Book Title: World Jain Conference 1995 6th Conference
Author(s): Satish Jain
Publisher: Ahimsa International

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Page 239
________________ है, अतः इसे यलपूर्वक दुपट्टे से बांधकर मेरे घर पर ले जाओ। मैं भी आपके पीछे ही आऊंगा। जब शिष्य वैसा ही कर रहा था तब वह बकरा पृथ्वी पर वज्र से कीलित हुआ सरीखा बैठ गया। उपाध्याय के साढ़े पांच सौ शिष्य से उठा न सके। 'इस बकरे के मांस द्वारा वेदोक्त विधि से देवता, पिता, ब्राह्मण आदि तृप्ति प्राप्त करें, इस प्रकार के भाषण से उत्कट क्रोध करने वाले व जिसके नेत्र क्रोध रूप विष की उत्पत्ति से लाल हुए हैं एवं जो शीघ्र स्वयं ही वध करने के लिए उठाए हुए पर्वताकार सरीखे पाषाणों से कर्कश हो रहा था, ऐसे उपाध्याय से वह बकरा मनुष्य के समान बोला-भट्ट का यह महान् प्रयास किस कारण से हो रहा है ? उपाध्याय भयभीत व आश्चर्यान्वित होता हुआ निम्न प्रकार बोला—हे महापुरुष ! आपके स्वर्ग गमन के लिए मेरा प्रयास है। उक्त बात को सुनकर बकरे ने मन में विचार किया। 'दूसरे पशु जो कि यज्ञ के बहाने से आपके द्वारा भक्षण किए गए हैं, वे अकिञ्चित्कर शरीरधारी थे, परन्तु विशाल शरीरधारक मेरे विषय में चट्टान की मूर्ति को चबाने के समान तुम्हारे दांत टूटेंगे। मुझे स्वर्ग पहुंचाओ, इस प्रकार मैंने तुमसे प्रार्थना नहीं की। मैं तो बेरी आदि के पत्तों को चबाने से ही निरन्तर सन्तुष्ट हूँ। श्रेष्ठ वर्ण वाले तुम्हें चाण्डाल सदृश होकर मेरा वध करना उचित नहीं है। यदि तुम्हारे द्वारा यज्ञ में मारे हुए प्राणी निश्चय से स्वर्ग जाते हैं तो तुम माता-पिता तथा अपने पुत्रों व बन्धु वर्गों से यज्ञ क्यों नहीं करते ? वीरोदय काव्य में आचार्य ज्ञानसागर ने कहा है कि जो दूसरों को मारता है, वह स्वयं दूसरों के द्वारा मारा जाता है और जो दूसरों की रक्षा करता है, वह सर्व जगत् में पूज्य होता है। आंख में काजल लगाने वाली अंगुलि पहले स्वयं ही काली बनती है। आराधनाकथाप्रबन्ध से ज्ञात होता है कि वैजयन्त अपने हाथी के प्रति अत्यधिक स्नेह करता था। यही कारण है कि वह अपने मुख्य हाथी का बिजली गिरने से मरण देखकर वैराग्य को प्राप्त हो गया। वाराणसी नगरी में राजा पाकशासन ने समस्त देश में मरी का रोग सुनकर कार्तिक शुक्ल अष्टमी प्रभृति आठ दिनों में शान्ति के लिए जीवहिंसा के निषेध की घोषणा करा दी। सात व्यसनों से अभिभूत राजश्रेष्ठी का धर्म नामक पुत्र उद्यान के वन में विचरण करते हुए राजकीय मेंढा मारकर मांस का उपयोग कर हड्डियों को गड्ढे में डालकर मिट्टी के द्वारा गड्ढे को ढककर चला गया। मेढे के दिखाई न देने पर राजा ने सब जगह गुप्तचर भेजे। रात में उद्यानपाल ने अपनी पत्नी से मेढे के मारने के वृतान्त को कहा-उसे सुनकर गुप्तचर ने राजा से कह दिया। राजा ने सेठ के धर्म नाम पुत्र को शूली पर चढ़ा दे, इस प्रकार यमदण्ड नामक कोट्टपाल से कहा। कोट्टपाल ने शूली लगने के स्थान में उसे लाकर यमपाल चाण्डाल को उसे मारने के लिए बुलवाया। यमपाल चाण्डाल ने सर्वोषधि मुनि के समीप धर्म सुनकर चतुर्दशी में जीवों को नहीं मारूंगा, इस प्रकार व्रत ग्रहण किया था। अनन्तर भार्या से (यमपाल चाण्डाल) गांव चला गया है ऐसा तुम कह देना, इस प्रकार कहकर घर के कोने में छिपकर खड़ा हो गया। भार्या के वैसा कहने पर बहुत सोने से युक्त चोर के मारने के अवसर पर वह पापी आज चला गया, इस प्रकार यमदण्ड के वचन कहने पर उस भार्या ने हाथ के इशारे से यमपाल को दिखला दिया। निकाले जाने पर भी बोलने लगा-आज नहीं मारूंगा। राजा के आगे भी ले जाने पर यही कहने लगा कि महाराज आज नहीं मारूंगा, क्योंकि चतुर्दशी के दिन जीवहिंसा न करने का मेरा नियम है।' अनन्तर कुपित होकर राजा ने कहा दोनों को ही सुंसुमार नामक तालाब में फेंक दो। यमदण्ड ने दोनों को ही वहाँ पर फेंक दिया। धर्म को सुंसुमारों ने रख लिया। यमपाल व्रत के महामात्य से जल देवियों के द्वारा सिंहासन पर बैठाकर पूजित किया गया। जैन कथाओं में ऐसे दृष्टांत भी आए हैं कि पशुओं के द्वारा खाए जाने पर भी मुनि (किञ्चित्) भी प्रतीकार न कर परम समाधि को प्राप्त हुए। स्यालिनी के द्वारा तीन रात्रि तक खाया हुआ घोर वेदना से दुःखी अवन्ति सुकुमाल भी ध्यान से आराधना को प्राप्त हुआ। मौदिगल्य नामक पर्वत पर सिद्धार्थ सेठ के पुत्र सुकोशल व्याघ्री के द्वारा खाए जाते हुए उत्तम अर्थ (रत्नत्रय के निर्वाह) को प्राप्त हुए। सिंहचन्द्र मुनि के पिता की मृत्यु सांप के काटने से हुई थी। वे मरने के बाद सल्लकी वन में हाथी हुए। एक दिन वे सिंहचन्द्र को मारने के लिए दौड़ पड़े थे। उन्होंने पिता के जीव हाथी को समझाया -गजराज ! क्या आप भूल गये ? आप अपने पूर्वजन्म में मेरे पिता थे। मैं वही आपका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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