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ऐतिहासिक सार-भाग देने के लिये, पाठकवर्यने, वाचक विवेकमंडन और पंडित विवेकधीर नामक अपने दो शिष्यों को, जो वास्तुशास्त्र (शिल्पविद्या) के विशेषज्ञ विद्वान् थे, निरीक्षक के स्थान पर नियुक्त किये । उनके लिये शुद्धनिर्दोष आहार-पानी लाने का काम क्षमाधीर प्रमुख मुनियों को सौंपा ।
और बाकी के जितने मुनि थे, वे सब संघ की शांति के लिये छट्ठअट्ठमादि के विशेष तप तपने लगे । रत्नसागर और जयमंडन नामके दो यतियों ने छमासी तप किया । व्यंतर आदि नीच देवों के उपद्रवों के शमनार्थ पाठकवर्य ने सिद्धचक्र का स्मरण करना शुरू किया । इस प्रकार वे सब धर्म के सार्थवाह तप, जप, क्रिया, ध्यान और अध्ययनरूपी अपने धर्मव्यापार में बहुत कुछ प्राप्त करते हुए रहने लगे।
सूत्रधारों के मन को आवर्जित करने की इच्छा से कर्मासाह निरंतर उनको खाने के लिये अच्छे अच्छे भोजन और पीने के लिये गरम दूध आदि चीजें दिया करता था । पर्वत पर चढने के लिये डोलियों का भी यथेष्ट प्रबन्ध कर दिया गया था । अधिक क्या ! सेंकडों ही वे सूत्रधार जिस समय, जिस चीज की इच्छा करते थे उसे, उसी समय कर्मासाह द्वारा अपने सामने रक्खी हुई पाते थे । इस तरह साह की सुव्यवस्था और उदारता से आवर्जित होकर सूत्रधार भी दत्तचित्त होकर अपना काम करते थे और जो कार्य महिने भर में किये जाने योग्य था, उसे वे दस ही दिन में पूरा कर देते थे । उन कारीगरों ने सब प्रतिमायें बहुत चतुरता के साथ तैयार की और सब अवयव वास्तुशास्त्र के उल्लेख मुजब यथास्थान सुन्दराकार बनाये । अपराजित शास्त्र में लिखे हुए लक्षण मुताबिक, 'आय-भाग के ज्ञाता ऐसे उन कुशल
* यह शिल्पशास्त्र का प्रामाणिक और अत्युत्तम ग्रंथ है । यह अब संपूर्ण नहीं मिलता । पाटन के प्राचीन-भाण्डागार में इसका कितनाक भाग विद्यमान है ।
१. मंदिरों और भुवनों के उंच-नीच भागों का वास्तुशास्त्र में अलग अलग आय के नाम से व्यवहार किया जाता है ।
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