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प्रदान की है। उसके अर्थतन्त्र की सबसे प्राणवान, बल एवं ऊर्जावान इकाई थी: ग्राम, वह ग्राम जिसे आज अनजाने में पश्चिम के निरर्थक आवेश में तहस-नहस किया जा रहा है। आज हम एक ऐसे खतरनाक क्षण से गुजर रहे हैं, जहां अर्थ और राजनीति के दबाव से हमारे ग्रामतन्त्र का चेहरा निस्तेज हुआ जा रहा है। हम बदलें, किन्तु इस बात का ध्यान रखते हुए कि हमारी मौलिकताएं बरकरार रहें और हमारा ग्राम परतन्त्र न बने। यह सब तभी संभव है जब राजनीति, समाज-व्यवस्था, न्याय-प्रबन्ध, शिक्षा एवं चिकित्सा आदि में तद्नुरूप परिवर्तन लाया जाए और समाविष्ट विकृतियों को दूर किया जाए।
श्रीमती नंदिनी जोशी लिखती हैं कि आज से लगभग दो सदी पूर्व हमारे देश के ग्राम इतने सक्षम थे कि प्रत्येक ग्राम स्वयं पूरे जगत् का प्रतिरूप था। मैंने अपने पिताजी से सुना था कि संयुक्त राष्ट्र संघ में जिन प्रश्नों की चर्चा होती है, उन तमाम प्रश्नों पर हमारे एक छोटे गांव के चबूतरे पर भी चर्चा होती है। मात्र इन प्रश्नों का फलक छोटा है अन्यथा उनका स्वरूप तो एक जैसा ही है। इसका मतलब है कि अहिंसा का अर्थतन्त्र प्रत्येक भारतीय ग्राम को एक ऐसे स्व-क्षम जगत्वर्ती ग्राम के रूप में विकसित देखना चाहता है जो लघु संयुक्त राष्ट्र संघ हो । ऐसे ग्राम पूंजी को ऋण करके ही उभर सकते हैं। जब तक हम विनिमय पद्धति को नहीं लौटाएंगे, जीवन की गुणवत्ता को लौटाना संभव नहीं होगा। जब वस्तुओं का विनिमय होगा, तब उनकी गुणवत्ता के साथ कोई दुर्व्यवहार नहीं कर पाएगा। मूल वस्तु के साथ मूल वस्तु का विनिमय होगा। ऐसे में वे सारे व्यय और विकार स्वयमेव घट या हट जाएंगे जो वस्तु की मौलिकता को अवमिश्रित करते हैं और उसके साथ अन्धी व्यापारिकता को जोड़ते हैं। गांधीजी ने ऐसे ग्रामतन्त्र के अंतर्गत विकसित ग्राम को 'स्वर्ग का बगीचा' कहा है।
हमारा यह मानना है कि भारतीय ग्राम तक विकास की झिरी शहरों से या दुनिया के विकसित देशों से पहुंचेगी, यह गलत है। ऐसा करने या कहने से हमारी नींव कमजोर होगी। सब जानते हैं कि जब तक समाज में समानता और अमन आविर्भूत नहीं होंगे, आतंक और हिंसा बने रहेंगे, तब तक विकास के रुद्ध स्त्रोत खुल नहीं पाएंगे। हम दो कदम आगे बढ़ेंगे और चार कदम पीछे जाएंगे। यह गणित अवनति और विनाश का गणित है, इसे हम उत्थान और विकास का गणित नहीं कह सकते ।
जब तक हम छोटे पैमाने पर बैंकों के जाल से मुक्त होकर उत्पादन की प्रक्रिया में नहीं आएंगे, यह असंभव ही होगा कि हम मनुष्य के मध्यवर्ती फासलों को घटा पाएं। जब तक लाभ की जगह समाज जनहित के लिए उत्पादन की शुरुआत नहीं होगी, नयी समाजरचना का शिलान्यास संभव नहीं होगा ।
यह मानकर चलना कि अर्थतन्त्र के बीज विकसित देशों से आएंगे और उनकी स्वस्थ फसलें भारतीय ग्रामों में पनपेंगी, बुनियादी तौर पर ही ग़लत है। हमारे गांवों में विकास की अनगिनत उर्वर संभावनाएं हैं, हम असल में उनका कद छोटा करके उनके बारे में सोचने लगे हैं और उस 'अनलिखे ज्ञान' को भूल रहे हैं, जो मैदान के जल को सिंचाई के लिए बगैर किसी यन्त्र की मदद के पहाड़ों पर चढ़ा ले जाता रहा है। मध्यप्रदेश के निमाड़ अंचल में इस तरह की सिंचाई व्यवस्था को आज भी प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।
आज का उद्योगवर्ती अर्थतन्त्र प्रकृति को धनोपार्जन का साधन मान कर चलता है, उसके लिए पेड़-पौधे, नदी- झरने, पर्वत-पहाड़, वराह- हाथी, मछली- मुर्गा, केंचुए - खरगोश सब धनोपार्जन के साधन हैं, इसीलिए वह इन सबका क्रूरतम दोहन करता है और उनके प्रति जो भी क्रूरतापूर्ण और असम्मानजनक संभव है, उसे करने से नहीं चूकता। यही कारण है कि आज के अर्थतन्त्र ने जीवन के प्रति सम्मान की भावना को नष्ट कर दिया है और वह सिर्फ पूंजी के पीछे पिशाच की भांति पड़ गया है। अहिंसा का अर्थतन्त्र हिंसा को छोटा व्यर्थ करने का अर्थतन्त्र है। वह दुनिया के कोने-कोने में हिंसा और क्रूरता के कद को छोटा करना चाहता है और चाहता है कि सर्वत्र समता की संभावनाएं फलें - फूलें । हमारी विनम्र राय में जब दुनिया का हर गांव स्व-जगत्वर्ती गांव बनेगा तभी विश्व शान्ति की कल्पना साकार होगी अन्यथा वह यावच्चन्द्रदिवाकरौ स्वप्न बनी रहेगी ।
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