Book Title: World Jain Conference 1995 6th Conference
Author(s): Satish Jain
Publisher: Ahimsa International

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Page 204
________________ 'वसंता' एवं पत्नी का नाम 'कनकमाला' था। कवि ने अपने को 'कवीश्वर निकर सभायोग्य' लिखा है। जिससे यह मालूम पड़ता है कि आप दरबारी पंडित रहे होंगे। कवि ने शुभचन्द्र देव को अपना गुरु बताया है। यह तथ्य व्यवहारगणित की पुष्पिका से स्पष्ट है: "इति शुभचन्द्रेण योगपदारविन्द मत्त मधुकराय मान मानसान्दित सकल गणित तत्व विलासे विनेयजनसुते श्री राजादित्य विरचिते व्यवहार गणिते ।" श्रवणबेलगोला के 117वें अभिलेख से ज्ञात होता है कि एक शुभचन्द्र 1123 ई. में स्वर्गवासी हुए। ये ही कवि के गुरु प्रतीत होते हैं। यदि ये शुभचन्द्र गुरु हैं तो राजादित्य विष्णुवर्द्धन के आस्थान पंडित होकर लगभग 1120 ई. में जीवित रहे होंगे। राजादित्य ने अपनी रचना में विष्णु नृपाल का नामोल्लेख भी किया है। यहां दृष्टव्य है कि होयसल राजा विष्णुवर्द्धन ने लगभग 1110 ई. से 1142 ई. तक राज्य किया था। फलतः राजादित्य का काल 1120 ई. के आसपास निश्चित प्रतीत होता है।' राजादित्य की कृतियों से विदित होता है कि इनके 'भास्कर' वाच-वाचस्य, वाचिराज, राजवर्म आदि अनेक अपर नाम तथा इनको गणित-विलास, ओजोबेडंग, पट्य विद्याधर, आदि उपाधियां प्राप्त थी। राजादित्य ने अपने पांडित्य एवं गुणों को समस्त विद्या चतुरानन, विबुधाश्रित कल्प महीरूह, आश्रितकल्पमहीन, विश्रुत भुवनकीर्ति, शिष्टेष्ट जनैकाश्रय, अमलचरित्र, अनुरूप, सत्यवाक्य, परहितचरित, सुस्थिर, भोगी, गंभीर, उदार, सच्चरित्र, अखिल विद्याविद, जनता संस्तुत्य, उर्वीश्वर, निकरसभा सेव्य आदि शब्दों द्वारा व्यक्त किया है।" ___ डॉ. नेमीचन्द्र शास्त्री, डॉ. कापड़िया एवं पं. के भुजबली शास्त्री ने आपकी जिन 6 रचनाओं का उल्लेख किया है वे निम्न हैं : 1. व्यवहार गणित : डॉ. के. भुजबली शास्त्री के अनुसार 'यह गद्य पद्यात्मक कृति है। आठ अधिकारों में विभक्त इस ग्रन्थ में सूत्रों को पद्य रूप में लिखकर टीका तथा उदाहरण दिये गये हैं। प्रत्येक अधिकार को हार की संज्ञा दी गई है। कवि ने स्वयं लिखा है कि मैंने ग्रन्थ को मात्र 5 दिन में लिखा है। डॉ. कस्तूरचंद्र कासलीवाल ने रिखा है कि : In the 12th C. Rajaditya great scholar of Mathematical Sciences composed Vyavharaganita in Samskrita. डा. कासलीवाल के उपरोक्त कथन से स्पष्ट है कि इस ग्रंथ की भाषा संस्कृत है। राजादित्यकृत व्यवहार गणित में सहजत्रयराशि, व्यस्तत्रयराशि, सहजपंचराशि, व्यस्तसप्तराशि, सहजनवराशि, व्यस्तनवराशि आदि कई विषय हैं। 2. क्षेत्राणित : आपका दूसरा ग्रन्थ क्षेत्रगणित है। इसमें रेखा गणित के विषयों का विवेचन है। 3. व्यवहार रत्न : इस ग्रन्थ में कुल पांच अधिकार हैं। 4. जैन गणित सूत्रोदाहरण : इस ग्रन्थ के दूसरे नाम जैन गणित सूत्र एवं जैन गणित टीकोदाहरण भी मिलते हैं। 5. चित्रहुसगे : यह ग्रन्थ सूत्र टीका रूप है। 6. लीलावती : यह ग्रन्थ पद्य रूप है। संभवतः यह भास्कराचार्य कृत लीलावती का कन्नड़ अनुवाद है।' ___ इस बात की पर्याप्त संभावना है कि विद्वानों की दृष्टि से ओझल इनका कोई अन्य ग्रन्थ भी हो। यहां विचारणीय है कि मडबिद्री के जैन मठ एवं सम्बद्ध अन्य भण्डारों में उपलब्ध आपके नाम की दो प्रतियों के नाम 'गणित विलास'10 एवं 'गणित संग्रह हैं। क्या यह पूर्वाकित कृतियों के ही अपर नाम हैं अथवा भिन्न । बैंगलोर से हमारे एक शुभचिंतक श्री मनहर सेठ ने सूचना दी है कि राजादित्य की ये कृतियां कर्नाटक वि.वि. धारवाड़ में सुरक्षित हैं। राजादित्य के नाम से 'गणित शास्त्र' नामक एक कृति का निम्नवत उल्लेख डॉ. सेन ने किया है। Sri Rajaditya (UIC SITET) An Astronomical Treatise, Catalouge of oriental manuscripta in the Library of the College, Fort St. George, Incharge of Board of Examiner, Ed. by Rev. William Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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