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में।
प्रश्नोपनिषद् ही एकमात्र उपनिषद् है जिसमें व्रात्यों का प्रकथन है। यह अथर्वण उपनिषद् है जिसकी रचना महावीरोत्तर काल में हुई। व्रात्यों के विषय में प्रज्ञान कराने वाले ऋषि पिप्पलाद हैं जो कि ब्रह्मवेद (अथर्ववेद) की पिप्पलाद आवृत्ति के रचयिता हैं जबकि ब्रह्मवेद (अथर्ववेद) की अधिक लोकप्रिय आवृत्ति आचार्य शौनक कृत है। उपनिषद् में व्रात्य को सर्वाधिक पूजनीय पद प्रदान किया गया है। शंकराचार्य ने व्रात्य को ऐसा सिद्ध माना है जिसने कि पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर ली है।
अथर्ववेद (ब्रह्मवेद) के व्रात्य कांड के अनुसार व्रात्य सर्वोच्च श्रद्धास्पद एवं परमपूज्य हैं। ये व्रात्य वेद-विरोधी. यज्ञ-विरोधी, ब्राह्मण-विरोधी एवं जाति-विरोधी जैनधर्मी मूल भारतीय श्रमण थे। पार्श्वनाथ ही एकत्रात्य
पार्श्वनाथ का काल 877 ईसा पूर्व से777 ईसा पूर्व था। वे काशी नरेश अश्वसेन के पुत्र थे। काशी उस काल में सोलह महत्वपूर्ण महावीर-कालीन महाजनपदों में से था, जिनमें प्रजातांत्रिक शासन पद्धति विद्यमान थी। अथर्ववेदोक्त एकव्रात्य ही पार्श्वनाथ थे, जो कि व्रात्य समुदाय के सर्वोच्च मार्गदृष्टा थे। वस्तुतः एकव्रात्य और पार्श्वनाथ में अनेकानेक समानताएं विद्यमान हैं :
पार्श्वनाथ की ही भांति अथर्ववेदोक्त एकव्रात्य का भी व्रात्यों और पुंश्चलियों (मागध श्रावकश्राविकाओं) का चतुर्विध संघ था, अर्थात् उसमें साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका थे। पार्श्वनाथ ने अहिच्छत्र में एवं तत्पश्चात् सुदीर्घ कालिक योगतप किया था। एकव्रात्य ने भी पूरे एक वर्ष तक तप किया था। दोनों ही महान् योगी थे। पार्श्वनाथ समवसरण में उच्चस्थ आसन पर विराजित थे। एकव्रात्य भी योग समापन पर उच्चस्थ
आसंदी पर विराजमान हुए। पार्श्वनाथ ने हिंसामूलक यज्ञ बंद कराए। एकव्रात्य का अग्निहोत्रों से कोई संबंध नहीं था। उनके आगमन पर अग्निहोत्री अग्निहोत्र बंद कर देते थे तथा उसे पुनः आरंभ करने के लिए एकव्रात्य की सहमति आवश्यक थी। इस प्रकार, अग्निहोत्र एकव्रात्य के अधीनस्थ हो गए थे। पार्श्वनाथ और एकव्रात्य दोनों ने अहिंसा आदि के त्रियाम का अनुसरण किया। दोनों ने ही देश में सभी दिशाओं में निरंतर अथक विहार किए। इन्द्र और अन्य देवों ने पार्श्वनाथ के जन्म, दीक्षा आदि के पावन अवसरों पर उनकी उपासना की। प्रजापति इन्द्र और अन्य देव पार्श्वनाथ के काल में विद्यमान थे। अतः उन्हें आद्योपान्त एकव्रात्य की आराधना करते हुए पाया जाता है। पार्श्वनाथ और एकव्रात्य दोनों ने अपने-अपने अनुयायियों को त्रियाम विज्ञान का उपदेश दिया। राजन्यगण पार्श्वनाथ और एकव्रात्य दोनों के अनुयायी थे। पार्श्वनाथ ने गणनायकों को आत्मज्ञान सिखाया। एकव्रात्य ने भी प्रजापति को आत्मज्ञान सिखाया। पार्श्वनाथ और एकव्रात्य दोनों ही आंगिरस थे। दोनों का अपना कोई स्थाई वासस्थान नहीं था। दोनों ही गृहस्थों के घर में रात्रिवास करते थे।
दोनों ही जनतांत्रिक सामाजिक व्यवस्था के पक्षधर थे। (13)
पार्श्वनाथ और एकव्रात्य दोनों ने ही सदैव वेदों और वैदिक-व्यवस्था का विरोध किया तथा इस
प्रकार दोनों ही वेद-विरोधी हैं। (14) दोनों ने ही किन्हीं भी सांसारिक प्रवृत्तियों में भाग नहीं लिया।
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