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आधुनिक वृत्तान्त
पता मिलता है, उनमें से कई एकों के सत्ता- समय और राज्यकाल में अन्यान्य तवारीखों के साथ कुछ फेरफार और विसंवाद दृष्टिगोचर होता है । परंतु यह विसंवाद तो आईन-ए-अकबरी और तवारिख-एफरिस्ता आदि ग्रन्थों में भी परस्पर बहुत कुछ मिलता है, इसलिये इस विषय का परस्पर मिलन कर सत्यासत्य के निर्णय करने का कार्य किसी विशेषज्ञ ऐतिहासिक का है । प्रबन्धकार ने तो सिर्फ पुरानी भूपावली या मुखपरंपरा से देख-सुनकर यह कोष्टक लिखा है; न कि आज कल के विद्वानों की तरह ऐतिहासिक ग्रन्थों की जाँच पडताल । तो भी लेख के देखने से ज्ञात होता है कि उन्हें यह लिखा अवश्य विचारपूर्वक है ।
प्रवर्तक श्रीमान् कान्तिविजयजी महाराज के शास्त्रसंग्रह में नई लिखी हुई प्रति उपर से यह प्रबन्ध छपाने के लिये तैयार किया गया है और भावनगर के जैन संघ के पुस्तक - भाण्डागार में से सुश्रावक सेठ कुंवरजी आणंदजी द्वारा प्राप्त हुई प्राचीन प्रति द्वारा शोधा गया है * । आशा है कि इतिहासप्रेमी और धर्मरसिक- दोनों प्रकार के मनुष्यों को इस प्रयत्न में कुछ न कुछ आनंद अवश्य मिलेगा । और वैसा हुआ तो मैं अपना यह क्षुद्र प्रयास सफल हुआ मानुंगा ।
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पौषी पूर्णिमा, ( बडौदा )
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इस प्रति के अन्त में लेखक ने निम्न प्रकार का उल्लेख किया हुआ है
" संवत् १६५५ वर्षे श्रावण वदि - ११, गुरौ महोपाध्याय श्री श्रीविमलहर्षगणि चरणसेविजसविजयेनालेखि । श्रीअहम्मदावादे । शुभं भवतु ॥ "
मुनि जिनविजय
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