Book Title: World Jain Conference 1995 6th Conference
Author(s): Satish Jain
Publisher: Ahimsa International

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Page 247
________________ जैन - आगमिक व्याख्यासाहित्य में नियुक्ति डॉ० अरुणा आनंद प्राचीन भारतीय वाङ्मय का इतिहास इस बात का साक्षी है कि भारतीय वाङ्मय को समृद्ध बनाने में मौलिक ग्रंथों के साथ-साथ उन पर लिखे गए व्याख्यात्मक ग्रंथों का भी अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान रहा है। मौलिक ग्रंथों पर व्याख्या लिखने की परंपरा बहुत प्राचीन है। भारतीय वाङ्मय का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसमें व्याख्या-ग्रंथों की रचना न हुई हो, क्योंकि व्याख्याओं के अभाव में मौलिक ग्रंथों के पारिभाषिक शब्दों व गंभीर ग्रंथों को जानना सामान्य व्यक्ति के लिए कठिन था । अतः मौलिक ग्रंथों के पारिभाषिक व सूक्ष्म अर्थों को विस्तार से समझाने हेतु उन पर व्याख्यात्मक साहित्य लिखने की परंपरा प्रारंभ हुई । ' भारतीय धर्म व संस्कृति मूलतः तीन धाराओं में विभाजित है— वैदिक, बौद्ध एवं जैन । वेद भारतीय संस्कृति के मूलाधार समझे जाते हैं। वेदों की भाषा और तद्गत अर्थ को समझने के लिए छः वेदांगों (शिक्षा, व्याकरण, छंदशास्त्र, निरुक्त, ज्योतिष तथा कल्प), चार उपांगों (पुराण, न्याय, मीमांसा तथा धर्मशास्त्र), ब्राह्मणग्रंथ, सूत्रग्रंथ तथा सायण आदि आचार्यों द्वारा भाष्यादि की रचना की गई। 2 और बौद्धधर्म व संस्कृति के प्राण पालि – त्रिपिटकों के यथार्थ स्वरूप को समझने के लिए बौद्धसाहित्य में अट्ठकथाओं का निर्माण किया गया। इसी प्रकार जैनधर्म व संस्कृति के मूल आधारस्तंभ आगमों के तलस्पर्शी ज्ञान के लिए उन पर विपुल व्याख्या - साहित्य की रचना हुई जो नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य, टीका, वृत्ति, दीपिका, व्याख्या, विवेचन, विवरण, अवचूरी, पंजिका, वचनिका और टब्बा आदि के रूप में उपलब्ध है। 4 संक्षेप में इस व्याख्या- साहित्य को पांच भागों में बांटा जा सकता है— (1) नियुक्ति, (2) चूर्णि, (3) भाष्य, (4) टीका, और (5) लोकभाषा में रचित व्याख्याएं ।' इन व्याख्याओं की रचना से मूल ग्रंथकार के अभीष्ट अर्थ को जानने में सहायता तो मिलती ही है, साथ ही साहित्य को समृद्ध करने में भी उनका योगदान प्राप्त होता है । प्रस्तुत लेख में जैन आगम - व्याख्या साहित्य में 'निर्युक्ति' का क्या स्थान और विशेषता है, इस विषय पर प्रकाश डाला गया है। जैनागमों की उपरोक्त व्याख्याओं में नियुक्ति जिसे प्राकृत में णित्ती कहते हैं, को प्रथम स्थान प्राप्त है। नियुक्ति के पश्चात् लिखी गई व्याख्याओं में चूर्णि और भाष्य का स्थान महत्वपूर्ण है। इनमें से कौन सी व्याख्या पहले लिखी गई और कौन सी बाद में, इस संबंध में विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वान् चूर्णि को भाष्य से पूर्ववर्ती मानते हैं" तो कुछ भाष्य को चूर्णि से पूर्ववर्ती ।' नियुक्ति और भाष्य प्राकृत भाषा में रचित पद्यबद्ध व्याख्याएँ हैं जबकि चूर्णि संस्कृत - मिश्रित प्राकृत जिसमें प्राकृत का प्राधान्य है, में निबद्ध गद्यात्मक व्याख्या है। गद्यात्मक होने के कारण कुछ पाश्चात्य विद्वान चूर्णियों को नियुक्ति और भाष्य दोनों से पूर्ववर्ती सिद्ध करने का प्रयास करते हैं क्योंकि नियुक्ति और भाष्य दोनों आर्या छंद में रचित । उनका मत है कि आर्या छंद वाली रचनाएँ बाद में लिखी गई हैं । यदि भाषाविज्ञान की दृष्टि से विचार करें तो भी चूर्णियों के पहले रची होने का प्रमाण सिद्ध होता है क्योंकि चूर्णियों की भाषा अपेक्षाकृत अधिक सरल व जीवित भाषा है जबकि नियुक्ति की भाषा सांकेतिक होने के कारण कठिन प्रतीत होती है। भाष्य के पश्चात् टीका- ग्रंथों का स्थान आता है। अधिकांश टीकाएं संस्कृत भाषा में उपलब्ध हैं, परंतु कुछ ऐसी टीकाएँ भी उपलब्ध हैं जो प्राकृत भाषा में निबद्ध हैं अथवा प्राकृत संस्कृत मिश्रित हैं। टीकाओं की यह विशेषता है कि वे मूल-आगमों के साथ-साथ नियुक्तियों भाष्यों और चूर्णियों पर भी लिखी गई हैं। यहाँ यह ध्यातव्य है कि नियुक्तियों में जहाँ पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या की गई है वहाँ भाष्य में समग्र मूल सूत्र के अर्थ को समझाने की चेष्टा की गई है, जबकि चूर्णि में भाष्य के ही अर्थ को लोक-कथाओं के माध्यम से गद्य में लिखा गया है। टीका - साहित्य में आगमों में प्रतिपादित विषयों का दार्शनिक दृष्टि से विवेचन किया गया है। इस प्रकार स्पष्ट है कि जैनागमों पर रचित सभी व्याख्याएँ अपनी-अपनी दृष्टि से विशेष महत्व रखती हैं। परंतु यदि सूक्ष्म दृष्टि से विचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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