Book Title: World Jain Conference 1995 6th Conference
Author(s): Satish Jain
Publisher: Ahimsa International

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Page 235
________________ पशुजगत Jain Education International की सुरक्षा के जैन सन्दर्भ डॉ० रमेश चन्द जैन जैन साहित्य में पशुजगत की सुरक्षा के अनेक सन्दर्भ विद्यमान हैं। इसका एक अति प्राचीन सन्दर्भ जो कि भगवान् मुनि सुव्रतनाथ के तीर्थ का है, प्राप्त होता है। इसे नारद और पर्वत के संवाद के रूप में जाना जाता है । नारद और पर्वत एक ही गुरु 'क्षीरकदम्बक' के शिष्य थे। क्षीरकदम्बक पर्वत के पिता भी थे। एक बार नारद अपने बहुत से शिष्यों के साथ गुरुपुत्र पर्वत से मिलने आये। बातचीत के मध्य नारद और पर्वत के बीच 'अजैयष्टिव्यं' पद के अर्थ के विषय में विवाद हो गया। पर्वत का कहना था कि इस पद का अर्थ है बकरे से यज्ञ करना चाहिए, क्योंकि अज शब्द का अर्थ बकरा है। नारद का कहना था कि गुरु जी के अनुसार जिसमें अंकुर उत्पन्न होने की शक्ति नहीं है, ऐसा तीन वर्ष का पुराना धान्य अज कहलाता है, यही सनातन अर्थ है। जब दोनों आपस में निर्णय नहीं कर सके तो पर्वत ने यह प्रतिज्ञा की कि यदि इस विषय में मैं पराजित होऊं तो अपनी जीभ कटा लूं । पर्वत की मां यथार्थ अर्थ जानती थी, किन्तु जब वे दोनों निर्णय के लिए राजसभा में गए तो उसने पहले से ही पुत्रमोह के कारण राजा वसु को पर्वत के पक्ष में निर्णय देने हेतु राजी कर लिया। दोनों राजसभा में गए। पूर्वपक्ष रखते हुए पर्वत ने कहा कि स्वर्ग के इच्छुक मनुष्यों को अजों द्वारा यज्ञ की विधि करनी चाहिए, यह एक श्रुति है, इसमें जो अज शब्द है, उसका अर्थ-चारों पावों वाला जन्तु विशेष - बकरा है। नारद का कहना था कि लोक में गो आदि ऐसे बहुत से शब्द हैं, जिनका श्रवण- समान उच्चारण होता है, परन्तु विषयभेद से उनका प्रयोग अलग-अलग होता है। जैसे 'गो' शब्द पशु, किरण, मृग, इन्द्रिय, दिशा, वज्र, घोड़ा, वचन और पृथिवी अर्थ में प्रसिद्ध है, परन्तु सब अर्थों में उसका पृथक् ही प्रयोग होता है । 'चित्रगु' इस अर्थ में गो का अर्थ है किरण कोई नही करता और 'अशीतगु' इस शब्द गो शब्द का अर्थ सास्नादिमान् पशु कोई नहीं मानता, किन्तु प्रकरण के अनुसार चित्रगु शब्द में गो का अर्थ गाय और अशीतगु शब्द में किरण ही माना जाता है। इसलिए 'अजैयष्टिव्यं' इस वेदवाक्य में अज शब्द का अर्थ रूदितः 'न जायन्ते इति अजाः (जो उत्पन्न न हो सकें, वे अज हैं), इस व्युत्पत्ति से क्रिया सम्मत तीन वर्षका धान्य लिया गया है। साक्षात् पशु की तो बात दूर रही, पशु रूप से कल्पित चूने के पिण्ड से भी पूजा नहीं करनी चाहिए; क्योंकि अशुभ संकल्प से पाप होता है और शुभ संकल्प से पुण्य होता है। जो नाम, स्थापना द्रव्य और भाव निक्षेप के भेद से चार प्रकार का पशु कहा गया है, उसकी हिंसा कभी मन से भी नहीं करनी चाहिए । यह जो कहा गया कि मन्त्र द्वारा होने वाली मृत्यु से दुख नही होता है, वह मिथ्या है, क्योंकि यदि दुख नहीं होता है तो जिस प्रकार पहले स्वस्थ अवस्था में मृत्यु नहीं हुई थी, उसी प्रकार अब भी मृत्यु नहीं होनी चाहिए। यदि पैर बांधे बिना और नाक मूंदे बिना अपने आप पशु मर जाये तब तो मन्त्र से मरना सत्य कहा जाय, परन्तु यह असंभव बात है । मन्त्र के प्रभाव से मरने वाले पशु को सुखासिका प्राप्त होती है, यह भी एकांत नहीं है; क्योकि जो पशु मारा जाता है, वह ग्रह से पीड़ित की तरह जोर-जोर से चिल्लाता है, इसलिए उसका दुख स्पष्ट दिखाई देता है। यदि कहा जाय कि आत्मा अत्यंत सूक्ष्म होने से अवध्य है तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जब आत्मा स्थूल शरीर में स्थित होता है, तब स्थूल भी होता है। धर्मयुक्त कार्य ही पशु के लिए सुख प्राप्ति में सहायक हो सकता है, धर्मयुक्त नहीं। जिस प्रकार माता के द्वारा दिये हुए घृत, दुग्ध आदि हितकारी पदार्थ ही बच्चे के लिए सुखप्राप्ति में सहायक होते हैं, विषादिक अपथ्य पदार्थ नहीं, उसी प्रकार पशु को बलात् होम देने मात्र से उसे स्वर्ग की प्राप्ति नहीं हो सकती, किन्तु उसके धर्मयुक्त कार्य से ही हो सकती है। नारद के इतना समझाने पर भी वसु ने पर्वत के पक्ष में ही निर्णय दिया, फलस्वरूप उसका स्फटिकमय आसन पृथ्वी में धंस गया और वह मरकर सातवें नरक गया । पद्मचरित में इसी प्रकरण में कहा गया है कि जो कार्य निर्दोष होता है, उसमें प्रायश्चित का निरूपण करना उचित नहीं है, परन्तु इस याज्ञिक हिंसा में प्रायश्चित कहा गया है, इसलिए वह सदोष है। पशु यज्ञ में यदि पशु For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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