५॥ यावच्छ्रीविमलाचलः सुरनरश्रेणीभिरभ्यर्चितः क्षोणीमण्डलमण्डनं विजयतेऽभीष्टार्थसंसाधकः । 2010_02 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ द्वितीय उल्लासः । तावच्छ्रीकरमाह्वसङ्घप्रकृतोद्धारप्रशस्तिः परा सद्वर्णा जयतादियं बुधजनैः सा वाच्यमानानिशम् ॥१६६॥ वैशाखासितसप्तम्यां सोमवारे शुभेऽहनि । इष्टार्थसाधकाह्वोऽयं प्रबन्धो रचितः शुभः ॥१६७॥ प्रतिं च प्रथमादीदलिखद्दशमीगुरौ । निदेशात्पाठकेन्द्राणां बुधः सौभाग्यमण्डनः ॥१६८॥ अनुष्टभां त्रिशत्येकचत्वारिंशत्समन्विता । सप्तविंशतिवर्णाढ्या ग्रन्थे हीष्टार्थसाधके ॥१६९॥ इति श्रीइष्टार्थसाधकानाम्नि श्रीशत्रुञ्जयोद्धारप्रबन्धे पं. विवेकधीरगणीकृते श्रीशत्रुञ्जयोद्धारव्यावर्णनो नाम द्वितीय उल्लासः ॥ इति श्रीशत्रुञ्जयोद्धारः समाप्तः ॥ १. संवत् १५८७ । २. संवत् १८५७ । 2010_02 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ राजावली-कोष्टकम् । संवत् ८०२ वर्षे वैशाख सुदि ३ रवौ रोहिणी-तात्कालिकमृगशिरनक्षत्रे, वृषस्थे चन्द्रे, साध्ये योगे, गरकरणे, सिंहलग्ने वहमाने, मध्याह्नसमये अणहिल्लपुरस्य शिलानिवेशः । तस्यायुर्बद्धः । वर्ष-२५००, मास ७, दिन ९, घडी ४४ ॥ इति ॥ अथ चापोत्कटवंशानुक्रमः१ संवत् ८०२ वर्षे वनराजराज्याभिषेकः पत्तने । राज्यं ६० वर्षं यावत् । २ सं०८६२ व० योगराजराज्या० रा० ३५ व० । ३ सं० ८९७ व० क्षेमराजराज्या० रा० २५ व० । ४ सं० ९२२ व० भूयडराज्या० रा० २९ व० । ५ सं० ९५१ व० वैरिसिंहराज्या० रा० २५ व० । ६ सं० ९७६ व० रत्नादित्यराज्या० रा० १५ व० । ७ सं० ९९१ व० सामन्तसिंहराज्या० रा० ७ व० । एवं १९६ वर्षमध्ये चापोत्कटवंशे ७ राजानः । ततश्चौलुक्यवंशे लोकप्रसिद्ध सोलंकीवंशे राज्यं गतं तदनुक्रमेण नृपावली१ सं० ९९८ व० वृद्धमूलराजराज्या० रा० ५५ व० । २ सं० १०५३ व० चामुण्डराजराज्या० रा० १३ व० । ३ सं० १०६६ व० वल्लभराज (जगज्जंपन इत्यपरनामा) राज्या० रा०६ मासं । 2010_02 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ____ ४ सं० १०६६ व० दुर्लभराज (वल्लभराजावरजः) राज्या० रा० ११ वर्ष-६ मासं यावत् । ५ सं० १०७८ व० भीमराजराज्या० रा० ४२ व० । अयं दुर्लभराज्ञो भ्रातृजः । धाराधीशभोजनृपजेता । मयणसरः (कारकः) । अस्मिन् राज्ये विमलो दण्डाधिपो जातः । ६ सं० ११२ व० कर्णराज्या० रा० ३ व० । मीणलदेवी भार्या । ७ सं० ११९९ व० कुमारपालराज्या० रा० ३१ व० । अस्मिन् राज्ये हेमसूरिर्जातः । तेषां सं० ११४५ कार्तिक शुक्ल १५ रात्रौ जन्म, ११५० व्रतं, ११६६ सूरिपदम् । ९ सं० १२३० व० अजयपालराज्या० रा० ३० व० । अजयपालसूतौ लघुमूल-भीमौ । अत्र बहवो विसंवादा दृश्यन्ते । अस्माभिस्तु कीर्तिकौमुद्यनुसारेण लिखितम् । १० सं० १२६६ (?) व० लघुमूलराज्या० रा० ८ व० । ११ सं० १२७४ व० लघुभीमराज्या० रा० .... । एवं २७६ वर्षमध्ये ११ चौलुक्यराजानः । अथ वाघेलावंशे-आनजी । मूलजी । सीहरणु । वस्तुपालादिभिः स्थापितो वीरधवलो नृपो जातः । १ सं० १२८२ व० वीरधवलराज्या० रा० १२ वर्ष ६ मासं २ सं० १२९४ व० वीसलदेवराज्या० रा० ३४ वर्ष, ६ मास १० दिनं यावत् । तत्समये जगडूसा जातः ।। * चौलुख्यवंश एव शाखान्तरोद्गतो धवलसुतोऽर्णोराजः १, तत्सुतो लावण्यप्रसादः २, तत्सुतो वीरधवलः ३ । 2010_02 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ ३ सं० १३२८ व० अजुर्नदेवराज्या० रा० २ व० ।। ४ सं० १३३० व० सारंगदेवराज्या० रा० २१ व० ॥ ५ सं० १३५१ व० ग्रथिलकर्णराज्या० रा० ६ वर्ष १० मास १५ दिनं यावत् । एवं अणहिल्लपुरशिलानिवेशानुगतवर्ष १३४९ मास १, दिन २५ । एवं संख्या ५३७ वर्ष, ८ मास, २९ दिन मध्ये २४ छत्रपतयः । ततो ग्रथिलकर्णो भयत्रस्तः स्थितः । एवं सं० १३५१ वर्षे मा १ दिन तत ऊद्धर्वं स्वप्रजावर्ती पद्मिनीधृतिरुष्टनागरमं० माधवप्रयोगात् गूजरात्रायां यवनप्रवृत्तिः ॥ * * * गूजरात्रायां उमराः, अलूखान, तदा जालहुरे काह्नडदे चहुआणः । खानखाना । दफरखान । ततारखान । * * * अथ दिल्लयां पादशाहयः । १ सं० १०४५ व० सुलतान महिमदराज्यं व० ६२ । २ सं० ११०७ व० साजरराज्यं व० ७६ । ३ सं० ११८३ व० मोजदीनराज्यं व० ३९ । ४ सं० १२२२ व० कुतबद्दीनवृद्धराज्यं व० १८ । ५ सं० १२४० व० व० सहाबदीनराज्यं व० २६ । तेन विंशतिवारबद्धरुद्धसहाबदीनसुरत्राणमोक्ता पृथ्वीराजो बद्धः । ६ सं० १२६६ व० रुकमदीनराज्यं व० १ । 2010_02 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ७ सं० १२६७ वर्षे० बीबी जूआं राज्यं व० ३ । ८ सं० १२७० व० मोजदीनराज्यं व० २८ । मोजदीनराज्ये मंत्रिपुन्नडेन प्रथमयात्रा सं० १२७३ वर्षे विहिता । द्वितीया सं० १२८६ वर्षे विहिता । तत्र मिलितस्य वस्तुपालस्य मम्माणिदलप्रार्थना । ९ सं० १२९८ व० अलावदीनराज्यं व० २१ । १० सं० १३१९ व० नसरतवृद्धराज्यं व० १३ । ११ सं० १३३२ व० ग्यासदीनवृद्धराज्यं व० १२ मास ६ । १२ सं० १३४४ व० मोजदीनराज्यं व० २ । १३ सं० १३४६ व० समसदीनराज्यं व० १ । १४ सं० १३४७ व० जलालदीनराज्यं व० ७ । १५ सं० १३५४ व० अलावदीनराज्यं व० १९ । सं० १३५४ वर्षे अलावदीनः । चतुरशीतिछत्रपतिजितोहमीरदेवो जितः । रणथंभोरदुर्गो गृहीतः । गूर्जरात्रायां उलूखानः प्रहितः । अलावदीनप्रभृतिभिः षड्भिः सुरत्राणैर्दिली गूर्जरात्रा च भुक्ता ॥ १६ सं० १३७२ व० कुतुबदीनराज्यं व० ४ । १७ सं० १३७७ व० सहाबदीनराज्यं व० १ । १८ सं० १३७८ व० खसरबदीनराज्यं मास ६ । १९ सं० १३७८ व० ग्यासदीनराज्यं व० ४ । २० सं० १३८२ व० महिमुंदराज्यं व० २५ । 2010_02 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ २१ सं० १४०७ व० पीरोजराज्यं व० ३८ । २२ सं० १४४५ व० बूवकराज्यं व० १ । २३ सं० १४४६ व० तुगलकराज्यं व० १ । २४ सं० १४४७ व० महिमुंदराज्यं व० १ । देशे देशे यवनाः । * * * अथ गूर्जरात्रायां सुरत्राणाः । १ सं. १४३० व० मुजफ्फर राज्यं व० २४ । मलमले जाति सदूमलिकः । उज्जहेल । मुजफ्फर । इति नामत्रयेण विख्यातः। पूर्वोपकारिपीरोजशाहिना गूर्जरात्राराज्यं दत्तं । २. सं. १४५४ व० अहिमदराज्यं व० ३२ । संवत् १४६८ वर्षे वैशाख वदि ७ रवौ पुष्ये अहिमदावादस्थापना । ३. सं० १४८५ व० महिमुंदराज्यं व० २१ । ४. सं० १५०७ व० कुतुबदीनराज्यं व० ८ मास ११ । ५. सं० १५१५ व० महिमुंदवेगडुराज्यं व० ५२ । पावकाचलजीर्णदुर्गौ गृहीतौ । ६. सं० १५६७ व० मुजफ्फरराज्यं व० १५, मास ७, दिन ४। ७. सं० १५८२ व० शकंदरराज्यं मास २, दिन ७ । चैत्र शु० ३ दिने राज्यं । ८. सं० १५८२ व० महिमुंदराज्यं मास २, दिन ११ । ज्येष्ठ व० ६, भृगौ राज्यं । 2010_02 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ९. सं० १५८३ व० बाधरशाहिः । भाद्रपद शुदि २, गुरौ मध्याह्ने राज्याभिषेकः। सं० १५८७, चैत्र वदि ६, रवौ श्रवणनक्षत्रे दो० करमाकारितः शत्रुजयोद्धारः। उपाध्यायश्रीविनयमंडनसाहाय्यात् भट्टारकश्रीविद्यामंडनसूरिभिः प्रतिष्ठिता मूलनायकप्रतिमा इति ॥ ६-रा ७-वृ दो० कर्माकारितप्रतिष्ठाया १-बु लग्नकुण्डलिका -१२-शु ११-मं १०-चं 2010_02 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_02