Book Title: World Jain Conference 1995 6th Conference
Author(s): Satish Jain
Publisher: Ahimsa International

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Page 218
________________ युद्ध आखिर क्यों लड़े जाते हैं ? आदमी रक्तपात क्यों करता है ? उसमें दानवता- पाश्विकता कैसे-कहां से आ जाती है ? इसका एकमात्र उत्तर है—उसका असहिष्णु होना । एक देश दूसरे देश की प्रगति को, उत्थान को सहन नहीं कर पाता। वह दूसरों की उन्नति को देखकर सिर से पैर तक जल उठता है। यह संकीर्णता, असहिष्णुता, स्वार्थभावना उसे उग्र हिंसक, दानव, राक्षस बना देती है। यदि हम उदारता से दूसरे की उन्नति प्रगति को सराहें, स्वयं भी उन्नति प्रगति के मार्ग पर गामज़न रहें तो युद्ध का, रक्तपात का, हिंसा का नाम न रहे। सहनशक्ति का ह्रास होता जा रहा है, परिणामतः मानवीय मूल्य हमारी घाइयों से फिसलते जा रहे हैं सहनशीलता के सन्दर्भ में नौशेरवां बादशाह का एक रोचक प्रसंग उल्लेखनीय है— नौशेरवां के महल के पास एक बूढ़ी स्त्री की झोंपड़ी थी। वह पशु पालती थी। रास्ते में बांधती भी थी। जाहिर है कुछ गंदगी रहती ही होगी रास्ते में। आते-जाते लोगों में से एक अधिकारी ने राजा को मशवरा दिया कि वह उस बूढ़ी स्त्री की झोंपड़ी उठवाकर कहीं दूसरे स्थान पर रखवा दे। राजा न्याय प्रिय था, रहमदिल भी था । उसकी न्यायप्रियता प्रसिद्ध थी। राजा बुढ़िया के पास गया और झोंपड़ी उठाकर ले जाने की बात कही। बुढ़िया ने आश्चर्यचकित होकर कहा – “बादशाह सलामत ! आपको मेरी झोंपड़ी महल के पास पसंद नहीं आई। मैंने तो कभी आपके महल के प्रति कोई शिकायत नहीं की। मैं तो उसे सहन करती हूं, लेकिन आप अपनी प्रजा की झोंपड़ी अपने महल के पास देखना पसंद नहीं कर सके। राजा तो प्रजावत्सल होता है, उसका रक्षक होता है, वह सदा प्रजा के हित की बात करता है । अपनी झोंपड़ी अन्यत्र ले जाऊंगी तो क्या यह मेरे साथ जुल्म नहीं होगा ? आपकी रहमदिली और न्यायशीलता कहां रहेगी ? मुझ अभागी पर जुल्म कर आप चैन से नहीं रह सकते । " राजा का विवेक जागा । उसे अपनी ग़लती का अहसास हुआ और बुढ़िया से क्षमा-याचना करने लगा। एक यशस्वी प्रतापी राजा का मामूली बुढ़िया के सामने करबद्ध क्षमा माँगना बहुत बड़ी बात है। इसी प्रकार के उच्चादर्शों के कारण नौशेरवां की न्यायप्रियता आज तक स्मरणीय है । ऐसे उच्चादर्श आज कहां विलीन हो गए कहां गई हमारी न्यायशीलता, विवेक बुद्धि ? हम विध्वंस-प्रिय हो गए हैं, अहिसा प्रिय नहीं हैं ? प्रज्ञा-शून्य हो गए हैं। मस्जिद को धराशायी करने में आनंद आता है। बम विस्फोट को हम पसंद करते हैं। यानी किसी की धार्मिक आस्था को चकनाचूर करने में हमें हार्दिक आनन्द आता है। बम विस्फोट कर लोगों को तड़पते - देखना हमें अच्छा लगता है । हम नहीं चाहते किसी 'भारतरत्न' की मूर्ति हमारे महानगर की शोभा बढ़ाये ! यह सहनशक्ति कहां लुप्त होती जा रही है कि "आप भी रहें, हम भी रहें, आप भी जीएं, हम भी जीएं। " महावीर ने जो सिद्धान्त दिया उसे हम क्यों भूलते हैं ? महावीर की जयंती धूमधाम से मनाते हैं, राम की शोभा यात्रा निकालते हैं, 'मीलादुन्नबी' की तकरीब पूर्ण आस्था - अक़ीदत से मनाते हैं। लेकिन जब इन परम पुनीत दिव्य-पुरुषों के रास्ते पर चलने की बात आती है तो हम कन्नी काटते हैं। व्यवहार तद्नुकूल नहीं करते। कैसी विडम्बना है । कैसा विरोधाभास है। कैसी विवेकहीनता है। मनुष्य भी विचित्र प्राणी है। उसे न किसी की उन्नति अच्छी लगती है, न अवनति पसंद आती है। जहां वह दूसरों की कमियों, गलतियों पर नाक-भौं चढ़ाता है, वहां दूसरों के गुण भी उसे सहन नही होते । आचार्य महाप्रज्ञ जी ने उचित ही कहा है-- “ मनुष्य का दृष्टिकोण पोजिटिव कम होता है, नैगेटिव अधिक। उसकी अप्रोच नेगेटिव होने के कारण वह दुखी होता है। इससे असहिष्णुता का भाव जागता है और असहिष्णुता राहु की भांति चांद को निरन्तर ग्रसित करती रहती है । सामाजिक जीवन को स्वस्थ रखने का एक उपाय है— सहना । " ( शक्ति की साधना, पृ. 53 ) सहिष्णुता का क्षेत्र व्यापक है । धार्मिक सहिष्णुता के साथ राजनीतिक सहिष्णुता, सामाजिक सहिष्णुता, आर्थिक सहिष्णुता के महत्व को भी स्वीकार करना चाहिए। समाज में जातीय एवं सामाजिक भेदभाव या असहिष्णुता के अभाव में दंगे-फसाद होते रहते हैं, और भारत इन दंगे-फ़सादों की महा विभीषिका का बार-बार कटु अनुभव करता आ रहा है । साम्प्रदायिक वैमनस्य के कारण अन्य देशों में रक्तपात देखने में आता रहा है और राजनीतिक असहिष्णुता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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