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मथुरा में कुषाणकाल में ऋषभनाथ और महावीर के जीवन-दृष्य भी उत्कीर्ण हुए। राज्य संग्रहालय लखनऊ (जे-626) में सुरक्षित एकपट्ट पर महावीर के गर्भापहरण का दृश्य है। जैन परम्परा के अनुसार इन्द्र के आदेश पर देव सेनापति नैगमेषी ने महावीर के भ्रूण को ब्राह्मणी देवानन्दा के गर्भ से क्षत्रियाणी त्रिशला के गर्भ में स्थापित किया था। जैन मान्यता के अनुसार जिनों का जन्म केवल क्षत्रिय कुल में ही हो सकता है इसी कारण यह गर्भ-परिवर्तन किया गया। इस फलक पर अजमुख नैगमेषी को ललितमुद्रा में एक ऊंचे आसन पर बैठे दिखाया गया है। नैगमेषी संभवतः महावीर के गर्भ-परिवर्तन का क (इन्द्र की सभा में बैठे हैं। देवता के समीप ही एक निर्वस्त्र बालक की आकृति खड़ी है जो संभवतः महावीर की आकृति है। फलक के दूसरी ओर एक स्त्री की गोद में एक बालक बैठा है जो संभवतः त्रिशला और महावीर की आकृतियां हैं।
राज्य संग्रहालय, लखनऊ (जे-354) के एक दूसरे पट्ट पर इन्द्र-सभा की नर्तकी नीलांजना के ऋषभनाथ के समक्ष नृत्य करने का दृश्य अंकित है। ज्ञातव्य है कि नीलांजना के नृत्य के फलस्वरूप ही ऋषभनाथ को वैराग्य उत्पन्न हुआ था, और उन्होंने संसार त्याग कर प्रव्रज्या ग्रहण की थी। पट्ट पर ऋषभनाथ की दीक्षा और कैवल्य प्राप्ति के भी दृश्य उत्कीर्ण हैं।
कुषाणकाल में वाग्देवी सरस्वती, नैगमेषी और कुछ अन्य देवों का भी निरूपण हुआ। सरस्वती की प्राचीनतम ज्ञात मूर्ति (132 ई०) मथुरा में जैन परम्परा में ही बनी। इस मूर्ति में द्विभुजी सरस्वती की वामभुजा में पुस्तक है जबकि दक्षिण भुजा में अभयाक्ष है। अजमुख नैगमेषी एवं उसकी शक्ति की 6 से अधिक मूर्तियां हैं। बालकों के जन्म से सम्बन्धित इस देवता के गले में लम्बा हार और गोद में या कंधों पर बालक प्रदर्शित हैं। राज्य संग्रहालय, लखनऊ (जे-623) में एक पट्ट है जिस पर संभवतः कृष्ण-वासुदेव के जीवन का कोई दृश्य उत्कीर्ण है। इस पट्ट के ऊपर की ओर एक स्तूप और चार ध्यानस्थ जिन मूर्तियां भी बनी हैं। ____गुप्तकाल में कुषाणकाल की तुलना में काफी कम मूर्तियां बनीं। उनमें कुषाण मूर्तियों का विषय वैविध्य भी नहीं दृष्टिगत होता है। गुप्तकाल में केवल ऋषभनाथ, नेमिनाथ एवं पार्श्वनाथ जिनों की ही मूर्तियां बनीं। पार्श्वनाथ की तुलना में ऋषभनाथ की अधिक मूर्तियां हैं। ऋषभनाथ और पार्श्वनाथ की पहचान लटकती जटाओं और सात सर्प फणों के छत्र के आधार पर संभव है। दो उदाहरणों में बलराम और कृष्ण की पार्श्ववर्ती आकृतियों के आधार पर जिन की पहचान नेमिनाथ से संभव है। गुप्तकाल में अन्यत्र जिनों के लांछनों का अंकन प्रारम्भ हो गया था, जिसके दो उदाहरण राजगिर और वाराणसी की नेमिनाथ और महावीर मूर्तियां हैं। पर मथुरा में जिन मूर्तियों में पीठिका पर जिनों के विशिष्ट लांछनों का अंकन नहीं हुआ। पीठिका लेखों में जिनों के नामोल्लेख की कुषाणकालीन परम्परा भी गुप्तकाल में समाप्त हो गयी। जिन मूर्तियों में प्रदर्शित प्रभामण्डल अब विभिन्न पुष्पों एवं अभिप्रायों से अलंकृत और मनोज्ञ बनने लगा। पार्श्ववर्ती चामरधरों एवं उड्डीयमान मालाधरों का अंकन अपेक्षाकृत अधिक नियमित हो गया। मूर्तियों में अष्टप्रातिहार्यों का भी अंकन होने लगा। जिन चौमुखी का केवल एक उदाहरण मिला है जो विवरणों की दृष्टि से कुषाण चौमुखी के समान है।
मथुरा में पूर्व मध्यकाल (छठी से 11वीं ई०) में भी अनेक जैन मूर्तियां बनीं। ये मूर्तियां दिगम्बर सम्प्रदाय से सम्बद्ध हैं। इनमें जिनों की ही सर्वाधिक मूर्तियां हैं। जिनों में कुषाणकाल की भांति ऋषभनाथ और पार्श्वनाथ की ही सबसे अधिक मूर्तियां बनीं। उनके बाद महावीर और नेमिनाथ की मूर्तियां आती हैं। नेमिनाथ के साथ कुषाणकाल की भांति बलराम और कृष्ण भी आमूर्तित हैं। राज्य संग्रहालय लखनऊ (जे -78, जे-776) में ऋषभनाथ और मुनिसुव्रत के साथ भी बलराम और कृष्ण की आकृतियां बनी हैं, जो परम्परा सम्मत नहीं हैं। सम्भव है मथुरा में वैष्णव धर्म की विशेष लोकप्रियता ने नेमिनाथ के साथ ही अन्य जिनों के साथ भी बलराम और कृष्ण के निरूपण का मार्ग प्रशस्त किया हो। अजितनाथ, संभवनाथ, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ, मल्लिनाथ एवं मुनिसुव्रत की केवल कुछ ही मूर्तियां मिली हैं। इनमें मल्लिनाथ की मूर्ति का विशेष महत्व है, क्योंकि दिगम्बर परम्परा में मल्लिनाथ को पुरुष तीर्थंकर बताया गया है जबकि मथुरा की इस मूर्ति में मल्लिनाथ को वेणी तथा स्त्रीवक्ष से युक्त नारी तीर्थंकर के रूप
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