Book Title: World Jain Conference 1995 6th Conference
Author(s): Satish Jain
Publisher: Ahimsa International

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Page 252
________________ नियुक्तियों की चर्चा मिलती है जिसमें से दस तो आचार्य भद्रबाहु-कृत हैं और शेष अन्य आचार्यों द्वारा रचित मानी जाती हैं। भद्रबाहु-कृत नियुक्तियां जिन आगमों पर रची गई हैं उनके नाम हैं-1. आवश्यक 2. दशवैकालिक 3. उत्तराध्ययन 4. आचारांग 5. सूत्रकृतांग 6. दशाश्रुतस्कन्ध 7. बृहत्कल्प 8. व्यवहार 9. सूर्यप्रज्ञप्ति और 10. ऋषिभाषित। इनका रचनाक्रम भी वही है जिस क्रम से उनके नाम उल्लिखित हैं। आचार्य भद्रबाहु ने सर्वप्रथम आवश्यक नियुक्ति की रचना की थी और उसमें उन्होंने नियुक्तिरचना का संकल्प करते हुए इसी क्रम से नियुक्ति-ग्रंथों की नामावली दी है।" नियुक्तियों में उल्लिखित अन्य नियुक्तियों के नामों से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। उपर्युक्त नियुक्तियों के अतिरिक्त औघनियुक्ति, संसक्तनियुक्ति, पंचकल्पनियुक्ति तथा निशीथनियुक्ति का भी शास्त्रों में उल्लेख हुआ है। उपर्युक्त सभी नियुक्तियां वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं। यथा-सूर्यप्रज्ञप्ति और ऋषिभाषित की नियुक्तियां अनुलपब्ध हैं। गोविन्दाचार्य कृत एक अन्य नियुक्ति का भी उल्लेख मिलता है जो वर्तमान में अनुलपब्ध है। ऐसा माना जाता है कि औधनियुक्ति, पिंडनियुक्ति, पंचकल्पनियुक्ति और निशीथनियुक्ति क्रमशः आवश्यकनियुक्ति, दशवैकालिकनियुक्ति, बृहत्कल्पनियुक्ति और आचारांगनियुक्ति की पूरक हैं। 2 अधिकांश विद्वान पिण्डनियुक्ति और औघनियुक्ति की गणना मूलमंत्रों में और कुछ विद्वान छेदसूत्रों में करते हैं। कुछ ऐसे विद्वान भी हैं जो इन्हें व्याख्या-ग्रंथ मानते हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि पिंडनियुक्ति दशवैकालिकनियुक्ति का अंश है और औघनियुक्ति आवश्यकनियुक्ति का। चूंकि उनका कलेवर विस्तृत था और उनके प्रतिपाद्य विषयों में समानता थी इसलिए उन्हें पृथक् ग्रंथ का रूप दे दिया गया। संसक्तनियुक्ति बहुत बाद की, किसी अन्य आचार्य द्वारा रचित रचना है। 77 नियुक्तिकार भद्रबाहु आगमों पर नियुक्ति लिखने वाले आचार्यों में भद्रबाहु का नाम सर्वप्रमुख है। जैन परंपरा में भद्रबाहु नाम के अनेक आचार्यों का उल्लेख मिलता है। दिगंबर-श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार प्रथम भद्रबाहु श्रतु-केवली थे। यद्यपि दोनों परंपराओं में श्रुत-केवली को प्रथम भद्रबाहु माना गया है तथापि श्रुत-केवली भद्रबाहु के स्वर्गवास का समय दोनों परंपराओं में भिन्न-भिन्न है। दिगंबर मान्यता के अनुसार श्रुतकेवली भद्रबाहु के स्वर्गवास का समय वीर-निर्वाण सम्बत् 1624 तथा श्वेताम्बर-मान्यता के अनुसार वीर-निर्वाण सम्वत् 170" माना जाता है। यही नहीं, श्वेताम्बर-मान्यता के अनुसार चतुर्दश पूर्वधारी श्रुत-केवली आचार्य भद्रबाहु योगसाधना के लिए नेपाल गए थे, जबकि दिगंबर-परंपरा का मानना है कि यही भद्रबाहु दक्षिण में योग-साधना के लिए गए थे।" एक ही व्यक्ति दो भिन्न दिशाओं में कैसे जा सकता है ? इससे यह अनुमानित होता है कि दोनों भद्रबाहु भिन्न-भिन्न व्यक्ति थे। श्वेताम्बर-मान्यता के अनुसार प्रथम भद्रबाहु ने ही छेदसूत्रों की रचना की थी। दिगंबर-मान्यता के अनुसार द्वितीय भद्रबाहु आचारांग के धारक यशोबाहु थे, जिनका समय वीर-निर्वाण संवत् 565 तथा 683 के मध्य माना गया है।" __उपर्युक्त भद्रबाहु नाम के दो आचार्यों के अतिरिक्त दिगंबर-परंपरा में तृतीय भद्रबाहु का भी उल्लेख मिलता है जो वीर निर्वाण संवत् 683 में एकादशांग का विच्छेद होने के अनंतर हुए थे। दिगंबर-मान्यता में इन्हें निमित्त-शास्त्र का महान् वेत्ता माना गया है। 80 श्वेताम्बर-परंपरा में द्वितीय भद्रबाहु वे थे जिन्होंने दश-नियुक्तियों की रचना की और जो उपसर्गहर स्तोत्र के रचयिता थे। ये निमित्त-शास्त्र के महान् वेत्ता भी थे। इनका समय विक्रम की छठी शताब्दी माना गया है। यह भी जन-श्रुति है कि ये प्रसिद्ध ज्योतिर्विद वराहमिहिर के सहोदर थे। ___ जैन संप्रदाय की सामान्य धारणा यह है कि छेदसूत्रकार और नियुक्तिकार दोनों भद्रबाहु एक ही हैं जो श्रुत-केवली (अंतिम चतुर्दशपूर्वधर) भद्रबाहु के नाम से जाने जाते हैं। 2 मुनि पुण्यविजय जी के अनुसार विद्वानों की यह धारणा गलत है क्योंकि वर्तमान में जो नियुक्तियां उपलब्ध हैं वे द्वितीय भद्रबाहु की तो हो सकती हैं परंतु श्रुत-केवली भद्रबाहु की नहीं। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि श्रुत-केवली भद्रबाहु ने नियुक्तियों की रचना नहीं की अथवा द्वितीय भद्रबाहु से पूर्व नियुक्तियों की रचना हुई ही नहीं। नियुक्ति के रूप में आगम-व्याख्या की पद्धति बहुत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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