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परिशिष्ट । अनुपूर्ति । शत्रुजय के इस महान् उद्धार के समय अनेक गच्छ के अनेक आचार्य और विद्वान् एकत्र हुए थे । उन सबने मिलकर सोचा कि जिस तरह अन्यान्य स्थलों में मंदिर और उपाश्रयों के मालिक भिन्न भिन्न गच्छवाले बने हुए हैं और उनमें अन्य गच्छवालों को हस्तक्षेप नहीं करने देते हैं, वैसे इस महान् तीर्थ पर भी भविष्य में कोई एक गच्छवाला अपना स्वातंत्र्य न बना रक्खें, इसलिए इस विषय का एक लेख कर लेना चाहिए । यह विचार कर सब गच्छवाले धर्माध्यक्षों ने एक ऐसा लेख बनाया था । इसकी एक प्राचीन पत्र ऊपर प्रतिलिपि की हुई मिली है, जिसका भावानुवाद निम्न प्रकार है । मूल की भाषा तत्समय की गुजराती है । यह पत्र भावनगर के श्रीमान् सेठ प्रेमचन्द रतनजी के पुस्तक संग्रह में है ।
१. श्री तपागच्छनायक श्री श्री श्री हेमसोमसूरि लिखितं । यथाशत्रुजयतीर्थ ऊपर का मूल गढ और मूल का श्री आदिनाथ भगवान का मंदिर समस्त जैनों के लिये हैं और बाकी सब देवकुलिकायें भिन्न भिन्न गच्छवालों की समझनी चाहिए । यह तीर्थ सब जैनों के लिए एक समान है । एक व्यक्ति इस पर अपना अधिकार जमा नहीं सकती । ऐसा होने पर भी यदि कोई अपनी मालिकी साबित करना चाहे तो उसे इस विषय का कोई प्रामाणिक लेख या ग्रंथाक्षर दिखाने चाहिए । वैसा करने पर हम उसकी सत्यता स्वीकार करेंगे । लिखा पंडित लक्ष्मीकल्लोल गणि ने ।
२. तपागच्छीय कुतकपुराशाखानायक श्री विमलहर्षसूरि लिखितंयथा ..... (बाकी सब ऊपर मुताबिक) ..... लिखा भावसुन्दर गणि ने ।
३. श्री कमलकलशसूरिगच्छ के राजकमलसूरि के पट्टधर कल्याणधर्मसूरि लिखितं-यथा शत्रुजय के बारे में जो ऊपर लिखा हुआ
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