Book Title: World Jain Conference 1995 6th Conference
Author(s): Satish Jain
Publisher: Ahimsa International

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Page 229
________________ पर्यावरण की प्राकृतिक व्यवस्था विज्ञान के अनुसार सजीवों का जीवन एक ही स्तर में नहीं होता है बल्कि वह कई स्तरों में व्यवस्थित होता है। जीवन की व्यवस्था के स्तर को मुख्यतः दो भागों में बांट सकते हैं-निम्न-स्तरीय व्यवस्था और उच्चस्तरीय व्यवस्था। निम्नस्तरीय व्यवस्था में सभी सजीव एक या एक से अधिक छोटी-छोटी संरचनाओं से बने होते हैं, जिन्हें कोशिका कहते हैं। कोशिका सजीव की संरचनात्मक तथा क्रियात्मक इकाई है। यह सजीवों की कोशिकीय तथा जैव-व्यवस्था का प्रथम स्तर है। नई कोशिका पुरानी कोशिकाओं से बनती है। यह किसी सीमा तक स्वतंत्र जीव की भांति कार्य करती है। जैन सिद्धांत के अनुसार एक कोशिका को निगोद शरीर कह सकते हैं। विशेष कार्य करने वाले कोशिका समूह को ऊतक कहते हैं। ऊतक मिलकर अंग और अंग मिलकर अंग-तन्त्र का निर्माण करते हैं। विभिन्न अंग-तन्त्र जैसे श्वसनतन्त्र, पाचन-तन्त्र आदि मिलकर एक सजीव शरीर का निर्माण करते हैं। उच्चस्तरीय व्यवस्था में रचना और व्यवहार में मिलते-जुलते जीवों को समष्टि कहते हैं। विभिन्न प्रकार की समष्टियां समुदाय का निर्माण करती हैं। जीवों का संबंध बाह्य अजैव पर्यावरण से भी होता है। सभी जीव परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते रहते , साथ ही अपने आस-पास के पर्यावरण से भी प्रभावित होते रहते हैं। पौधे, जन्तु तथा प्राकृतिक परिस्थितियां मिलकर पारितन्त्र का निर्माण करती हैं। पृथ्वी के सभी पारितन्त्र सामूहिक रूप से मिलकर जीवमण्डल (बायोस्फीयर) का निर्माण करते हैं। जीवमंडल जैव-व्यवस्था का अन्तिम तथा उच्चतम स्तर है। पर्यावरण व्यवस्था के अनुसार निम्न स्तर पर अनन्तानन्त निगोद शरीरों का समूह पुलवि, पुलवि का समूह आवास, आवासों का समूह अण्डर और अण्डर समूह स्कन्ध है। स्कन्ध को ही वनस्पति या जन्तु का शरीर कहते हैं। समय पाकर पकने पर पौधों के शरीर का कुछ भाग निगोद शरीर रहित हो जाता है। स्कन्धों से क्रमशः बड़े-बड़े समुदाय रूप बना अन्ततः तीन लोक में व्याप्त एक पुद्गल महास्कन्ध है जिसमें सजीव शरीर और पर्यावरण समाहित हैं। जैन-पर्यावरण-व्यवस्था और आधुनिक विज्ञान-सम्मत व्यवस्था एक दूसरे के समानान्तर हैं। ___ पारितन्त्र मात्र जैव समुदाय और अजैव पर्यावरण का ही नाम नहीं है किन्तु उनमें होने वाले पदार्थों का विनिमय चक्र भी है। जैनागम में जिसे पुद्गल परावर्तन कहा गया है उसे हम यहां कार्बन चक्र, नाइट्रोजन चक्र, आक्सीजन चक्र, कैल्शियम चक्र, फास्फोरस चक्र एवं अन्य आयनों के चक्र के रूप में देख सकते हैं। भू-जीविय रासायनिक चक्र कहलाते हैं। कार्बन चक्र में कार्बन घूम फिरकर बार-बार एक-सी अवस्था को प्राप्त होता है। इसी प्रकार अन्य तत्वों के परमाणु भी। पारितन्त्र में इस चक्र की स्वचालित व्यवस्था पारितन्त्र के चार अनिवार्य घटकों से होती है-1. उत्पादक 2. उपभोक्ता 3. अपघटक, और 4. अजैव पर्यावरण। हरे पौधे कार्बनडाईआक्साइड और जल से सूर्य के प्रकाश में ऊर्जा ग्रहण कर अपना भोजन स्वयं बना लेते हैं किन्तु जन्तु ऐसा नहीं कर सकते। अतः वे भोजन के लिए पौधों पर निर्भर होने से परपोषी हैं। उत्पादक और उपभोक्ता जीवों के मरने पर निम्न कोटि के जीवधारी जैसे जीवाणु कवक आदि उनके मृत शरीर को अपघटित कर अपना भोजन प्राप्त करते हैं। ये मृत जीवों के कार्बनिक पदार्थों को गला-सड़ा कर पुनः सरल अकार्बनिक पदार्थों में बदल देते हैं जो अजैव पर्यावरण में मिल जाते हैं, और जहां से पुनः पौधे इन्हें अपना भोजन बनाने के लिए ग्रहण करते हैं। इस प्रकार यह चक्र चलता रहता है। जैनागम में भी पारितन्त्र व्यवस्था उपरोक्त प्रकार से ही है। अपघटक सक्ष्म जीवों की व्याख्या जैन जगत में बड़ी विशिष्ट है। वहां इन्हें सम्मूर्छिम जन्म वाले जीव कहा है। सूक्ष्म जीव नग्न आंखों से दिखाई नहीं देते हैं, इन्हें सूक्ष्मदर्शी की सहायता से ही देखा जा सकता है। सूक्ष्म जीव बहुत छोटे जीव हैं जो स्वतंत्र रूप से जीवित रहते हैं और जनन करते हैं। सूक्ष्म जीव पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय में पाये जाते हैं। ये सर्वव्यापी हैं। ये आकृति में बहुत ही छोटे होते हैं। इनकी जनन दर भी बहुत अधिक होती है। सूक्ष्मजीव स्वपोषी भी हो सकते हैं परन्तु अधिकतर परपोषी होते हैं। सम्मूर्छिम जन्म वाले जीव चावल में दो इन्द्रिय तक जन्म लेते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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