Book Title: World Jain Conference 1995 6th Conference
Author(s): Satish Jain
Publisher: Ahimsa International

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Page 250
________________ को स्मृति पटल पर अवश्य सुरक्षित रखा जा सकता है। व्याख्यान के समय आगमों की विषयवस्तु यथावत् स्मरण रह सके, संभवतः इसी उद्देश्य से आगमों के उपदेष्टा श्रमणवृन्द ने पद्यात्मक नियुक्तियों की रचना की होगी। नियुक्तियों में जिन विषयों की ओर संकेत किया गया है उनको बिना व्याख्या के समझना कठिन है। उनका विस्तार से कथन चूर्णियों, भाष्यों एवं टीकाओं में हुआ है। अतः आगमिक विषयों तथा नियुक्तिगत विषयों को समझने के लिए उनके अध्ययन की भी महती आवश्यकता है। नियुक्ति का प्रयोजन नियुक्तियों के स्वरूप एवं उनकी भाषाशैली के अध्ययन से प्रतीत होता है कि नियुक्ति-रचना का मुख्य प्रयोजन आगमिक विषयों को विधिवत् यथार्थ रूप में कण्ठाग्र करना रहा होगा, ताकि व्याख्यान के समय उन्हें विस्तार से समझाने में सरलता हो सके। यह तो सर्वविदित है कि प्राचीन काल में लिखने की परंपरा नहीं थी। ऋषिगणों द्वारा अपने शिष्यों को मौखिक उपदेश दिया जाता था और शिष्यों द्वारा भी गुरु के उपदेश को सुनकर यथावत् ग्रहण कर लिया जाता था। यही कारण है कि प्राचीन ग्रंथ 'श्रुति' या 'श्रुत' के नाम से जाने जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति की ग्रहणशक्ति और स्मरण-शक्ति समान नहीं होती और न ही किसी व्यक्ति की स्मरणशक्ति सदा एक सी रहती है। देश, काल, परिस्थिति आदि का व्यक्ति की स्मरण-शक्ति पर पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। अतः किसी बात को सुनकर उसे उसी शब्दावली में यथावत् स्थिर रखना कठिन होता है। प्राचीन ऋषि-मनियों द्वारा इस तथ्य को अनभव करते हए प्रारंभ सुरक्षा हेतु यथेष्ट जागरुकता और सावधानीपूर्वक व्यवहार किया गया है। उदाहरणतः वैदिक ऋषियों ने वेदों को स्मरण रखने के लिए वैदिक मंत्रों के उच्चारण की एक ऐसी विशिष्ट पद्धति का आविष्कार किया जिससे वेदों को आद्योपान्त अक्षरशः एवं स्वरशः कण्ठाग्र रखने में सफलता मिल सके। वेदों की इस उच्चारण-पद्धति के कारण ही वेदों का शाब्दिक कलेवर आज भी अक्षुण्ण विद्यमान है जैन-आगम तत्त्ववेत्ता भी इस ग्रंथ से अनभिज्ञ न थे। उन्होंने भी वैदिक मंत्रों की उच्चारण-पद्धति के अनुकूल आगमों के पाठ-उच्चारण की कुछ ऐसी मर्यादाएं, नियम या परंपराएं निर्धारित की, जिनसे उनका शुद्ध स्वरूप अपरिवर्त्य रह सके। आगम-विषयों के उच्चारण की इस विशिष्ट पद्धति को ही संभवतः जैन-परंपरा में नियुक्ति के नाम से जाना जाने लगा, जिसका मूल उद्देश्य आगम-विषयों को कण्ठस्थ करना था। नियुक्ति की व्याख्यापद्धति जैसा कि उपरोक्त कथन से स्पष्ट है कि नियुक्ति जैनागमों पर रचित एक विशिष्ट व्याख्या है। यद्यपि व्याख्या में भाव और विचारों का विस्तार से स्पष्टीकरण किया जाता है तथा कठिन व परिभाषिक शब्दों को सरल विधि से समझाने का प्रयास किया जाता है तथापि व्याख्या करना भी एक कला है, उसकी भी विशिष्ट विधि होती है। शास्त्रों में व्याख्या के छः प्रकार बताए गए हैं-- (1) संहिता, (2) पद, (3) पदार्थ, (4) पदविग्रह, (5) चालना, और (6) प्रत्यवसान।" जैनागमों में व्याख्या-विधि को 'अनुगम' की संज्ञा देते हुए उसके दो भेद किए गए हैं--(1) सूत्रानुगम और (2) निर्युक्त्यनुगम। सूत्रानुगम में सूत्र का विधिपूर्वक उच्चारण किया जाता है जबकि नियुक्त्यनुगम में शब्दों व उनके अर्थ की व्याख्या की जाती है। निर्युक्त्यनुगम भी तीन प्रकार का माना गया है---(1) निक्षेप निर्युक्त्यनुगम (2) उपोद्घात नियुक्त्यनुगम, और (3) सूत्रस्पर्शित (स्पर्शिक) नियुक्त्यनुगम । नियुक्तियों में इन तीनों प्रकार के अनुगमों का आश्रय लेकर विषय की व्याख्या की गई है ताकि उत्तम, मध्यम और अल्प तीनों प्रकार की बद्धि वाले व आगमिक विषयों को समझ सकें और स्मरण रख सकें। अनुयोगद्वार के उक्तवर्गीकरण के आधार पर नियुक्तियों के भी तीन भेद किए गए हैं (1) निक्षेप नियुक्ति इसमें पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या की जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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