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मूल सिद्धांत है। इन्द्रियसंयम में ब्रह्मचर्य, अणुव्रत और परिग्रहपरिमाण सम्मिलित हैं। ब्रह्मचर्य के पालन से जनसंख्या कम होने से परिग्रह की आवश्यकताएं कम होंगी, व्यक्ति संसाधनों में मूर्छित न होने से उनका समाज में उचित विभाजन करेगा, जिससे भाईचारा बढ़ेगा। प्राणी मितव्ययी बनेगा तथा संयम के कारण अपव्यय नहीं करेगा, मात्र वास्तविक आवश्यकताओं को पूरा करेगा, परिग्रहानन्द/हिंसानन्द जन्य सनक/शौक के लिए प्राकृतिक संसाधनों को नहीं बिगाड़ेगा। इन्द्रियसंयम और प्राणीसंयम पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वनस्पतिकाय, और त्रसकाय के जीवों की हिंसा से बचना है। जितना पर्यावरणीय प्रदूषण और विनाश है, वह इन छ: काय के जीवों की हिंसा से ही उत्पन्न हो रहा है। प्राणी-संयम का आधार इन्द्रिय-संयम है। जब तक मनुष्य का अपनी इन्द्रियों पर अनुशासन नहीं होगा वह बिना आवश्यकता हिंसा करता रहेगा तथा आवश्यकताएं बढ़ाता रहेगा। इन्द्रिय-संयम के लिए आवश्यक है कि वह हिंसा तथा परिग्रह में आनन्द मानना छोड़े अर्थात् रौद्रध्यान छोड़े। जनसंख्या-नियन्त्रण
इन्द्रिय-संयम के अभाव में जनसंख्या में अपार वृद्धि हो रही है जिससे खनिज, कोयला, पेट्रोलियम आदि प्राकृतिक संसाधन, जो व्यय होने के पश्चात् दुबारा उत्पन्न नहीं होते, समाप्त होते जा रहे हैं; जंगल काटे जा रहे हैं; जिससे नदियों में बाढ़ आ रही है और वर्षा की कमी हो रही है। बढ़ती जनसंख्या के लिए अधिक भोजन पैदा करने के लिए रासायनिक खाद, कीटाणुनाशकों का प्रयोग हो रहा है जो अंतत मनुष्य के रक्त में पहुंच रहे हैं। फिर भी पर्याप्त संतुलित भोजन का अभाव होने से कुपोषण, अपोषण की समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। जनसंख्या वृद्धि से मुक्ति पाने का सहज उपाय है इन्द्रिय-संयम या ब्रह्मचर्य। पर्यावरण में भोजन की कमी को संतुलित करने के लिए जैनधर्म में समय-समय पर उपवास तथा रस-परित्याग का भी विधान है। ध्वनिप्रदूषण की रोकथाम
इन्द्रिय-संयम के अभाव में ही ध्वनि-प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। व्यक्ति लाउड स्पीकर या भोंपू बजाने से पहले यह नहीं सोचता कि उसका पर्यावरण के अन्य जन्तु और पौधों तथा स्वयं पर भी क्या प्रभाव पड़ेगा। तीव्रध्वनि से बहरापन, बेचैनी, हृदयरोग आदि रोगों के प्रसार में वृद्धि हो रही है। जैनधर्म में तो व्यर्थ बोलने को भी मना किया गया है और धर्म-स्थानों पर रात में घंटा बजाने तक को मना किया है, जिससे छोटे-छोटे पशु-पक्षियों अथवा रोगी मनुष्यों को कष्ट न हो। मृदा-संरक्षण और मृदा-प्रदूषण की रोकथाम
प्राकृतिक सम्पदा हमारा पर्यावरण है और उसका संरक्षण आवश्यक है। भूमि की उर्वरा शक्ति का इस प्रकार प्रयोग किया जाना चाहिए कि उसकी यह शक्ति वापिस लौटती रहे। रासायनिक उर्वरक डालते रहने से मृदा के जैविक तत्त्व नष्ट होने लगते हैं और उनकी प्रजनन शक्ति नष्ट हो जाती है। ज्यादा खाद मिट्टी को अम्लीय बना देती है जिससे उर्वराशक्ति समाप्त हो जाती है। उसके पारिस्थितिक तन्त्र का संतुलन बिगड़ जाता है। जैनधर्म में यही कहा है कि पृथ्वीकाय और उसके आश्रित जीवों की रसायन या विषप्रयोग से हिंसा न करें। कीटनाशकों के प्रयोग के स्थान पर आप पहले ही ऐसे निरोधात्मक उपाय अपनाएं कि हानिकारक कीट उत्पन्न ही न हो पायें। इसके लिए सावधानी और परिश्रम की आवश्यकता है। घर का कूड़ा-करकट खेतों में ऐसे ही न फेंका जाये। उसमें सम्मूर्छिम जीवों के जन्म योग्य पुद्गल होते हैं। कूड़ा-करकट जीव रहित प्राशुक स्थानों पर धूप में फैला दिया जाए ताकि कीटों मच्छरों आदि का जन्म से पूर्व ही निरोध हो जाये। जैनधर्म विरोध में नहीं निरोध में विश्वास करता है। तत्वार्थसूत्र में कहा है-आस्रव निरोधः संवरः। सजीव भूमि में मलमूत्र-त्याग का भी जैन आचार में निषेध है। मल-मूत्र जीव रहित भूमि पर करें,जहां सूर्य का प्रकाश पहुंचता हो, ताकि मल-मूत्र शीघ्रातिशीघ्र सूर्य के प्रकाश से प्राशुक हो जाएँ। इस प्रक्रिया में थोड़ी हिंसा अवश्य है किंतु मल-मूत्र के सूक्ष्म जीवों की अनन्त वृद्धि के फलस्वरूप
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