________________
पर्यावरण के विभिन्न आधार और साधन हो सकते हैं, किन्तु धर्म उनमें प्रमुख आधार है। समता, अहिंसा, संतोष, अपरिग्रहवृत्ति, शाकाहार का व्यवहार आदि जीवन-मूल्यों के द्वारा ही स्थायी रूप से पर्यावरण को शुद्ध रखा जा सकता है। ये जीवन-मूल्य जैन धर्म के आधारस्तंभ हैं। संबंधों में संतुलन आवश्यक
मनुष्य और प्रकृति का संबंध मनुष्य के प्रारंभिक विकास के साथ जुड़ा हुआ है। प्रकृति को जाने बिना मनुष्य अपने कर्तव्य का निर्धारण नहीं कर सकता। इसीलिए कहा है कि वस्तु के स्वभाव को जानना ही धर्म है। प्रकृति के एक रूप को जान लेना ही सब वस्तओं को जानने के समान है। वैदिक ऋषियों ने भी यही बात कही—''एक को जान लेने से सबको जाना जा सकता है।"- एकेन विज्ञातेव सर्वमिदं विज्ञानं भवति। जैन आगम भी यही कहते हैं-"जो एगं जाणदि सो सव्वं जाणदि।।
विश्व मे जितने भी जड़-चेतन तत्व हैं उनका अपना-अपना स्वभाव होता है, जिनके कारण उनका अस्तित्व बना हुआ है। जब तक वे अपने स्वभाव में स्थित रहते हैं, तब तक प्रकृति की व्यवस्था में संतुलन बना रहता है, किन्तु जैसे ही किसी एक तत्व या तत्व-समूह की क्रिया, प्रतिक्रिया में व्यापक फेरबदल होता है, प्रकृति का संतुलन बिगड़ जाता है। जिसके फलस्वरूप पर्यावरण प्रदूषित एवं अशुद्ध हो जाता है। ___असमय जल-वृष्टि, अतिउष्णता, अतिशीतलता, असामयिक मौसम परिवर्तन आदि ऐसे भौतिक घटक हैं, जो पर्यावरण को विपरीत रूप से प्रभावित करते हुए प्राकृतिक असंतुलन और प्राकृतिक प्रदूषण की विद्यमानता की पुष्टि करते है। प्रश्न यह है कि अंततः पर्यावरण में अशुद्धता या प्रदूषण क्यों और कैसे होता है ? प्रदूषण के प्रकार
प्रदूषण का अर्थ अत्यंत व्यापक है, इसमें भौतिक एवं अभौतिक दोनों प्रकार के प्रदूषण शामिल हैं। जहाँ तक विज्ञान एवं तकनीकी विकास के साथ जुड़े जल, वायु, ध्वनि आदि भौतिक प्रदूषणों का संबंध है, ये मनुष्यकृत हैं और इन्हें वैज्ञानिक तकनीकी विकास द्वारा किसी सीमा तक रोका जा सकता है।
प्राकृतिक प्रदूषण का दूसरा महत्वपूर्ण अभौतिक पहलू है, जो मानव जगत के मानसिक प्रदूषण से गहराई के साथ जुड़ा हुआ है क्योंकि प्रदूषण केवल प्रकृति में ही नहीं होता, मनुष्य के विचारों में भी होता है। इस वैचारिक, मानसिक प्रदूषण को यदि यथासमय संतुलित नहीं किया गया तो भौतिक प्रदूषण को नियंत्रित कर प्राकृतिक संतुलन की कल्पना "गगन कुसुम' जैसी होगी।
पर्यावरण को प्रदषित करने में मानसिक प्रदषण के अंतर्गत दो मल कारण हैं-तष्णा और हिंसा। इनके विकसित रूप हैं—परिग्रह और क्रूरता। जैन धर्म प्रारंभ से ही तृष्णा और हिंसा पर संयम की बात कहता रहा है। हिंसा का जीवन में विस्तार न हो इस हेतु भगवान् महावीर ने वृक्ष, वनस्पति, वायु, जल, पृथ्वी, अग्नि आदि सभी की चेतना पहचानकर उनके साथ मनुष्य की समानता की बात कही। हिंसा को तिरोहित करने के लिए शाकाहार एवं शुद्ध आहार पर जैन धर्म में विशेष ध्यान दिया गया। बहुत से धान्यों, बीजों, फलों एवं साग को भोजन में न लेने की बात कही गई। ताकि अहिंसा का पालन हो और प्रकृति की सुरक्षा बनी रहे। मांसाहार का निषेध किया गया तथा अनेक हिंसक व्यवसायों पर प्रतिबंध लगाया गया जिनसे पर्यावरण संतुलन का खतरा था। षट्लेश्या
- जैन दर्शन की दृष्टि से जीवन की जो मूलभूत आवश्यकताएँ हैं वे हैं—प्राणवायु, जल, भोजन, वस्त्र और आवास आदि। इनकी पूर्ति प्रकृति के साधनों से करते हुए शेष जीवन जीव-उद्धार के कार्यों में लगाना ही सच्ची प्रगति है, विकास है। विकास का यह मार्ग अपरिग्रह, एवं संतोष के सिद्धांत में छिपा है। महावीर ने लोभ-विजय, बुद्ध ने तृष्णा-क्षय, कबीर ने संतोष-धन आदि पर विशेष जोर देकर मनुष्य को उपभोग से उपयोग की ओर लौटने की बात कही है। इस संतोष धन की श्रेष्ठता 'षट्लेश्या' के माध्यम से कही गई है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org