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के कारण अनेक देशों में परस्पर युद्धों का रक्तरंजित रूप 20वीं शताब्दी का मानव भली-भांति अनुभव कर चुका है। करोड़ों लोगों की जाने गई हैं इन युद्धों में। क्या 20वीं शताब्दी के ये रक्तरंजित उपहार हम आगामी 21वीं शताब्दी को देना चाहेंगे ? - क्या अपनी भावी पीढ़ी को इसी प्रकार की पाश्विकता की धधकती भट्टी में झोंकना चाहेंगे ? यूनेस्को के महानिदेशक डॉ. फेटिरिको मेयर ने अच्छा सुझाव दिया है कि सहिष्णुता को शिक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए और संसार में सभी स्कूलों में 'सहिष्णुता दिवस' मनाया जाना जाहिए। असहिष्णुता की भावना को समाप्त करने के लिए पाठ्यपुस्तकों का पुनर्लेखन आवश्यक है। 1 मई 1995 को दिल्ली में प्रधानमंत्री श्री पी.वी. नरसिंह राव ने 'सहिष्णुता' पर एशिया प्रशांत क्षेत्रीय बैठक
ए कहा-"निर्धनता. अन्याय, निरक्षरता और असहिष्णता को दूर करना चाहिए ताकि लोग शांति और सद्भाव के वातावरण में रह सकें। भारत के इतिहास से कई सबक़ हमें मिलते हैं, इनमें एक यह है कि हमारे यहां राजा-महाराजाओं की अपेक्षा साधु-सन्तों ने सार्वजनिक जीवन को अधिक गहराई से प्रभावित किया। उत्तर भारत के संतों ने सहिष्णुता के बारे में जो संदेश दिया, ठीक वही बात दक्षिण भारत के तमाम संतों ने कही और उसमें यह वैचारिक साम्य ही भारतीय अस्मिता को समृद्ध बनाता है। महात्मा गांधी ने वर्तमान युग में सहिष्णुता के इन्हीं उदात्त सिद्धान्तों को सामाजिक जीवन में उतारा।" महावीर स्वामी ने ढाई हजार वर्ष पूर्व सहिष्णुता का उद्घोष इस प्रकार किया था—'परस्परोपग्रहो जीवानाम् ।
यही सह-अस्तित्व है। भारतीयता का मूल ही सहिष्णुता या सह-अस्तिव है। यह सह-अस्तित्व या सहिष्णुता हमारी धर्मनिरपेक्षता या सर्वधर्मसद्भाव का मूल मंत्र है। हमारे समाज में, संस्कृति में विभिन्न नीतिगत और धार्मिक व्यवस्थाएं कायम हैं और सभी का सम्मान करके हम अपनी अस्मिता को जीवित रख सकते हैं और जीवित रखते भी आए हैं, वरना कौन नहीं जानता कि मिस्र, यूनान, बेबीलोन सबकी संस्कृतियां नष्ट हो गई लेकिन हमारी संस्कृति-सरिता अविरल प्रवाहमान है, निर्बाध रूप से गतिशील है
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी । सदियों रहा दुश्मन दौरे-ज़मां हमारा । (डा. इक़बाल)
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