Book Title: World Jain Conference 1995 6th Conference
Author(s): Satish Jain
Publisher: Ahimsa International

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Page 197
________________ देव हैं जिन्हें देवाधिदेव भी कहा गया है। मथुरा की कुषाण कला में जिनों को चार प्रकार से अभिव्यक्ति मिली है : आयागपटों पर ध्यानमुद्रा में, जिन चौमुखी मूर्तियों में कायोत्सर्गमुद्रा में, स्वतंत्र मूर्तियों के रूप में और उनके जीवन-दृश्यों से संबंधित अंकन में जिनों का निरूपण केवल दो ही मुद्राओं, ध्यान और कायोत्सर्ग में हुआ है। ध्यानमुद्रा में जिन दोनों पैर मोड़कर बैठे होते हैं और उनकी दोनों हथेलियां गोद में होती हैं। पर कायोत्सर्ग मुद्रा में जिन खड़े होते हैं और उनके दोनों हाथ लंबवत् घुटनों तक प्रसारित होते हैं ____ आयागपट मथुरा की प्राचीनतम जैन शिल्प सामग्री है। इसका निर्माण शुंग-कुषाण युग में प्रारम्भ हुआ। कुषाण युग के बाद इसका निर्माण बंद हो गया। जिनों के पूजन के निमित्त स्थापित इन वर्गाकार पूजा शिलापटों पर जिनों की मानव मूर्ति के साथ ही जैन प्रतीकों का भी अंकन हुआ है। ये आयागपट उस संक्रमण काल की शिल्प सामग्री हैं, जब उपास्य देवों का पूजन प्रतीक और मानव दोनों ही रूपों में साथ-साथ हो रहा था। मथुरा से प्राप्त 10 आयागपट लखनऊ, मथुरा एवं दिल्ली संग्रहालयों में हैं। इन पर ध्यानमुद्रा में बनी जिन आकृति के चारों ओर स्तूप, पद. धर्मचक्र, स्वस्तिक, श्रीवत्स, त्रिरल, मत्स्ययुगल, मंगल-कलश, भद्रासन, रत्नपात्र एव दवगृह जस मागालक चि बने हैं। लेखों में इन्हें आयागपट के साथ ही पूजाशिलापट भी कहा गया है। एक आयागपट पर उत्कीर्ण लेख में उल्लेख है कि उसका निर्माण महावीर के पूजन के लिए किया गया था। आयागपटों की जिन मूर्तियों में वक्षःस्थल में श्रीवत्स चिन्ह बने हैं। एक उदाहरण में सिर के ऊपर सात सर्प फणों के छत्र भी प्रदर्शित हैं, जिनके आधार पर आकृति की पहचान 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ से संभव है। अमोहिनी द्वारा स्थापित आर्यवतीपट विशेष महत्व का है। इस पर उत्कीर्ण आर्यवती देवी की पहचान महावीर की माता और अज्जा या आयदिवी से की गई है। जिन चौमुखी मूर्तियों का उत्कीर्णन पहली दूसरी शती ई० में विशेष लोकप्रिय था। लेखों में ऐसी मूतियों को "प्रतिमा सर्वतोभद्रिका", "सर्वतोभद्र प्रतिमा" एवं “चतुर्बिब' कहा गया है। सभी ओर से शुभ या मंगलकारी होने के कारण ही इन्हें “सर्वतोभद्र प्रतिमा" कहा गया। इनमें चारों दिशाओं में कायोत्सर्गमुद्रा में चार जिन मूर्तियां बनी होती हैं। इनमें केवल दो ही जिनों के साथ लांछन प्रदर्शित हैं। अतः चार में से केवल दो ही जिनों की पहचान संभव है। ये जिन लटकती केशावलियों एवं सात सर्पफणों के छत्र से युक्त ऋषभनाथ और पार्श्वनाथ हैं। गुप्त युग में बहुत कम चौमुखी मूर्तियां बनीं। . मथुरा की कुषाण कालीन स्वतंत्र जिन मूर्तियां 83ई० से 173 ई० के मध्य की हैं। इनमें वक्षःस्थल में श्रीवत्स से युक्त जिन या तो कायोत्सर्गमुद्रा में खड़े हैं या ध्यानमुद्रा में आसीन हैं। जिन मूर्तियों में अष्टमहाप्रातिहार्यों में से केवल 6 प्रातिहार्य (सिंहासन, भामण्डल, चैत्यवृक्ष, चामरधर सेवक, उड्डीयमान मालाधर एवं छत्र) ही उत्कीर्ण हैं देवदुन्दुभि एवं दिव्य ध्वनि सहित सभी आठ प्रातिहार्यों का अंकन गुप्त युग में प्रारम्भ हुआ। मथुरा की कुषाणकालीन ध्यानस्थ जिन मूर्तियों में पार्श्ववर्ती चामरधर सेवक सामान्यतः नहीं प्रदर्शित हैं। कुछ उदाहरणों में चामरधरों के स्थान पर दानकर्ताओं या जैन साधुओं की आकृतियां बनी हैं। मथुरा की जिन मूर्तियां निर्वस्त्र हैं। पर महावीर के गर्भापहरण का दृश्यांकन एवं कुछ दिगम्बर जैन साधुओं के हाथों में वस्त्र का प्रदर्शन मथुरा में श्वेतांबर परम्परा के अस्तित्व को भी प्रमाणित करते हैं। यह भी संभव है कि ये मूर्तियां श्वेतांबर और दिगंबर सम्प्रदायों के भेद के पूर्व की हों। जिनों की हथेलियों, तालुओं एवं उंगलियों पर त्रिरत्न, धर्मचक्र, स्वस्तिक और श्रीवत्स जैसे मांगलिक चिन्ह भी बने हैं। में 24 जिनों में से केवल 6 जिनों की ही मूर्तियां बनीं। इनमें ऋषभनाथ, संभवनाथ, मुनिसुव्रत, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ एवं महावीर की मूर्तियां हैं। ऋषभनाथ एवं पार्श्वनाथ की पहचान क्रमशः कंधों पर लटकती जटाओं और शीर्ष के भाग के सात सर्पफणों के छत्र के आधार पर की गई है। मथरा में इन्हीं दो जिनों की सर्वाधिक मूर्तियां हैं। बलराम और कृष्ण की आकृतियों के आधार पर कुछ मूर्तियों की पहचान नेमिनाथ से भी की गई है। ज्ञातव्य है कि जैन परम्परा में बलराम और कृष्ण को 22वें जिन नेमिनाथ का चचेरा भाई बताया गया है। एक उदाहरण में नेमिनाथ का नाम (अरिष्टनेमि) भी उत्कीर्ण है। अन्य जिनों की पहचान पीठिका-लेखों में उत्कीर्ण उनके नामों के आधार पर की गई है। उनके साथ कोई स्वतंत्र लक्षण नहीं दिखाया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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