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रहा था। अहो ! इतना स्वादिष्ट रस मैंने सम्राट् होकर आज तक नहीं पीया, जिसे यह नाचीज़ सी बुढ़िया रोज पीती होगी । प्रातः नित्य क्रियाओं से निवृत्त हो सम्राट् ने मंत्री को बुलावा भेजा। कुछ पलों में मंत्री राजा के सम्मुख प्रस्तुत हुआ । सम्राट् बोला- मंत्रिवर कल मैं सूर्य की प्रथम किरण के साथ शिकार पर निकला था किंतु सूर्य की अन्तिम किरण तक मुझे एक भी शिकार नहीं मिला। मैं श्रान्त-क्लांत एक कुटिया पर पहुंचा। वहाँ एक बुढ़िया माँ ने मुझे इतना स्वादिष्ट अनार का रस पिलाया जो मैंने अपने पचास वसन्त पार करने के बाद भी नहीं पिया। मंत्री ने कहा— स्वामिन् आप किस ओर गये थे। राजा बोला मैं पश्चिम की ओर गया था। कुछ स्थूल संकेत भी राजा ने बतलाये । संकेतों के आधार पर अनुमान द्वारा सुनिश्चित कर मंत्री ने कहा- "राजन् ! वह सीमा क्षेत्र आपके राज्यार्न्तगत आता है । कहिए मैं प्रतिदिन आपको रस उपस्थित करा दूँ। राजा आश्चर्य में पड़ गया—बोला, हमारे राज्य में इतने मधुर फल और मुझे आज तक ज्ञात नहीं। लगता है तुमने उस पर टैक्स नहीं लगाया होगा । जाओ उस सीमा क्षेत्र के बगीचों पर टैक्स लगा दो। राजन्! आपकी आज्ञा शिरोधार्य कहता हुआ मंत्री चला गया। राजा की आज्ञा टैक्स के साथ पूरी हुई।
कुछ दिनों पश्चात सम्राट् शिकार के लिए उसी वन में गया। प्यास लगने पर उसी बुढ़िया की झोंपड़ी में पहुंचा। आवाज दी ओ - "माँ ! तेरा बेटा पुनः प्यासा खड़ा है उसे रस पिलाओ।" बुढ़िया पोपले मुख पर किंचित् मुस्कान बिखेरते हुए बोली हां बेटा ! बैठ मैं अभी लाई रस से भरा लोटा । बुढ़िया लोटा लेकर बगीचे में गई, कुछ फल तोड़े रस निकालने लगी। 15-16 फलों के बाद भी रस का लोटा न भर सका। वह कुछ खाली लोटा लेकर लौटी । सम्राट् ने बीच में कई आवाजें दीं―"मां जल्दी आओ", मां कहती रही, "अभी आई बेटा !" अभी आई। जब मां को कुछ कम भरा लोटा हाथ में लिए देखा तो सम्राट् अधीर हो उठा, बोला-मां ! लोटा पूरा भी नहीं भरा और देर भी बहुत कर दी। पहले तो दो मिनिट में भरकर ले आयी थीं। बुढ़िया बोली -- क्या कहूँ बेटा ! मेरे राज्य का राजा बड़ा दुष्ट है जब से उसकी कुदृष्टि हमारे बगीचों पर पड़ी उसकी नियति बिगड़ गई। उसने फलों पर टैक्स लगा दिया, तब से प्रकृति नीरस हो गई है, रुष्ट हो गई है। इसलिए फलों में पहले जो रस था, दो अनार जितना रस देते थे आज पंद्रह अनार भी वह रस नहीं दे सके। राजा चौकन्ना हो गया उसके कान खरगोश की तरह खड़े हो गए । बोला-मां तुम क्या यह सच कह रही हो ? यदि तुम्हारा सम्राट यहां आ जाये तो तुम यह वाक्य दोहरा सकती हो ? बुढ़िया ने निर्भीकता से उत्तर दिया- क्यों नहीं, यदि वह आ जाये तो मैं यह बात जरूर कहूँगी, सत्य कहने में किसका भय। उसकी दूषित मानसिकता का यही परिणाम है कि प्रकृति रूष्ट हो गई है।
बस फिर क्या था, सम्राट् बोला- मां ! मैं हूँ इस राज्य का दुष्ट शासक । सुनते ही मां के पैर लड़खड़ा गये । राजा ने आश्वस्त किया- मां ! मत घबराओ । चलो मेरे राज्य में, तुमने मेरी आंखें खोल दीं। मेरे दूषित मानसिक प्रदूषण ने प्रकृति को दूषित कर दिया। चलो मेरे साथ चलो। मैं आपको और आपकी नीतियों को सिंहासन पर बिठाकर राज्य करूँगा ।
उक्त परिप्रेक्ष्य में यह आवश्यक है कि हम अपने स्वभाव को जानें- पहचानें और अपने अंदर प्रसुप्त आंतरिक शक्तियों को ज्ञातकर उन्हें प्रकट करें तथा मानव की मर्यादा के अनुकूल जीवन जिएँ । जिससे पर्यावरण के प्रदूषण एवं प्राकृतिक आपत्तियों विपत्तियों से व्यक्ति तथा समाज की रक्षा की जा सके। यही एकमात्र ऐसा राजमार्ग है जो "सर्वहिताय - सर्वसुखाय' के लक्ष्य को प्राप्त करा सकता है। विश्वास है कि शिक्षा मनीषी, वैज्ञानिक, अध्यात्मवेत्ता, एवं राजसत्ता पर पदासीन राजपुरुष वैचारिक शुचिता की महत्ता की गंभीरता को समझेंगे तथा भौतिक तत्वों द्वारा प्राकृतिक प्रदूषण से अभिशप्त प्रकृति - पुरुष को बचाने हेतु मानसिक प्रदूषण को नियंत्रित एवं सयंमित करने में अपना योगदान देंगे। प्रकृति के बीच रहकर प्रकृति को हानि पहुँचाना स्वयं की हानि है । प्रकृति की अवहेलना कष्ट को निमंत्रण देना है। प्रकृति कभी अपने और हमारे नियमों को नहीं तोड़ती किन्तु हम हैं कि उसके नियमों को तोड़ते चले जाते हैं। प्रकृति में जो सहज - सौन्दर्य होता है वह विकृति में नहीं है। प्रकृति सुन्दर ही नहीं, प्रेरक भी है। हम उससे प्रेरणा लें। उसे अपनी गंदी मानसिकता से दूषित करने का दुःसाहस न करें ।
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