Book Title: World Jain Conference 1995 6th Conference
Author(s): Satish Jain
Publisher: Ahimsa International

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Page 175
________________ का वध, वृक्षोच्छेदन, परस्पर युद्ध और युद्ध के भय उसे प्रलय की ओर ले जा रहे हैं। इस वैचारिक चिंतन से वह सावधान हो रहा है। वह शाकाहार अपना रहा है। बारूद के ढेर पर बैठकर भी उसने शांति की आवश्कता महसूस की है। आज विश्व के किसी भी भाग कुदरती आपत्ति आती है या स्वैराचार से युद्ध होते हैं तो पूरा विश्व चिंतित ही नहीं होता, अपितु शक्तिशाली देश कमजोर एवं न्याय का पक्ष लेकर मदद करते हैं। यू०एन०ओ० का निर्माण ही परस्पर सहकार की नींव पर हुआ है। आज जगदीशचन्द्र बसु का वनस्पति में जीव होना और आइन्स्टाइन के सापेक्षवाद का सर्व स्वीकार जैन दर्शन के सिद्धांतों का ही विस्तरण है। इसी प्रकार हम इन्हीं सिद्धांतों की भूमिका भविष्य के युग में क्या होगी उस पर विचार करेंगे। विश्वशांति में जैनधर्म की भूमिका सुख और समृद्धि विश्वशांति का आधार होता है। यह सुख, शांति व अहिंसा से ही संभव है। मनुष्य को सबसे पहले भावों को अहिंसक बनाना पड़ेगा । द्रव्यहिंसा अर्थात् किसी को मारने- सताने की वृत्ति और प्रवृत्ति का आधार भावों पर ही आलंबित होता है। इसके लिए आने वाले युग में मांसाहार के स्थान पर शाकाहार की अहम् भूमिका होगी। मनुष्य यह समझेगा कि उसकी संवेदनाओं की भांति प्रत्येक जीवधारियों की संवेदनायें हैं। यह जीभ की लोलुपता के लिए शिकार नहीं करेगा। वह अपने दीवानखंडों को पशुओं के सींग, दांत और खाल से नहीं सजाएगा। पशु उसके मित्र होंगे। यह मात्र कल्पना नहीं है । आज विश्व में विशेषकर पश्चिमी जगत् 'वेजीटेरियन सोसायटी' अधिक संख्या में बढ़ रही हैं । यह शाकाहार का प्रचार ही अहिंसा की ओर बढ़ता कदम है। लास एन्जलीस (अमेरिका) में श्री हसेन्द्र भाई के यहां इसी विषय पर चर्चा चल रही थी । बात श्रृंगार प्रसाधनों की चल पड़ी। उनकी बच्ची ने पूछा - " अंकल ! लिपिस्टिक लगाना भी हिंसा है न ? इसमें भी पशुवध होता है । मेरा मन प्रसन्नता से भर उठा। एक आस्था दृढ़ हुई कि यह 9 वर्ष की बच्ची यदि हिंसा-अहिंसा के सूक्ष्म भेद को जान रही तो विश्वास दृढ़ हो गया कि यह कभी भविष्य में हिंसक वस्तुओं का उपयोग नहीं करेगी। आने वाला कल इन्हीं बच्चों की आस्था पर निर्भर होगा। मनुष्य जब प्राणी मात्र के प्रति सौहार्दपूर्ण होगा तब वह युद्ध द्वारा मनुष्य के वध की कल्पना दूर रहेगा। किसी भी शासक के मन में दूसरे का राज्य, स्वतंत्रता हड़पने की हीन भावना नहीं जन्मेगी । युद्ध का भय दूर होते ही मानव-मानव के प्रति सहयोग का व्यवहार करेगा। देशों की अधिकांश संपत्ति जो शस्त्रों में खर्च हो रही है वह जन कल्याण में खर्च होगी। आवश्यकता है कि जैन धर्म के सिद्धांतों का सविशेष अहिंसा का प्रचार मनुष्य के हृदय परिवर्तन हेतु होना चाहिए। चांद पर पहुंचने वाला मानव जो पड़ोसी के हृदय तक भी नहीं पहुंचा वह जन-जन के मन में रमने लगेगा। आज जहां बड़े घरों में जगह नहीं है, वहीं छोटी सी कुटिया भी स्वागत के लिए तत्पर रहेगी । फिर कम्प्यूटर या रिमोट कंट्रोल में जीने वाला भी गलत बटन नहीं दबाएगा । पर्यावरण संरक्षण के संदर्भ में : जैनधर्म के षट्कायिक जीवों की बात आज का विश्व समझा है। उसने अपनी भांति संवेदनाओं को अन्य वनस्पति आदि में भी महसूस किया है। जैनधर्म के अनेक नियम जैसे हरी वनस्पति के अधिक प्रयोग का निषेध, रात्रिभोजन का त्याग, वृक्षों को काटने का निषेध, अधिक जल प्रयोग का निषेध भूमि खनन आदि न करने के नियम इस पर्यावरण के रक्षण में महत्वपूर्ण हैं। प्रदूषण की बढ़ने वाली समस्याओं से जूझने वाले विश्व के लिए जैनधर्म के खान-पान, रहन-सहन के सिद्धांत अधिक उपयोगी सिद्ध होंगे। हमारे पर्यावरण प्रदूषण के फैलाव कारण है हमारा अपरिमित भौतिक सुविधाओं के पीछे दौड़ना। हमारी पेट की भूख से अधिक मौज-शौक की भूख ने धरती के संतुलन को बिगाड़ दिया है । इसकी पूर्ति के लिए उसने नए-नए स्त्रोत तो ढूंढ़े पर वह भूल गया कि इनके कारण क्या दुष्परिणाम होंगे। पर्यावरण के संतुलन को बनाये रखने के लिए मनुष्य को अपने जीवन को संयमित करना होगा। इसके लिए अनावश्यक आवश्यकताओं को संतुलित करने की आवश्यकता है। यह संयम जैनधर्म के सिद्धांतों से ही संभव होगा । वस्तुतः आने वाले कल के प्राकृतिक वातावरण में जीने के लिए जैनधर्म के सिद्धांत ही अनुकूल रहेंगे उदाहरणतः - आज तेल वाहन का प्रदूषण, धुएं का प्रदूषण और अति सूक्ष्मता से विचारें तो वाणी और विचारों का प्रदूषण अधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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