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________________ उपोद्घात शत्रुजय-माहात्म्य में संघ निकाल कर इस गिरीश्वर की यात्रा करनेकराने में बडा पुण्य उत्पन्न होना लिखा है और जो* संघपतिपद प्राप्त करता है उस का जन्म सफल होना माना गया है। संघपति पद की बहुत ही प्रशंसा की गई है। लिखा है कि ऐन्द्रं पदं चक्रिपदं श्लाघ्यं श्लाध्यतरं पुनः। संघाधिपपदं ताभ्यां न विना सुकृतार्जनात्॥ अर्थात्-इन्द्र और चक्रवर्ती के पद तो जगत् में श्रेष्ठ है ही परंतु 'संघपति' का पद इन दोनों से अधिक उच्च है जो बिना सुकृत के प्राप्त नहीं होता। इस श्रेष्ठता के कारण जिन के पास पूर्वपूण्य से यथेष्ट संपत्ति विद्यमान होती है वे इस पद को प्राप्त करने की अभिलाषा रखें यह स्वाभाविक ही है। सचमुच ही जो मनुष्य शास्त्रोक्त रीति से भावपूर्वक संघ निकालता है वह अवश्य ही महत्पूण्य उपार्जन करता है। सच्चा संघपति केवल उदारता ही के कारण नहीं बनता परंतु न्याय, नीति, दया और इन्द्रियदमन आदि और भी अनेकानेक उत्तम गुणों को धारण करने के कारण बनता है। पिछले जमानों में मंत्री बाहड, वस्तुपाल-तेजपाल, जगडू शाह, पेथड शाह, समरा शाह आदि असंख्य श्रावकों ने ऐसे संघ निकाल कर अगणित सुकृत उपार्जन किया है। * जो संघ निकालता है उसे चतुर्विध समुदाय की ओर से 'संघपति' का पद समर्पित किया जाता है जो उसके भावी वंशज भी उस पदका मान प्राप्त करते रहते हैं। जैनप्रजा में बहुत से कुटुम्बों की जो 'संघवी' अटक है वह इसी 'संघपति' शब्द का अपभ्रष्ट रूप है। किसी पूर्वज के संघ निकालने के कारण यह पद उस कुटुम्ब को प्राप्त हुआ होता है। Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002553
Book TitleShatrunjayatirthoddharprabandha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherShrutgyan Prasarak Sabha
Publication Year2009
Total Pages114
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tirth
File Size6 MB
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