Book Title: World Jain Conference 1995 6th Conference
Author(s): Satish Jain
Publisher: Ahimsa International

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Page 226
________________ (14) (15) (16) (17) (18) (19) 35 49 09 11 05 06 11 07 अन्य 14 (23) विदेशी विश्वविद्यालयों से शोध 52 यदि आर्थिक संसाधन उपलब्ध हों और कुछ विश्वविद्यालयों का दौरा किया जाये तो दो-तीन सौ शोध-प्रबन्धों का और पता लगाया जा सकता है। लगभग 106 विद्यार्थी इस समय भारतीय विश्वविद्यालयों में शोधकार्यों में संगलग्न है । 13 (21) जैन रामकथा साहित्य व्यक्तित्व / एवं कृतत्व जैन विज्ञान एवं गणित जैन समाजशास्त्र जैन अर्थशास्त्र जैन शिक्षाशास्त्र जैन राजनीति जैन मनोविज्ञान एवं भूगोल आज का और आगे आने वाला युग विशेज्ञता का युग है। एक-एक विषय की छोटी-छोटी धाराओं में लोग विशेषता प्राप्त कर रहे हैं। सूक्ष्म से सूक्ष्म विषयों का अध्ययन हो रहा है। इक्कीसवीं सदी में जैनविद्याओं के उक्त, विषयों की भी कई-कई धारायें होंगी और उन पर शोध कार्य होगा । एक अत्यंत चिंतनीय बात जो मैं यहां कहना चाहता हूं, वह यह है कि एक ओर जहां जैनविद्याओं में शोध को इतना बढ़ावा दिया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर प्राथमिक स्तर पर इनके अध्ययन में बहुत अधिक गिरावट आ रही है। गत 1000 वर्षों में अनेक जैनविद्यालय खुले, जहां कहीं संस्कृत के साथ जैनधर्म और कहीं आधुनिक विषयों के साथ जैनधर्म की शिक्षा दी जाती थी । इन्हीं विद्यालयों से निकले छात्र जैनविद्या के मेरुदण्ड बने थे, पर आज ये विद्यालय मृतप्राय: हैं, यतः इनकी शिक्षा रोजगारोन्मुखी नहीं है और रोजगार की समस्या आज की सबसे बड़ी समस्या है । इन विद्यालयों से छात्र न निकलने के कारण विश्वविद्यालय स्तर पर छात्र नहीं मिलते, यही कारण है कि अनेक विश्वविद्यालयों के प्राकृत एवं जैन दर्शन विभागों को छात्रों के अभाव में बंद करना पड़ा है। प्राकृत के प्रति असहिष्णु विचारधारा के कारण भी कुछ विभाग बन्द हुए हैं। आगे आने वाली सदी के लिए हमें आज और अभी इस विषय पर गंभीरता से विचार करना होगा । लगभग सभी भाषाओं की अकादमियाँ भारत एवं उसके प्रदेशों में हैं, पर प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषा के विकास हेतु कोई अकादमी नहीं है, जैन समाज की संस्थाओं / व्यक्तियों को सरकार के साथ मिलकर प्राकृत एवं अपभ्रंश अकादमी की स्थापना के लिए अवश्य ही प्रयत्न करना चाहिए । इक्कीसवीं सदी में जैनविद्या शोध में वैज्ञानिकता आयेगी साथ ही जैन विज्ञान अपना अवगुंठन खोलेगा, विश्व में अहिंसामयी धर्म की स्थापना होगी और सभी सुखी होंगे। सन्दर्भ (1) यह कोष भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पूना से 1944 में विल्सन कालेज, बम्बई के संस्कृत प्रोफेसर श्री हरी दामोदर वेलनकर के सम्पादकत्व में प्रकाशित हुआ था। वर्तमान में यह अनुपलब्ध है। (2) विशेष विवरण के लिए देखें प्राकृत एवं जैनविद्या : शोध सन्दर्भ (द्वितीय संस्करण) डा० कपूरचन्द जैन, प्रका० श्री कैलाशचन्द्र जैन स्मृति न्यास, खतौली, 1991 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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