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उपोद्घात इस पर्वत की महिमाविषयक विद्यमान है। इस ग्रंथ में, इस पहाड का बहुत ही अलौकिक वर्णन किया गया है। हिन्दुधर्म में जिस तरह सत्ययुग, कलियुग आदि प्रवर्तमान काल के ४ विभाग माने हुए हैं वैसे जैनधर्म में भी सुषमारक, दुःषमारक आदि ६ विभाग माने गये हैं। इन आरकों के अनुसार भारतवर्ष की प्रत्येक वस्तुओं के स्वभाव
और प्रमाण आदि में परिवर्तन हुआ करते हैं। इस निमायानु सार शत्रुजय पर्वत के विस्तृत्व और उच्चत्व में भी परावर्तन होता रहेता हैं। माहात्म्य में लिखा है कि शत्रुज्यगिरि का प्रमाण, प्रथमारक में ८० योजन, दूसरे में ७०, तीसरे में ६०, चौथे में ५०, पाँचवे में १२ और छठे में केवल ७ हाथ जितना होता है। अंग्रेजों के पवित्र स्थान अमोना की तरह प्रलय काल में इस पर्वत का भी सर्वथा नाश न होने का उल्लेख इस माहात्म्य में किया हुआ है।
इस पर्वत का पौराणिक-पद्धति पर प्राचीन इतिहास भी, इस माहात्म्य में विस्तारपूर्वक लिखा है। इस काल के तृतीयारक के अंत में जैनधर्म के प्रथम-प्रवर्तक श्री ऋषभदेव भगवान् अवतीर्ण हुए। जैनधर्म में जो २४ तीर्थंकर माने जाते हैं उन में ये प्रथम तीर्थंकर थे। इस कारण इन्हें आदिनाथ भी कहते हैं। जैनमत से, प्रवर्तमान भारतीय मानव-संस्कृति के कर्ता ये ही आदिपुरुष हैं। इन्हों ने अपने जीवन के अंतिम काल में संसार का त्याग कर श्रमणपना अंगीकार किया
और अनेक प्रकार की तपश्चर्यायें कर कैवल्य प्राप्त किया। अपनी कैवल्यावस्था में अनेकानेक बार ये शत्रुजय पर्वत पर पधारे और इन्द्रादिकों के आगे इस पर्वत की पूज्यता और पवित्रता का वर्णन किया। भगवान् आदिनाथ के पुत्र चक्रवर्ती भरतराज ने इस पर्वत पर एक बहुत विशाल और परम मनोहर सुवर्णमय मंदिर बनवाया और उस में रत्नमय भगवन्मूर्ति स्थापित की। तब ही से यह पर्वत जैनधर्म में परम-पावन स्थान गिना जाने लगा। भगवान् आदिनाथ के प्रथम
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