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आधुनिक वृत्तान्त का दुर्भेद्य द्वार खोल दिया । बस, फिर क्या होना था ?-सावन और भादों के मेघों की तरह एक से एक त्रासजनक और विप्लवकारी म्लेच्छों के आक्रमण होने लगे, जिससे भारतीय स्वतंत्रता और सभ्यता का सर्वनाश होने लगा । १४वीं शताब्दी के मध्यमें अत्याचारी अलाउद्दीन का आसुरी अवतार हुआ । उसने आर्यावर्त के आदर्श और अनुपम ऐसे असंख्य देवमंदिरों का, जिनके कारण स्वर्ग के देव भी इस पुण्यभूमि में जन्म लेने की वांछा किये करते थे, नाश करना प्रारंभ किया । जिनकी रमणीयता की बराबरी स्वर्ग के विमान भी नहीं कर सकते, वैसे हजारों मंदिरो को धूल में मिला दिये गये । जिन भव्य
और शांत स्वरूप प्रतिमाओं को एक ही बार प्रशांत मन से देख लेने पर पापीष्ठ आत्मा भी पवित्र हो जाती थी, वैसी असंख्य देवमूर्तियों को, उनके पूजकों के हृदयों के साथ, विदीर्ण कर दिया । हाय ! इस आपत्काल के पहले भारत भूमि जिन भव्य भवनों से सुशोभित थी, उनकी विभूता की हमें आज कल्पना भी होनी कठिन है ! उस असुर के अधम अनुजीवियों ने शत्रुजय तीर्थ को भी अस्पृष्ट और अखण्डित नहीं रहने दिया । तीर्थपति आदिनाथ भगवान की पूज्य प्रतिमा का कण्ठच्छेद कर दिया और महाभाग मंत्री बाहड के उद्धृत मंदिर के कितने ही भागों को खंडित कर डाला । जिनप्रभसूरिने, जो उस समय विद्यमान थे, अपने विविध तीर्थकल्प में, इस दुर्घटना की भीति संवत् १३६९ लिखी है * ।
* ही ग्रहर्तुक्रियास्थान (१३६९) सङ्ख्ये विक्रमवत्सरे ।
जावडिस्थापितं बिम्बं म्लेच्छैर्भग्रं कलेर्वशात् ॥ इसके उत्तरार्द्ध में यह लिखा है कि मुसलमानों ने जिस बिम्ब को भग्न किया, वह जावडशाह वाला था । तो, इससे यह बात जानी जाती है कि बाहड मंत्री ने केवल मंदिर ही नया बनाया था-मूर्ति नहीं । मूर्ति तो वहीं स्थापन की थी, जो जावडसाह ने प्रतिष्ठित की थी।
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