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संवाद बनाती है। मूर्ति भक्ति का भाषातीत माध्यम है। उसे अपनी इस सहज प्रक्रिया में किसी शब्द की आवश्यकता नहीं है। उसकी अपनी वर्णमाला है; इसीलिए मिट्टी, पाषाण आदि को आत्मसंस्कृति का प्रतीक माना गया है।
कौन नहीं जानता कि मूर्ति पाषाण आदि में नहीं होती, वह होती है वस्तुतः मूर्तिकार की चेतना में पूर्वस्थित जिसे कलाकार क्रमशः उत्कीर्ण करता है अर्थात् वह काष्ठ आदि के माध्यम से आत्माभिव्यंजन या आत्मप्रतिबिम्बन करता है। पाषाण जड़ है; किन्तु उसमें जो रूपायित या मूर्तित है वह महत्वपूर्ण है। मूर्ति में सम्प्रेषण की अपरिमित ऊर्जा है। यही ऊर्जा या क्षमता साधक को परम भगवत्ता/परमात्मतत्त्व से जोड़ती है अर्थात् साधक इसके माध्यम से मूर्तिमान् तक अपनी पहुँच बनाता है।
शिल्पशास्त्र प्रथमानुयोग का विषय है। विशुद्ध आत्मबोधि से पूर्व हम इसी माध्यम की स्वीकृति पर विवश हैं। आगम क्या है ? आगम माध्यम है सम्यकत्व तक पहुँचने का। आगम केवली के बोधि-दर्पण का प्रतिबिम्ब है, जिसका अनुगमन हम श्रद्धा-भक्ति द्वारा कर सकते हैं। 'आगम' शब्द की व्युत्पत्ति है : आगमयति हिताहितं बोधयति इति आगमः (जो हित-अहित का बोध कराते हैं, वे आगम हैं)। तीर्थंकर की दिव्यवाणी को इसीलिए आगम कहा गया है।
कहा जा सकता है कि अध्यात्म से पुरातत्त्व/मूर्तिशिल्प आदि की प्राचीनता का क्या सम्बन्ध है ? इस विषय में हम कहेंगे कि शिल्पकला आदि के माध्यम से आगम बोधगम्य बनता है और हम बड़ी आसानी से उस कं मार्ग पर पग रखने में समर्थ होते हैं।
जैनधर्म की प्राचीनता निर्विवाद है। प्राचीनता के इस तथ्य को हम दो साधनों से जान सकते हैं: पुरातत्त्व और इतिहास। जैन पुरातत्त्व का प्रथम सिरा कहाँ है, यह तय करना कठिन है; क्योंकि मोहन जोदड़ो की खुदाई में ऐसी कुछ सामग्री मिली है, जिसने जैनधर्म की प्राचीनता को आज से कम-से-कम 5000 वर्ष आगे धकेल दिया है।' सिन्धुघाटी से प्राप्त मुद्राओं के अध्ययन से स्पष्ट हुआ है कि 'कायोत्सर्ग मुद्रा' जैनों की अपनी लाक्षणिकता है। प्राप्त मुद्राओं की तीन विशेषताएँ हैं : कायोत्सर्ग-मुद्रा, ध्यानावस्था और नग्रता (दिगम्बरत्व)।
मोहन जोदड़ो की सीलों पर योगियों की जो कायोत्सर्ग-मुद्रा अंकित हैं उसके साथ वृषभ भी है। वृषभ ऋषभनाथ का चिन्ह (लांछन) है। पद्मचन्द्र कोश में 'ऋषभ' का व्युत्पत्तिक अर्थ दिया है : 'संपूर्ण विद्याओं के पार जाने वाला एक मुनि।' हिन्दू पुराणों में जो वर्णन मिलता है उसमें ऋषभ और भरत दोनों के विपुल उल्लेख हैं। पहले माना जाता रहा है कि दृष्यन्त-पत्र भरत के नाम से ही इस देश का नाम भारत हआ; किन्तु अब यह निर्धान्त हो गया है कि भारत ऋषभ-पुत्र 'भरत' के नाम पर ही 'भारत' कहलाया।' इसका पूर्वनाम अजनाभवर्ष धा। नाभि (अजनाभ) ऋषभ के पिता थे। उन्हीं के नाम पर यह अजनाभवर्ष कहलाया। 'वर्ष' का अर्थ है 'देश'; तदनुसार 'भारतवर्ष का अर्थ हुआ 'भारतदेश' । मोहन-जोदड़ो की संकेतित सील में भरत चक्रवर्ती की मूर्ति भी उकेरी गयी है। इन सारे पुरातथ्यों की वस्तुनिष्ठ समीक्षा की जानी चाहिये।
उक्त सील को जब हम तफसीलवार या विस्तार से देखते हैं तब इसमें हमें सात विषय दिखायी देते हैं : (1) ऋषभदेव नग्न कायोत्सर्गरत योगी। (2) प्रणाम की मुद्रा में नतशीश भरत चक्रवर्ती। (3) त्रिशूल। (4) कल्प-वृक्ष पुष्पावलि। (5) मदु लता। (6) वृषभ (बैल)। (7) पंक्तिबद्ध गणवेशधारी प्रधान अमात्य।
निश्चय ही इस तरह की संरचना का आधार पीछे से चली आती कोई सुदृढ़ सांस्कृतिक परम्परा ही हो सकती है। प्रचलित लोकपरम्परा के अभाव में मात्र जैनागम के अनुसार इस तरह की परिकल्पना संभव नहीं है। ____ इतिहास में ही हम अपने प्राचीन ऋक्थ (धरोहर) को प्रामाणिक रूप में सुरक्षित पाते हैं। इतिहास, ऐतिह्य और आम्नाय समानार्थक शब्द हैं। इतिहास शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार इसका वाच्यार्थ है : इति ह आसीत (निश्चय से ऐसा ही हुआ था तथा परम्परा से ऐसा ही है)। इतिहास असल में दीपक है। जिस तरह एक दीपक से हम वस्तु के यथार्थ रूप को देख पाते हैं, ठीक वैसे ही इतिहास से हमें पुरातथ्यों की निर्धान्त सूचना मिलती है।
परम्परा और इतिहास में किंचित् अन्तर है। इतिहास स्थूल/ठोस तथ्यों पर आधारित होता है; परम्परा लोकमानस में उभरती और आकार ग्रहण करती है। एक पीढ़ी जिन आस्थाओं, स्वीकृतियों और प्रचलनों को आगामी पीढ़ी को सौंपती है, परम्परा उनसे बनती है। परम्पराओं का कोई सन-संवत् नहीं होता। वैसे इस शब्द के नाना अर्थ
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