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शब्द करे या अगले दोनों पैरों से छाती पीटे तो हे अनल ! तुम मुझे इससे होने वाले समस्त दोष से मुक्त करो, इत्यादि रूप से जो दोषों के बहुत से प्रायश्चित कहे गए हैं, उनके विषय में अन्य आगम से विरोध दिखाई देता है। जिस प्रकार व्याध के द्वारा किया हुआ वध दुख का कारण होने से पापबंध का निमित्त है, उसी प्रकार वेदी के बीच में पशु का जो वध होता है, वह भी उसे दुख का कारण होने से पाप-बंध का निमित्त है। ___पद्मचरित के षष्ठसर्ग में वानरद्वीप का वर्णन है, वहां के वनों में वानरों की बहुलता थी। राजा श्रीकण्ठ ने बहुत से वानरों के साथ क्रीडा की, वह उन्हें किष्कु पर्वत पर भी ले गया। उसके वंश के उत्तमोत्तम राजा वानरों से प्रेम करते रहे। वे उन्हें मांगलिक मानते थे। अतः मंगलमय कार्य में उनके चित्र बनाये जाते थे। राजा अमरप्रभ ने रत्न आदि के द्वारा वानरों के चिन्ह बनवाकर मुकुटों के अग्रभाग में, ध्वजाओं में, महलों के शिखरों में, तोरणों के अग्रभाग में तथा छत्र के ऊपर धारण करने का मन्त्रियों को आदेश दिया। अमरप्रभ के वंश के लोग वानरवंशी कहलाए।
पद्मचरित के ग्यारहवें पर्व में कहा गया है कि ब्रह्मा ने पशुओं की सृष्टि यज्ञ के लिए की है, यदि यह सत्य है तो फिर पशुओं से बोझा ढोना आदि काम क्यों लिया जाता है ? इसमें विरोध आता है। विरोध ही नहीं, यह तो चोरी कहलाएगी। यदि प्राणियों का वध स्वर्ग-प्राप्ति का कारण होता तो थोड़े ही दिनों में यह संसार शन्य हो जाता। जो रज और वीर्य से उत्पन्न है, अपवित्र है, कीड़ों का उत्पत्तिस्थान है तथा जिसकी गंध और रूप दोनों ही अत्यंत कुत्सित हैं ऐसे मांस को देव लोग किस प्रकार खाते हैं ? जिस प्रकार सबको दुख अप्रिय लगता है और सुख प्रिय जान पड़ता है, उसी तरह इन पशुओं को भी लगता होगा। जिस प्रकार तीन लोक के समस्त जीवों को हृदय से अपना जीवन अच्छा लगता है, उसी प्रकार समस्त जन्तुओं की व्यवस्था जाननी चाहिए।
महाकवि पुष्पदंत कृत जसहरचरिउ में कहा गया है कि प्राणियों का वध करना आत्मघात ही है, अतः इस प्राणीहिंसा रूपी दुष्कर्म का पुंज क्यों एकत्र किया जाये ? पशुओं की हिंसा करके मनुष्य स्वयं कहां बच सकता है? पापी को उसका पाप खोदकर भी खा जाता है। जो कुछ दूसरों के लिए अप्रिय सोचा जाता है वही क्षणार्ध में अपने घर आ पहुंचता है। दूसरों को मारने वाला दूसरे द्वारा मारा जाकर स्वयं भी मरता है। वह विघ्न रूपी महानदी के पार कैसे उतर सकता है ? इस लोक और परलोक के लिए जीवहिंसा भयकारी है। जीवहिंसा दुर्निरीक्ष्य आयुक्षय होने पर क्या उपकार कर सकती है ? हिंसा शान्तिकारी कैसे हो सकती है ? वे मुर्ख ही हैं जो शिला की नाव से नदी पार करना चाहते हैं। हिसाचारी अधिवक्ता, कर्ता और नेता घोर मायाचारी है, शोककारी है व चाण्डाल है। जो शास्त्र मलिन कार्य का हेतु है, वह तेजधारा से युक्त खड्ग के समान है और जो ढीठ, निकृष्ट, दर्पिष्ट व पापिष्ठ लोग भयाकुल पशुओं को बांधते हैं, रुंधते हैं, मारते और ध्वस्त करते हैं और फिर उनका मांस चखते और खाते हैं तथा सुरा का पान करते हैं और फिर घूमते हैं, नाचते हैं, बाजा बजाते और गाते हैं, वे क्रमशः मलिन नरक में जाते दिखाई देते हैं। वे प्रथम नरक से लेकर सप्तम नरक तक में उत्पन्न होते हैं।
नरक में अपनी आयु पूरी कर वहां से निकलने वाले पापी जीव भील होते हैं, गूंगे व अस्पष्टभाषी, पंगुल, लूले, बहरे, अंधे, मढे होते हैं। वे काने, कानीन (कन्यापुत्र), धनहीन, दीन, दुःखी और बलक्षीण होते हैं। वे निकम्म, गृहहीन, कान्तिहीन व कुख्यात तथा नेत्रहीन, निष्प्राण, चाण्डाल और नीच होते हैं। वे डोम, कलाल व मत्स्यजीवी मछुए तथा बड़ी दाढ़ों से युक्त कोल (सुअर), सिंह और शार्दूल होते हैं। वे विकराल सींगवाले तथा नुकीले तथा नुकीले नखवाले हिंसक पशु अथवा पंखों वाले पक्षी होते हैं। वे लाल आंखों वाले सर्प अथवा मांसभक्षी मच्छ भी होते हैं और वे छेदन, रुंधन, बन्धन, वंचन, तुंचन, खेंचन, कुंचन, लुट्टन, कुट्टन घट्टन व वट्टन, कट्टन नाना प्रकार के पीड़न, हुलन व चालन तथा तलन, दलन, मलन, और मिलन के दुःख तिर्यंच योनियों में, नरकों में, मनुष्यों में और वृक्षों में जन्म लेकर भोगते हैं। वे स्वर्ग कैसे जा सकते हैं ? यदि पशुहिंसा से परमधर्म की उत्पत्ति हो तो बहुगुणी मुनि को छोड़कर परिधि को क्यों न प्रणाम किया जाये ? चाहे मेढ़ी हो और चाहे हरिणी, चाहे गाय हो और चाहे शूकरी, ये सब तृण चरने वाले वनचर भी अपने-अपने पाप से अपनी-अपनी पशुगति को प्राप्त हुए हैं, किन्तु जिनेन्द्र
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