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अनन्तानन्त जीवों के प्रसार से फसल में लगने वाले रोगों से बचने में कीटनाशकों के प्रयोग से होने वाली हिंसा के समक्ष नगण्य है। बूचड़खानों के अपशिष्ट पदार्थ यदि खेतों में पहुंच जाते हैं तो अनेक प्रकार से पौधों को रोगग्रस्त करते हैं। जैनधर्म का स्पष्ट विधान है कि सजीव भूमि पर किसी भी प्रकार के जीवनाशक पदार्थ, चाहे वे औद्योगिक अपशिष्ट हों, कृषि अपशिष्ट हों या मल-मूत्र, न फेंके जायें क्योंकि वे वहां का जीव समुदाय नष्ट करके पारितन्त्र व्यवस्था बिगाड़ देते हैं। पृथ्वी को बिना आवश्यकता के खोदना निषेध है। अधिकतम परिग्रह-आनन्द की दृष्टि से नित नूतन अट्टालिकाओं के निर्माण के लिए खानों से पत्थर निकाल-निकाल कर पर्यावरण का संतुलन बिगाड़ने को जैन दर्शन में अनर्थदण्ड कहा है जिससे विरति होना ही विधेय है। वन-संरक्षण
वन पृथ्वी की बहुमूल्य सम्पदा है। वन ही बादलों को बरसने के लिए प्रेरित करते हैं। वन कटने से सूखा पड़ जाता है। वनों के वृक्ष मिट्टी को अपनी जड़ों से बांधे रखते हैं। वन कटने से भूमि का अपरदन होता है। वन बहते पानी के प्रवाह की तीव्रता को रोकते हैं। वन कटने से बाढ़ का प्रवाह तीव्र हो जाता है। बाढ़ से विद्युत् उत्पादन व पेयजल की समस्या उत्पन्न हो जाती है। वन ज्यादा मात्रा में काटे जा रहे हैं जिससे अनेक प्रकार की औषधियों एवं वनस्पतियों के वृक्ष नाम शेष हो गये हैं। वनों से ही पृथ्वी के जीव-मण्डल में कार्बनडाइआक्साइड की मात्रा सीमित रहती है। वन ही जन्तुओं को प्राण-वायु आक्सीजन प्रदान करते हैं। जैनधर्म में बिना आवश्यकता एक पत्ता तोड़ना भी पाप है। वहां तो भावों के विविध स्तरों को बताने के लिए जो छह लेश्याओं का वर्णन है उसमें भी वृक्षों का दृष्टांत दिया है। शुक्ल लेश्या वाला उत्तम प्रकृति का मनुष्य अपने आप गिरे हुए फलों को मात्र आवश्यकतानुसार उठाता है। पद्मलेश्या वाला एक दो फल तोड़ता है। इसी प्रकार दुष्टतम प्रकृति का कृष्णलेश्या वाला पुरुष उसे कहा है जो पूरे वृक्ष को काट डालता है। वनस्पति भोजन का अनिवार्य अंग है। भोजन के लिए भी वनस्पति के उसी भाग को तोड़ना चाहिए जो निगोद रहित हो चुका हो। निगोद रहित होने का अर्थ है कि वह भाग जो पक चका है और स्वयं ही वृक्ष से अलग होने की तैयारी में है। जंगलों को आग लगाने वाले को तो महान पातकी कहा गया है। वन्य जीवन-संरक्षण
जीवों की अनेक जातियां या तो लुप्त हो चुकी हैं या अनेक जीव अब भी लुप्त होने की प्रक्रिया में हैं। सिंह, बाघ, गेंडा, जंगली गधा, नील गाय, कश्मीरी कस्तूरीमृग, गुलाबी सिर वाली बत्तख, श्वेत वनमुर्गी, सारंग आदि कम हो गए। चीता तो वनों से लुप्त ही हो गया है। इनका संरक्षण आवश्यक है। जैनधर्म के अनुसार पशुओं की खाल, दांत,सींग, कस्तूरी, फर आदि के परिग्रह में आनन्द मानना या पशुओं को दौड़ाकर उनका शिकार करने में आनन्द मानना हिंसानन्द रौद्रध्यान होने से त्याज्य है। मांसाहार हेतु शिकार का तो निषेध ही है, हिंसक जंतुओं का शिकार करने का भी निषेध है। यही नहीं, वन्य जीवों के आश्रयस्थलों को तोड़ने-फोड़ने को भी मना किया गया है। पशुधन-संरक्षण
मनुष्य ने अनेक पशुओं को पालतू बना लिया है जो उसकी सेवा करते हैं, भार ढोते हैं, दूध प्रदान करते हैं। मांसाहार के लिए बूचड़खाने खोलना दूध के स्त्रोतों को समाप्त करना है। अनेक पहाड़ी, ऊबड़-खाबड़ स्थानों पर सामान सिर्फ पशु ही ले जा सकते हैं। एक पशु और उसकी संतान हमेशा भार ढोकर और दूध देकर मनुष्य जाति की सेवा करती रहेगी, उन्हें एक बार में मांसाहार के लिए नष्ट करना अपमे अस्तित्व पर ही कुठाराघात है। बूचड़खाने से निसृत हड्डी, खून, चर्बी आदि सड़ कर पर्यावरण को कितना दुर्गधित, प्रदूषित करते हैं, रोगाणु फैलाते हैं, अवर्णनीय है। जैनधर्म में पशुओं की करुणा का यहां तक उपदेश दिया है कि उन पर अधिक भार न लादें और वध-बंधन न करें, भूखा-प्यासा न रखें। रोगी होने पर चिकित्सा करायें, वृद्ध होने पर आश्रय प्रदान करें। मनुष्य जीने
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