Book Title: World Jain Conference 1995 6th Conference
Author(s): Satish Jain
Publisher: Ahimsa International

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Page 181
________________ प्रवचन या अहिंसा के भक्तामर स्त्रोत का पाठ हो या चींटियों को चीनी खिलाने का, चाहे निरामिष भोजन को बहुत अधिक उछालने का कार्य अहिंसा का कर्मकांड हो सकता है, अहिंसा का जीवन-प्राण नहीं बन सकता। यदि हत्या, हिंसा है, रक्तपात हिंसा है तो शोषण, अन्याय, विषमता भी प्रचण्ड हिंसा है। जिन्दगी भर कालाबाजारी, मुनाफाखोरी और अन्याय करते रहें एवं धर्मशाला, पाठशाला या अनाथालय के लिए कुछ दान कर स्वर्ग जाने का मार्ग भले ही प्रशस्त कर लें, लेकिन वह अहिंसा नहीं हो सकती। आज राजनीतिक संरचना के अन्तर्गत संसदीय लोकतांत्रिक पद्धति और हिंसा के महाभारत से जब तक हम मुक्त नहीं हो सकते, तब तक, भगवान महावीर और भगवान बुद्ध भी अहिंसा को समाज में प्रतिष्ठित नहीं कर सकते। उसी प्रकार जब तक व्यक्तिगत स्वामित्व और असमानता और मुनाफाखोरी का नियमन अपरिग्रह नहीं किया जायेगा और जब तक केवल लोगों का कर्मकांड होगा तो अहिंसा दिवा-स्वप्न होगा। उसी प्रकार जब तक समाज में धर्म के नाम पर सम्प्रदायों का शिविर रहेगा और वर्ण के नाम पर जातियों का माहौल रहेगा तब तक अहिंसा के हजारों अश्वमेघ यज्ञ क्यों नहीं हो जाएं, अहिंसा प्रतिष्ठित नहीं होगी। उसी प्रकार आज की शिक्षा में जब तक अहिंसा एवं शान्ति के तत्त्व दाखिल नहीं किये जाएंगे, अहिंसा की संस्कृति का विकास नहीं होगा। संक्षेप में अहिंसा सार्वभौम नहीं बन सकती है। अहिंसा केवल एक भावना नहीं, यह हमारी जीवन-क्रिया है। एक तरफ हम महावीर और गांधी की भक्ति करते रहे हैं और दूसरी तरफ निःशस्त्रीकरण के बदले शस्त्रीकरण की दिशा में बढ़ते जाएं यह एक प्रवंचना है। या तो हमें विदेशी आक्रमण के लिए अहिंसात्मक सुरक्षा-व्यवस्था का आविष्कार करना होगा या फिर समाज में व्याप्त हिंसा और आतंकवाद के निराकरण के लिए हमें शान्ति सेना या हिंसावाहिनी का सशक्त संगठन करना होगा या फिर केन्द्रीय रिजर्व पुलिस, सीमा सुरक्षा बल आदि को स्वीकार करना ही होगा। संक्षेप में अहिंसा काव्य की कल्पना नहीं है, यह तो जीवन का वास्तविक कर्म है। कर्म और व्यवहार में अहिंसा को अपनाये बिना अहिंसा न तो पूज्य हो सकती है और न ही वह सार्वभौम। आज विश्व-संकट की घड़ी में हमें एक विश्व-दृष्टि चाहिए। भोगवादी सभ्यता ने विश्व को भी खण्डित कर प्रथम, द्वितीय और तृतीय विश्व में बांट दिया है। पूरब, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर, विकसित और विकासशील राष्ट्र, जाने कितने खण्डों में विभाजित कर दिया है। एक विश्व-दृष्टि के अनुसार विकास की अवधारणा वह है जिसमें हम अधिक से अधिक आवश्यकताओं को बढ़ाकर भोग-विलास में लगे रहें। उपभोगवाद और उपभोक्तावादी संस्कृति की इस उद्दाम धारा ने प्रकृति के अनुचित दोहन, आणविक युद्ध, पर्यावरण के संकट और नशा के संकट से सभ्यता के संकट को और भी गम्भीर बना दिया है। आज यदि हम इस भोगवाद की जीवनशैली को नहीं बदल सकते तो हिंसा की प्रतिष्ठा एक मृग-मरीचिका ही रहेगी। अधिक से अधिक उपभोग के लिए हमें अधिक से अधिक प्राकृतिक सम्पदा का दोहन करना पड़ेगा और नशा तो हमारा सत्यानाश कर देगा। अतः भोग, उपभोग, परिमाण और सरल जीवन शैली ही अहिंसा को सार्वभौम बना सकती है। वैभव का वीभत्स प्रदर्शन या अनियंत्रित हिंसा से देश का काम नहीं चल सकता इसलिए सार्वभौम अहिंसा के लिए समाज की अहिंसक संरचना, समग्र परिवर्तन और अपनी जीवनशैली में अपरिग्रह का समावेश परम आवश्यक है। भागलपुर, बिहार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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