Book Title: World Jain Conference 1995 6th Conference
Author(s): Satish Jain
Publisher: Ahimsa International

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Page 234
________________ अनवीकरणीय पदार्थों का संरक्षण कुछ पदार्थ प्रकृति में ऐसे हैं जिनका उपयोग करने के बाद जीव उन्हें सदैव के लिए समाप्त कर देता है, वे वापिस उसी स्वरूप में प्राप्त नहीं हो सकते। खनिज, कोयला, पैट्रोल, गैस आदि पदार्थ प्रकृति में सीमित मात्रा में विद्यमान हैं। इनका उपयोग यदि लापरवही से इसी प्रकार होता रहा तो स्त्रोत समाप्त होने से ऊर्जा-संकट उत जायेगा। इनका उचित तथा व्यवस्थित सीमित मात्रा में उपयोग होना चाहिए। जैन दर्शन का अपरिग्रह-सिद्धांत और अनर्थदंड विरति-सिद्धांत इन पदार्थों के सम्यक् उपयोग और मितव्यय पर जोर देता है। पशुओं की रक्षा से और निरर्थक आवागमन न करने से पैट्रोल-चालित वाहनों में पैट्रोल की बचत होगी। सूर्य-प्रकाश से बिना किसी प्रकार की हिंसा प्राप्त होती है। अतः सूर्य-प्रकाश की ऊर्जा का प्रयोग बढ़ाया जाना चाहिए। मनुष्य का संरक्षण __ श्वास, जल, भोजन, वस्त्र और आवास मनुष्य की अनिवार्य आवश्यकताएं हैं, यह सब उसे पर्यावरण से प्राप्त होती हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से तो मनुष्य का शरीर भी आत्मा का पर्यावरण है। जैनधर्म ने पर्यावरण के प्रति मानव मात्र का यही कर्तव्य बताया है कि वह मन-वचन-काय और कृत-कारित-अनुमोदना से पर्यावरण के प्रति संयत व्यवहार करे। जीव-अजीव के सम्यक् ज्ञान से पर्यावरण की व्यवस्था को समझे। शरीर की रचना को समझकर शारीरिक आवश्यकताओं का सम्यक् ज्ञान करे जिससे आवश्यकताएं कम होंगी। इन्द्रिय-संयम, अपरिग्रह, अनर्थदंड विरति, प्राणी-संयम और अहिंसा से मनुष्य पर्यावरण की रक्षा करेगा तो उसकी स्वयं की ही रक्षा होगी। वह स्वच्छ हवा में सांस ले सकेगा. रोग के कीटाणओं से रहित जल पी सकेगा, रसायनों के कट स्वाद से रहित स्वादिष्ट अन्न/वनस्पति खा सकेगा, क्रूरता समाप्त होगी, विश्व-बंधुत्व बढ़ेगा और सत्यं शिवं सुन्दरम् का दर्शन होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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