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व्रात्य समुदाय और जैन धर्म
___ डॉ० गोकुल प्रसाद जैन प्रागार्य प्राग्वैदिक भारतीय समाज गणतांत्रिक पद्धति पर आधारित था। पंचजनाः अर्थात् पुरु, तुर्वस, अनु और द्रहय ये पांच वे प्रसिद्ध गणराज्य थे. जिनके साथ ब्रह्मयद का भीषण यद्ध हआ और जिसमें उन्हें नष्ट कर दिया गया। प्रागार्य भरत जनों की जीवन-पद्धति श्रमण-सिद्धांतों पर आधारित थी। उनके महान् आराध्य ऋग्वेदोल्लिखित शिश्नदेव थे, जिनकी परंपरा आगे जाकर व्रात्यों के रूप में चली। ऋग्वेद में उन्हें 'राक्षसों' में सम्मिलित किया गया है। ये लोग अहि उपप्रजापति के थे तथा प्रागार्य अनार्य भरत जनों की सैन्य शक्ति का आधार थे। इन्द्र ने शिश्नदेवों का संहार किया और उनकी संपत्ति लूटी।
कुछ विद्वानों ने 'व्रात्य' की व्युत्पत्ति 'वात' शब्द से मानी है जिसका सेलेंड लेवी के अनुसार अर्थ होता है--'संयुक्त वर्ग' । वेदों और ब्राह्मण ग्रंथों में 'बात' का प्रयोग 'संयुक्त वर्ग', सैन्य वर्ग आदि के अर्थ में हुआ है। पाणिनी के अनुसार, 'वात' का अर्थ हिंसोपजीवी संघ होता है तथा ऋग्वैदिक वात वस्तुतः हिंसोपजीवी संघ ही थे। किंतु संघ तो अनार्य गणतांत्रिक संस्था है। वजी संघ महावीर युग का महत्वपूर्ण संघ था। पार्श्वनाथ और महावीर के भी विशिष्ट आध्यात्मिक संघ थे। इसी प्रकार, ऋग्वैदिक काल में शिश्नदेवों के भी अपने श्रम जीवन-पद्धति आध्यात्मिक व्रतविधान पर आधारित थी और इन्हीं श्रमण संघों के सदस्य व्रतनिष्ठा के कारण व्रात्य कहलाते थे।
अन्य विद्वानों के अनुसार 'व्रात्य' शब्द की व्युत्पत्ति केवल 'व्रत' से हुई है। व्रात्य ऐसे संत थे जो आध्यात्मिक व्रतधारी थे और जिनके अपने व्रतनिष्ठ संघ थे। आर्यों के व्रात तो हिंसोपजीवी और भौतिकवादी थे, जबकि श्रमणों के व्रात अहिंसक और आध्यात्मिक थे तथा वैदिक शिश्नदेव परंपरा के थे तथा श्रमण संघों द्वारा पूजित थे।
ऋग्वैदिक ब्रह्मार्यों से केवल मात्र शिश्नदेवों को ही हानि नहीं उठानी पड़ी अपितु उनके उत्तरवर्ती व्रात्यों को भी यजुर्वैदिक ब्रह्मार्यों से हानि उठानी पड़ी। व्रात्यों को पुरुषमेध' का भी शिकार बनाया गया। ऋग्वेद में व्रात्य का उल्लेख नहीं हुआ है। ____ उस युग में भारतीय समाज वस्तुतः दो वर्गों में विभाजित था, जिनमें एक तो हिंसामूलक वर्ग था तथा दूसरा शांतिप्रिय आध्यात्मिक वर्ग था, जिसके नेता भृगु और अंगिरस थे तथा जिसमें ऋग्वैदिक 'राक्षसों के उत्तरवर्ती भारतीय क्षत्रियों का बाहुल्य था। इस वर्ग ने अपने ही पृथक् क्षात्रवेद (ब्रह्मवेद अथवा अथर्ववेद) की रचना की थी, जिसके व्रात्य कांड में व्रात्यजाति पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। ब्राह्मण ग्रंथों में सर्वप्रथम पंचविंश ब्राह्मण में व्रात्यों के विषय में विस्तार से उल्लेख मिलता है। व्रात्यों की अपनी पृथक् जीवनचर्या थी। वे वेदपाठी नहीं थे, कृषि या व्यापार नहीं करते थे तथा अपरिग्रही थे। इन व्रात्यों को व्रात्यस्तोम की प्रक्रिया द्वारा धर्मपरिवर्तन कराकर ब्राह्मण बनाया जाता था।
अर्हत् और एकव्रात्य दोनों एक ही हैं जो कि प्रजापति को सच्चे आत्मज्ञान का उपदेश देते हैं। ये व्रात्य अर्हन्त ही महावीर कालीन निर्ग्रन्थ अर्हन्तों के पूर्ववर्ती हैं और इतिहासमान्य पार्श्वनाथ की संघ व्यवस्था से संबद्ध हैं।
व्रात्यों का अपना स्वतंत्र अस्तित्व था तथा वे भारत के प्रागार्य एवं अनार्य वर्गों के थे। मनु ने व्रात्यों का विस्तृत विवरण दिया है। मनु के अनुसार, ब्राह्मण व्रात्य भृजकंटक, आवन्त्य, वातधान, पुष्पध और शैख थे। क्षत्रिय व्रात्य झल्ल, मल्ल, लिच्छवि, नट, करण, खस और द्रविड़ थे तथा वैश्य व्रात्य सुधन्वन, आचार्य, कारूष, विजन्मन, मैत्र और सात्वत थे। व्रात्यों का इस प्रकार ब्राह्मण व्रात्यों, क्षत्रिय व्रात्यों और वैश्य व्रात्यों में विभाजन धार्मिक विद्वेषवश की गई पश्चात्वर्ती मिथ्या संविरचना है जिसकी आवश्यकता उन्हें पश्चातवर्ती व्रात्यस्तोम अभियान के कारण पड़ी। ये विभाजन केवल मात्र संपरिवर्तित व्रात्यों के संदर्भ में माने जा सकते हैं, न कि मूल व्रात्यों के संदर्भ
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