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व्रते साधुः कालो व्रत्यस्तत्र भवो व्रातयः प्रायश्चित्तार्हः, वाते वृन्दे साधुरिति वा पृथग व्ययपदेश्यो न इत्यर्थः,
संस्कारो अत्रोपनयनं तेन वर्जितः। यहां पर स्वोपज्ञ व्याख्या में इसका अर्थ साधु बताते हुए और उनको समान लौकिक संस्कारों से रहित, प्रायश्चित के योग्य और समूह में रहने वाला कहा है। इसी में इसे समूह अर्थ में भी लिया है। एक जगह यह भी कहा है
व्रातीनाः सङ्घजीतवनः। नानाजातीया अनियतवृत्तयः शरीरायासजीविनः सयाः वाताः तत्साहचर्यात् तत्कर्मापि बातम्, तेन जीवन्ति व्रातीनाः “वातादीनण्
सङ्घन जीवन्ति सङ्घजीवनः।। अर्थात् अनेक जाति-समूह वाले, अनियत वृत्ति वाले, शारीरिक कष्टों को सहन कर जीने वाले संघ में रहने वाले व्रात हैं, वात के नियमों के अनुसार वर्तने वाले वातीन हैं।
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