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गई। बातचीत के दौरान वह द्रौपदी से पूछ बैठी-"राज्य का अपहरण हो जाने पर भी तुम सभी इतने प्रसन्न कैसे हो ?" द्रौपदी ने इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा- “सुख स्नेहेन न जातु लभ्यं, दुःखेन साध्वी लभति सुखानि ।” __अर्थात् सुख से सुख की प्राप्ति असंभव है। यदि सुख की शोध करनी है तो दुखों का अवगाहन करो। त्याग और तपस्या का ही दूसरा नाम सुख है।
इसी क्रम में द्रौपदी ने आगे बताया कि हम सब. घर और वन में माता कन्ती के आदेशों का सर्वत्र पालन करते हैं। एक दूसरे के कर्तव्य के प्रति कभी प्रमाद नहीं करते। राजसी सुख प्राप्त करके भी जीवन सादा रक्खा । घर का सारा काम मैं स्वयं संभालती थी। धर्मराज युधिष्ठिर के अक्षय कोष व उसका आय-व्यय मैं स्वयं संभालती थी। घर का प्रत्येक कार्य हम सबकी सहमति से होता था।" द्रौपदी का यह कथन पारिवारिक जीवन को सुखी बनाने वाला है। परिवारों में जहां कर्त्तव्य पालन में प्रमाद है वहां कलह है, अशान्ति है।
श्रावक अपने परिवार का नहीं, समाज और राज्य का भी मुख्य व्यक्ति होता है। समग्र परिवार के भरणपोषण की व्यवस्था, बालकों को सुसंस्कारी बनाने की जिम्मेदारी, परिवार में सुख-शान्ति, अनुशासन बनाये रखने का दायित्व उस पर होता है। अतः उसे कुटुम्ब-जनों के साथ ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि सभी व्यक्ति उसके व्यवहार से प्रसन्न रहें और अपनी जिम्मेदारियों का दृढ़तापूर्वक पालन करें।" उपासकदशांग सूत्र में आनन्द श्रावक का वर्णन करते हुए कहा गया है—सेणं अणन्दे गाहावई बहुणं राईसर" जाव सत्थवाहाणं कुटुम्बेसु य गुज्झेस य, रहस्सेसु य निच्छएसु य बहूसु कज्जेसु य कारणे य, मंतसु य व्यवहारेसु य आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिजे सयस्य वियणं कुटुम्बस्स मेढ़ी पमाणं आहरे आलम्बणे चक्खू मेटीभूवए जाव सव्वकज्ज बड़ढ़ाए यावि होत्था।'
अर्थात् वह आनन्द गृहपति अनेक राजा, धनिक यावत् सार्थवाहों को बहुत से कार्यों में, कारणो में, सलाहों में, कुटुम्बों में, गुप्त बातों में, रहस्यों में, निश्चय में, व्यवहार में, परामर्श देने वाला था अर्थात् राज्य-प्रमुख सब लोग आनन्द गृहपति से सब विषयों में सलाह लिया करते थे। वह आनन्द गृहपति अपने कुटुम्ब की मुख्य, प्रमाणभूत आधार, अवलम्बन, चक्षु रूप प्रधानभूत, यावत् सब कार्यों की वृद्धि करने वाला था।
___माता-पिता परिवार के मुखिया होते हैं। सच्चा श्रावक उन्हें देवता समझ कर उनकी सेवा-सुश्रुषा एवं आज्ञा-पालन करता है। महात्मा गांधी जब विदेश जाने लगे तो उनकी माता ने जैन मुनि बेचर स्वामी के पास ले जाकर उन्हें तीन प्रतिज्ञाएं करवाई थीं। वे थीं-शराब नहीं पीना, मांस नहीं खाना और पराई स्त्री से दूर रहना। गांधीजी ने कठिन परिस्थितियों में भी दृढ़तापूर्वक आजन्म इन प्रतिज्ञाओं का पालन किया। माता पिता के प्रति भक्ति एवं श्रद्धा रखना सुयोग्य पुत्र का कर्तव्य है। पर आज के तथाकथित युवा अपने यौवनमद एवं पलियों के बहकावे में आकर जन्मदाता माता-पिता की अवज्ञा करते देखे जाते हैं। वे उन्हें क्लेश पहुंचाते हैं, उनके साथ अभद्र व्यवहार करते हैं। यह सामान्य नैतिक नियमों का उल्लंघन है। आज सर्वत्र जीवन मूल्यों का विघटन हो रहा है। चारों ओर अपराधवृत्ति और अनैतिकता का बाजार गर्म है।
देव-देहरी पर अनास्था के साप फंफकार रहे हैं। अनुशासनहीनता, स्वार्थलोलुपता और भोगवादी प्रवृत्ति की भयंकर बाढ़ आई हुई है। “खाओ पीओ और मौज उड़ाऔ” इस सिद्धान्त ने मनुष्य को हिंसक और क्रूर बना दिया है। इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त बढ़ गई हैं। नीतिपूर्वक कमाये गये धन से हमारा गुजारा ही नहीं चलता। आये दिन समाचार पत्रों में पढ़ते हैं कि अमुक व्यक्ति तस्करी से माल लाते हुए हिरासत में ले लिया गया। अमुक आफिसर रिश्वत लेते हुए पकड़ा गया। लाभ और लोभ की प्रवृत्ति ने हमारे दैनन्दिन खाद्य पदार्थों तक को अशुद्ध बना दिया है। यहां तक कि जीवन-रक्षक औषधिओं में मिलावट करना साधारण बात हो गई है।
आज जीवन के प्रति दृष्टिकोण के विकास की प्रेरणा नहीं मिल पा रही है। आज की शिक्षा चरित्र-गठन और जीवन-निर्माण से कट कर मात्र जीवन-निर्वाह से जुड़ गई है। उसके केन्द्र में चित्त शुद्धि न रहकर येन केन प्रकारेण वित्त की उपलब्धि करना मात्र ध्येय रह गया है। विद्यामन्दिर विध्वंसात्मक शक्तियों के केन्द्र बन गये हैं। शिक्षा
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