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________________ २५ आधुनिक वृत्तान्त ___ मंदिरों की श्रेणियों के मध्य में चलते चलते यात्रियों को 'हाथीपोल' नामका बडा दरवाजा मिलता है । जिसमें सदैव सशस्त्र पहेरेदार खडे रहते हैं । इस दरवाजे से सामने नजर करते ही वह पूज्य, पवित्र और दर्शनीय मंदिर दृष्टिगोचर होता है, जिसका चित्र इस पुस्तक के प्रारंभ में ही पाठकों ने देखा है । यही महान मंदिर इस तीर्थ का मुकुटमणि है । इसीमें तीर्थपति आदिनाथ भगवान् की भव्य मूर्ति बिराजमान है । इसी मंदिर के दर्शन, वंदन और पूजन करने के लिये, में जो कुछ ख्याति है, वह सब इसी (बडी) टोंक की है । परंतु पारस्परिक द्वेष के कारण, आप आप को स्थापक प्रसिद्ध करने की तीव्र लालसा के कारण और एक प्रकार की धर्मान्धता के कारण लोगों ने यहां की प्राचीनता को बिलकुल नष्ट भ्रष्ट कर डाला है । मैंने यहां के विद्वान जैन साधुओं के मुंह से सुना है कि, श्वेतांबर-सम्प्रदाय के खरतरगच्छ और तपागच्छ नामक मुख्य दो पक्षों ने यहां के पुराने चिह्नों को नष्ट करने में वह कार्य किया है, जो मुसलमानों से भी नहीं हुआ है ! जिस समय तपागच्छवालों का जोर हुआ, उस समय उन्होंने खरतरगच्छ के शिलालेखों को नष्ट कर दिया और उनके स्थान में अपने नवीन शिलालेख जड दिये, इसी तरह ...... जब खरतरगच्छ का जोर हुआ, तब उन्होंने उनके लेखों को भी नष्ट भ्रष्ट कर डाला । फल इसका यह हुआ कि इस पर्वत पर एक भी सम्पूर्ण मंदिर ऐसा नहीं है, जो अपनी प्राचीनता का दावा कर सके । सब ही मंदिर ऐसे हैं जो या तो नये सिरे से बनवाये गये हैं या मरम्मत किये हए हैं, या उनमें फेरफार किया गया है ।" (जैन हितैषी, भाग-८ संख्या-१०) ___भारत हितैषी इस सज्जन पुरुष के कथन में बहुत कुछ सत्यता है, ऐसा मैं अपने अन्यान्य अनुभवों से कह सकता हूं । पाटन वगैरह स्थलों के पुस्तक भाण्डागारों के अवलोकन करते समय ऐसी अनेक पुस्तकें मेरे दृष्टिगोचर हुई, जिनके अन्त की लेखकप्रशस्तियों में, एक दूसरे गच्छवालोंने, हरताल लगा लगाकर रद्दोबदल कर दिया है या उनका सर्वथा नाश ही कर डाला है । ऐसा ही निन्द्य कृत्य, संकुचित विचारवाले, क्षुद्र मनुष्यों द्वारा, टॉड साहब के कथनानुसार, शिलालेखों के विषय में भी किया गया हो तो उसमें आश्चर्य नहीं । चाहे कुछ भी हो, परन्तु इतना तो सत्य है कि, शत्रुजय के मंदिरों की ओर देखते, उनकी प्राचीनता सिद्ध करनेवाले प्रामाणिक साधन हमारे लिये बहुत कम मिलते हैं और यह ऐतिहासिक साधनाभाव थोडा खेदकारक नहीं है । Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002553
Book TitleShatrunjayatirthoddharprabandha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherShrutgyan Prasarak Sabha
Publication Year2009
Total Pages114
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tirth
File Size6 MB
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