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________________ २८ आधुनिक वृत्तान्त के साथ खूब लडाई हुई । उसमें मंत्री ने बडी वीरता दिखलाई और शत्रु का पूर्ण संहार किया । परंतु, मंत्री को कई सख्त प्रहार लगे, जिससे वह वहीं पर स्वधाम को पहुंच गया । मंत्री ने अंत समय में, अपने सेनानियों को कहा कि, 'मैं अपने स्वामी का कर्तव्य बजाकर जाता हूं, इससे मुझे बडा हर्ष है, परंतु शत्रुजय के उद्धार की जो मैंने प्रतिज्ञा की है, वह पूरी नहीं कर सका, इस कारण मुझे बडा दुःख होता है । खैर, भवितव्यता के कारण मैं अपने हाथ से यह सुकृत्य नहीं कर सका, किन्तु मुझे विश्वास है कि मेरे पितावत्सल प्रिय पुत्र अवश्य ही मेरी इच्छा को पूर्ण करने में तत्पर होंगे, इसलिये मेरा यह अंतिम संदेश उनसे तुम कह देना ।' मंत्री के वचन को सेनानियों ने मस्तक पर चढाया । मंत्री का अग्निसंस्कार कर उसका विजयी सैन्य, विजय मिलने के कारण हर्षित होता हुआ, परंतु अपने प्रिय दंडनायक की दुःखद मृत्यु के कारण दुःखी होकर वापस राजधानी पट्टन को पहुंचा । सेनानियों ने, मंत्री के बाहड और अम्बड नामक पुत्रों को, पिता का अंतिम संदेश कहा । दोनों भ्राताओं ने पिता के इस पवित्र संदेश को बडे आदर के साथ शिरोधार्य किया और उसी समय शत्रुजय के उद्धार की तैयारी करने लगे । दो वर्ष में मंदिर तैयार हो गया । उसकी शुभ खबर आकर नौकर ने दी और बधाई मांगी । मंत्री बाहड ने उसे इच्छित दान दिया । फिर मंत्री प्रतिष्ठा की सामग्री तैयार करने लगा । कुछ ही दिन बाद एक आदमी ने आकर यह सुनाया कि पवन के सख्त झपाटों के कारण मंदिर मध्यमें से फट गया है । यह सुनकर मंत्री बडा खिन्न हुआ और महाराज कुमारपाल की आज्ञा पाकर चार हजार घोडेसवारों के साथ में ले स्वयं शत्रुजय को पहुंचा । वहां जाकर कारीगरों से फट जाने का कारण पूछा तो, उन्होंने कहा कि 'मंदिर के अंदर जो प्रदक्षिणा देने के लिये 'भ्रमणमार्ग' बनाया गया है, उसमें जोरदार हवा का प्रवेश Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002553
Book TitleShatrunjayatirthoddharprabandha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherShrutgyan Prasarak Sabha
Publication Year2009
Total Pages114
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tirth
File Size6 MB
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