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रहे थे, जो अत्यंत विह्वल थे, पुरुष जिन्हें रोके हुए थे और जो नाना जातियों से युक्त थे। उन्होंने सारथि से पूछा कि ये नाना जाति के पशु यहां किसलिए रोके गए हैं। सारथि ने नम्रीभूत हो हाथ जोड़कर कहा हे विभो ! आपके विवाहोत्सव में जो मांसभोजी राजा आए हैं, उनके लिए नाना प्रकार का मांस तैयार करने के लिए यहां पशुओं का निरोध किया गया है इस प्रकार सारथि के वचन सुनकर ज्योंही भगवान् ने मृग-समूह की ओर देखा, त्यों ही उनका हृदय प्राणीदया से सराबोर हो गया। वे कहने लगे कि वन ही जिनका घर है, वन के तृण और पानी ही जिनका भोजन - पान हैं और जो अत्यंत निरपराध हैं ऐसे दीन मृगों का संसार में मनुष्य वध करते हैं। मनुष्यों की निर्दयता तो देखो। रण के अग्रभाग में जिन्होंने कीर्ति का संचय किया है, ऐसे शूरवीर मनुष्य हाथी, घोड़े और रथ आदि पर सवार हो निर्भयता के साथ मारने के लिए खड़े हुए लोगों पर ही उनके सामने जाकर प्रहार करते हैं, अन्य लोगों पर नहीं। जो पुरुष अत्यधिक क्रोध से युक्त बाघ, सिंह तथा वन्य हाथियों आदि को तो दूर से छोड़ देते हैं और मृग तथा खरगोश आदि क्षुद्र प्राणियों पर प्रहार करते हैं, उन्हें लज्जा क्यों नहीं आती ? जो शूरवीर पैरों में कांटा न चुभ जाए, इस भय से स्वयं तो जूता पहिनते हैं और शिकार के समय कोमल मृगों को सैंकड़ों प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्रों से मारते हैं, यह बड़े आश्चर्य की बात है । मृगसमूह का वध प्रथम तो विषयसुख रूपी फल को देता है, परन्तु जब इसका अनुभाग अपना रस देने लगता है तब उत्तरोत्तर छह काय का विघात सहन करना पड़ता है। यह मनुष्य चाहता तो यह है कि मुझे विशाल राज्य की प्राप्ति हो, पर करता है समस्त प्राणियों का वध, सो यह विरुद्ध बात है, क्योंकि प्राणिवध का फल तो निश्चित ही पापबंध है और उसके फलस्वरूप कटुक फल की ही प्राप्ति होती है, राज्यादिक मधुर फल की नहीं। इस प्रकार विचार कर उन्होंने प्रव्रज्या अंगीकार कर ली ।
यशस्तिलक चम्पू में आचार्य सोमदेव ने कहा है कि पशुओं की बलि करने से देवता संतुष्ट होते हैं, यह कथन असत्य है । कुलदेवता यदि इन पशुओं का भक्षण करते हैं तो निश्चय से इस संसार में व्याघ्र ही स्तुति करने योग्य होवें; क्योंकि व्याघ्रादि हिंसक जन्तु तो पशुओं को मारकर स्वयं भक्षण करते हैं और देवता तो लोगों को प्रेरित कर मरण कराकर बाद खाते हैं, अतः देवता स्तुति योग्य नहीं है । यह पापी मनुष्य निश्चय से देवता का बहाना कर मांसभक्षण में अनुराग राग करता है। यदि इस प्रकार देवता का बहाना न होता तो पापियों को दूसरा कौन सा दुर्गति का मार्ग होता ?
यदि प्राणियों का वध करना निश्चय से धर्म है तो शिकार की पापर्द्धि नाम से प्रसिद्धि क्यों है ? एवं मांस पकाने वाले का 'गृहाद् बहिर्वास' (घर से बाहर निवास करना) तथा मांस का 'रावण शाक' इस प्रकार का दूसरा नाम कथन किस प्रकार है ? तथा अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या व एकादशी आदि पर्वदिनों में मांस का त्याग किस प्रकार से है ? यह पौराणिक श्रुति भी किस प्रकार है कि हे युधिष्ठिर ! जितने पशुओं के रोम पशु शरीरों में वर्तमान हैं, उतने हजारों वर्ष पर्यन्त पशुघातक नरकों में पकते हैं । यदि यज्ञकर्म करने वालों को स्वर्ग प्राप्त होता है तो वह स्वर्ग कसाइयों को विशेष रूप से प्राप्त होना चाहिए। यदि मन्त्रोच्चारण पूर्वक होम किए गए पशुओं को स्वर्ग प्राप्त होता है तो अपने पुत्र आदि कुटम्ब वर्गों से यज्ञ - विधि क्यों नहीं की जाती ?
इन्द्र की सभा में ब्राह्मणों के आचरण के प्रति विवाद करते हुए दो देवता उनके आचार की परीक्षा के लिए एक बकरा बनकर और दूसरा बकरे की जीविका करने वाले के बहाने से पटना नगर के समीपवर्ती वन में अवतीर्ण हुए। उसी अवसर पर कांकायन नाम का उपाध्याय जो कि साढ़े पांच सौ छात्रों का अध्यापन करने वाला था एवं जिसकी मर्यादा चारों वेदों, छह वेदांगों व उपांगों के उपदेश देने में है तथा जो साठवीं बार यज्ञ कराने का इच्छुक था, वहीं आया। उसने महाशूद्र सहित व विशालकाय वाले बैल सरीखे बकरे को देखा। फिर यह विचारकर कि 'आश्चर्य है कि यह बकरी का बच्चा निश्चय से यज्ञ कर्म में अच्छा है, उस बोझा ढोने वाले पुरुष से निम्न प्रकार कहा – अरे मनुष्य ! उस बकरे को यदि बेचना चाहते हो इधर लाओ। बकरा ले जाने वाले मानव ने कहा - भट्ट ! मैं तो इस बकरे को बेचने का इच्छुक हूँ, यदि आप यह मुद्रिका मेरे लिए प्रसन्न होकर अर्पण करें। फिर उपाध्याय ने मुद्रिका देकर उसे वापिस भेजा और शिष्य को आज्ञा दी - कुशिक ! यह बकरी का बच्चा विशेष बलिष्ठ
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