Book Title: World Jain Conference 1995 6th Conference
Author(s): Satish Jain
Publisher: Ahimsa International

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Page 189
________________ यह कहना कठिन है। सामान्यतः तो यही अनुमान लगाया जाएगा कि श्रमण-संस्कृति ही वैदिक-साहित्य से प्रभावित हुई किंतु इन दोनों संस्कृतियों की कुछ अपनी ऐसी विशेषताएं हैं जिसके आधार पर किसी संस्कृति में कौन सा तत्व विजातीय है—यह नहीं कहा जा सकता है। वैदिक-परंपरा के चार पुरुषार्थों में अर्थ तथा काम पर श्रमण-परंपरा का कोई प्रभाव नहीं कहा जा सकता। जहां तक धर्म पुरुषार्थ का संबंध है, वैदिक साहित्य में धर्म समाज, राजनीति तथा अर्थनीति जैसे लौकिक विषयों से - जुड़ा है। जबकि जैन परंपरा में धर्म मोक्ष पुरुषार्थ का ही अपर पर्याय है। व्यास के अनुसार धर्म अर्थ और काम का साधक है। जैन-परंपरा में धर्म का एकमात्र प्रयोजन मोक्ष है न कि अर्थ अथवा काम। तप जैसे विषय के संदर्भ में इस अंतर को स्पष्ट समझा जा सकता है। जैनधर्म में तपस्या की बहुत महिमा है। वैदिक-साहित्य में भी वेद से लेकर पुराणों तक तपस्या का बारंबार उल्लेख है। किंतु एक अंतर स्पष्ट देखने में आता है। वैदिक परंपरा में हर तपस्या का अंत किसी वरदान की प्राप्ति से होता है। जबकि जैन-परंपरा में मुझे एक भी ऐसा उदाहरण ध्यान में नहीं आता जहां तपस्या के बदले में तपस्या करने वाले ने कोई वरदान मांगा हो। जैन-परंपरा में तपस्या निर्जरा का कारण है जबकि वैदिक-परंपरा में तपस्या किसी लौकिक कामना की सिद्धि का साधन है। यहां तक कि कुमार-संभव में जब कालिदास में शिव की तपस्या करते हुए दिखाया तो उन्हें कहना पड़ा ___ 'केनापि कामेन तपश्चचार ।' तपस्या के समान ही एक दूसरा मूल्य मैत्री है जिसका उल्लेख वैदिक-साहित्य में बारंबार है। यनुर्वेद में कामना की गई है कि मैं सबको मैत्री की दृष्टि से देखू और सब मुझे मैत्रीपूर्ण दृष्टि से देखें। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि ब्राह्मण सबका मित्र होता है और वह किसी की हिंसा नहीं करता किंतु वैदिक-साहित्य की इस मैत्री की अवधारणा को भी जैन-परंपरा की अहिंसा की अवधारणा से पृथक करके देखना आवश्यक है। इस संदर्भ में तीन साहित्यिक प्रमाण ध्यातव्य हैं: - 1. गीता में अर्जुन द्वारा अहिंसा के मूल्य को ही आगे रखकर युद्ध न करने की बात कही गई है। यह सत्य है कि वह अपने भाई-बंधुओं के मोह में आसक्त है और इसलिए जैन दृष्टि से उसकी भावना अहिंसा के लिए आवश्यक वीतरागता से परिपूर्ण न होकर रागपूर्ण ही है। यह भी सत्य है कि जैन दृष्टि से ऐसी स्थिति में अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित करना न्याय-संगत नहीं था। किंतु कृष्ण ने जो अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरणा दी उसका मुख्य आधार यह था कि युद्ध क्षत्रिय का धर्म है! जैन दृष्टि से युद्ध कमजोरी की लाचारी हो सकती है, धर्म नहीं। इस मौलिक मतभेद को ध्यान में रखें तो गीता में वे सब अंश जिनमें आपाततः श्रमण-संस्कृति का प्रभाव परिलक्षित होता है। एक प्रकार से श्रमण-संस्कृति का प्रभाव मूल्यों को वैदिक-परंपरा के मूल्यों की अपेक्षा गौण एवं आनुषांगिक बना देने का प्रयत्न ही माना जाएगा। इसमें संदेह नहीं कि गीताकार को स्थितप्रज्ञ का स्वरूप निरूपण करते समय श्रमण-संस्कृति के सर्वोत्तम मूल्यों का पूरा आभास है। किंतु साथ ही यह भी निःसंदिग्ध है कि गीताकार अपने पाठक को यह बताना चाहते हैं कि जीवन के संघर्ष में उस प्रकार के पलायन का औचित्य नहीं है। अहिंसा के संदर्भ में एक दूसरा प्रसंग कालिदास के अभिज्ञानशांकुतल का है । श्लोक इस प्रकार है ---"सहजे किल विनिन्दये गहु दे कम्प बिवज्जणीअए। पशुमालणकम्मदालूणे अणुकम्पा मिदुए वि शोत्तिए" अर्थात् यज्ञ में पशु हिंसा करने वाला ब्राह्मण क्रूर नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह शास्त्रोक्त कर्म कर रहा है। इस प्रकार जहां गीता में युर प्रसंग में क्षत्रिय द्वारा शस्त्र संचालन धर्म मान लिया गया वहां यज्ञ के प्रसंग में ब्राह्मण द्वारा पशु का आलम्भन धर्म माना गया। सामान्यतः ऐसा माना जाता है कि यज्ञ में पशु-बलि का जैनों ने बहुत विरोध किया। इसमें कोई संदेह नहीं कि जैन किसी भी प्रकार की हिंसा के विरुद्ध थे। किंतु जैनों के साहित्य में मुझे कहीं भी यज्ञ में की जाने वाली पशु-हिंसा का विरोध बहुत आग्रहपूर्वक किया गया नहीं मिला। इतना तो प्रत्यक्ष-गोचर है कि आज श्रौत यज्ञों में पशु बलि नहीं होती। ऐसी स्थिति में यह कहना कठिन है कि यह प्रभाव श्रमण-परंपरा का है या उस गोपालक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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