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ऐतिहासिक सार-भाग पास बुलाने के लिये आह्वान भेजा । साह भी आमंत्रण आते ही भेंट के लिये अनेक बहुमूल्य चीजें लेकर उसके पास पहुंचा । बहादुरशाह ने साह के सामने आते ही ऊठकर दोनों हाथों से बड़े प्रेम के साथ उसका आलिङ्गन किया । अपने सभामंडल के आगे कर्मासाह की निष्कारण परोपकारिता की खूब प्रशंसा करता हुआ बोला कि-"यह मेरा परम मित्र है । जिस समय बुरी दशा ने मुझे बे तरह तंग किया था, तब इसी दयालु ने उससे मेरा छूटकारा करवाया था ।" बादशाह के मुंह से इन शब्दों को सुनकर कर्मासाह बीच ही में एकदम बोलकर उसे आगे बोलने से बंध किया और कहा कि, "हे शहेनशाह ! इतना बोझा मुज पर न रक्खें, मैं इसे ऊठाने में समर्थ नहीं हूं । मैं तो केवल आपका एक सेवक मात्र हूं । मैंने कोई ऐसा कार्य नहीं किया है कि, जिससे आप मेरी इतनी तारीफ करें ।" इस तरह परस्पर मैत्रीपूर्ण संभाषण हो चूकने पर बादशाह ने साह को ठहरने के लिए अपने शाही महल का एक सुंदर भाग खोल दिया । उसकी खातिर-तवज्जा के लिये सब प्रकार का उत्तम बन्दोबस्त किया गया । बाद में कर्मासाह देव-गुरु के दर्शन के लिये अच्छे ठाठ-पाट से जिनमंदिर
और जैन उपाश्रय में गया । विधिपूर्वक देव और गुरु का दर्शन-वंदन किया । नाना प्रकार के वस्त्र, आभूषण और मिष्टान्न याचकों को दान में दिये । श्रीसोमधीर गणि नामक विद्वान यति वहां पर बिराजमान थे, जिनके पास कर्मासाह सदैव धर्मोपदेश सुनने और आवश्यकादि धर्मकृत्य करने के लिये जाया करने लगा । ___ इस प्रकार निरन्तर पूजा, प्रभावना और साधर्मिकवात्सल्यादि करता हुआ साह सावधान होकर बादशाह के पास रहने लगा । कुछ दिन बाद श्री विद्यामंडनसूरि और विनयमंडन पाठक को कर्मासाह ने अपने आगमनसूचक तथा बादशाह की मुलाकात वगैरह के वृत्तान्तवाले पत्र लिखे । बादशाह ने साह के पास से पहले चित्तोड में जो कुछ
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